संगीत कला की उत्पत्ती कब और कैसे हुई ? इस विषय पर विद्वानों विभिन्न मत हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख इस प्रकार है:-
1.) संगीत की उत्पत्ति आरम्भ में वेदों के निर्माता ब्रह्माजी द्वारा हुई। ब्रह्माजी ने यह कला शिवजी को दी और शिव के द्वारा देवी सरस्वती को प्राप्त हुई। सरस्वतीजी को इसलिए 'वीणा पुस्तक धारिणी' कहकर संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री माना है। सरस्वती जी से संगीत कला का ज्ञान नारदजी को प्राप्त हुआ, नारद जी ने स्वर्ग के गंधर्व, किन्नर एवं अप्सराओं को संगीत शिक्षा दी। वहाँ से ही भरत, नारद और हनुमान आदि ऋषि संगीत कला में पारंगत होकर भूलोक (पृथ्वी) पर संगीतकला के प्रचारार्थ अवतीर्ण हुए।
2.) एक ग्रंथकार के मतानुसार, नारद जी ने अनेक वर्षों तक योग साधना की तब महादेव जी ने उन पर प्रसन्न होकर संगीत कला प्रदान की। पार्वतीजी कि शयन-मुद्रा को देखकर शिव जी ने उनके अंग-प्रत्यंगों के आधार पर रुद्र वीणा बनाएँ और पाँचों मुखों से, पांच रागो की उत्पत्ति की। तत्पश्चात छठा राग पार्वती जी के श्री मुख से उत्पन्न हुआ। शिवजी के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण औरसंत आकाशन्मुख से क्रमशः भैरव, हिंडोल, मेघ, दीपक और श्री राग प्रकट हुए तथा पार्वती द्वारा कौशिक राग की उत्पत्ति हुई। 'शिव-प्रदोष' स्तोत्र में लिखा है कि तीन जगत की जननी गौरी को स्वर्गा सिंहासन पर बैठाकर प्रदेश के समय शूलपाणी शिव ने नृत्य करने की इच्छा प्रकट की। इस अवसर पर सब देवता उन्हें घेरकर खड़े हो गए और उनकी स्तुति गान करने लगे। सरस्वती ने वीणा, इंद्र ने वेनु तथा ब्रह्मा ने करताल बजाना आरंभ किया, लक्ष्मी जी गाने लगी और विष्णु भगवान मृदंग बजाने लगे। इस नृत्यमय संगीत उत्सव को देखने के लिए गंधर्व, यज्ञ पतग, उरग, सिद्ध, साध्य, विद्याधर, देवता, अप्सरा आदि सभी उपस्थित थे।
3.) संगीत दर्पण के लेखक दामोदर पंडित के मतानुसार भी संगीत की उत्पत्ति ब्रह्माजी से ही आरंभ होती है। उन्होंने लिखा है: -
द्रुहिणोत यदन्विष्टं प्रयुक्तं भरते न च ।
महादेवस्य पुरतस्यन्मार्गाख्यं विमुक्तम् ।।
अर्थात - ब्रह्मा जी ने जिस संगीत को शोधकर निकाला, भरतमुनि ने महादेव जी के सामने जिसका प्रयोग
किया तथा जो मुक्तिदायक है वह मार्गी संगीत कहलाता है।
इस विवेचन से
प्रथम मत का कुछ अंशों में समर्थन होता है।
मोर से षड्ज, चातक से रिषभ, बकरे से गांधार, कौंवे से मध्यम, कोयल से पंचम, मेंढक से धैवत और हाथी से निषाद स्वर की उत्पत्ती
हुई।
4) फारसी के एक
विद्वान का मत है कि, हजरत मूसा जब पहाड़ों पर घूम-घूमकर वहाँ की छटा देख रहे थे, उसी वक्त गैव से एक आवाज आई (आकाशवाणी हुई) की या मूसा हकीकी
तू अपना अमा (एक अस्त्र जो फकीरों के पास होता है) इस पत्थर पर मार यह आवाज सुनकर
हजरत मूसा ने अपना असा ज़ोर से उस पत्थर पर मारा तो पत्थर के ७ टुकड़े हो गए और हर
एक टुकड़े में से पानी की धारा अलग-अलग बहने लगी उसी
जलधारा की आवाज से संत अस्सला मालिक हजरत मूसा ने सात सुरों की रचना की जिन्हें सा
रे ग म प ध नि कहते हैं।
5) एक अन्य फारसी
विद्वान का कथन है कि, पहाड़ों पर संत ‘मूसीकार' नाम का एक पक्षी होता है, जिसकी नाक से 7 सुरों बांसुरी की भांति होते हैं, उन्ही 7 सुरों से 7 स्वर ईजात हुए।
6) पाश्चात्य
विद्वान फ्रायड के मतानुसार संगीत की उत्पत्ति एक शिशु के सामान मनोविज्ञान के
आधार पर हुई, जिस प्रकार एक
बालक रोना, चिल्लाना, हँसना आदि
क्रियाएं मनोविज्ञान की आवश्यकतानुसार स्वयं सीख जाता है उसी प्रकार संगीत का
प्रादुर्भाव मानव में मनोविज्ञान के आधार पर स्वयं हुआ।
जे 4.) जेम्स लॉंग के मतानुयायीयो
का भी यही कहना है कि, पहिले मनुष्य ने बोलना सीखा, चलना-फिरना सीखा और फिर शनै-शनै क्रियाशील हो
जाने पर उसके अंदर संगीत स्वतः उत्पन्न हुआ।
इस प्रकार संगीत की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत पाए जाते हैं। इनमें से कौनसा मत ठीक है, यह कहना कठिन ही है, अतः संगीत कला का जन्म कैसे हुआ, कब हुआ? इस पर अपना कोई निर्णय न देकर हम आगे बढ़ना ही उचित समझते हैं -
प्राचीन ग्रंथों में संगीत के चार मुख्य मत पाए
जाते हैं (1) शिवमत या सोमेश्वर मत (2) कृपामत या कल्लीनाथ मत (3) भरतमत और (4)
हनुमत मत
संगीत के इतिहास का कालविभाजन
भारतीय संगीत के इतिहास को निम्नांकित 4 भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(1)
अति प्राचीन काल (वैदिक
काल) : 2000 ईसा सन् पूर्व से 1000 ईसा
पूर्व तक।
(2)
प्राचीन काल (वैदिक संस्कृति परंपरा समाप्त हो जाने के बाद) : 1000 ईसा पूर्व से, सन 800 ईसा तक।
(3)
मध्यकाल (मुस्लिम
काल) : 800 ईसा से 1800 ईसा तक।
(4)
आधुनिक काल (अंग्रेजी
शासनकाल) : 1800 ईसा से 1950 ईसा तक।
(1) अति प्राचीन (वैदिक) काल (2000 ई. पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक)
इस वैदिक काल में
संगीत का प्रचार था, इसका प्रमाण हमें
वेदों से भली प्रकार मिलता है । ऋगवेद में मृदंग, वीणा, वंशी, डमरू आदि वाद्य यंत्रो का उल्लेख मिलता है और
सामवेद तो संगीतमय है ही। कहा जाता है कि, सामगान में पहले केवल तीन स्वरों का
प्रयोग होता था जिनको उदात्त, अनुदात्त और
स्वरित कहते थे। आगे चलकर एक-एक करके स्वर और
बढ़ते गए और इस वैदिक काल में ही सामगान सप्त स्वरों में होने लगा । इसका प्रमाण
सप्तः स्वरास्तु गीयन्ते सामभि: सामगैबु 'धै:' माएडूकशित्ता की इस पंक्ति से भी मिलता है।
पाणिणी शिक्षा तथा नारदीय शिक्षा में
निम्नलिखित श्लोक मिलता है, जिसके आधार पर सप्त
स्वर उनके उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के अंतर्गत इस प्रकार आते थेः-
उदात्त निषादगंधारौ
अनुदात्त रिषभ धैवतो।
स्वरित प्रभावा ह्येते
षड्जमध्यम पंचमा।।
अर्थात,
उदात्त----------अनुदात्त-----------स्वरित
नि ग ० रे ध ० स म प
याज्ञवल्क्य
शिक्षा में भी इसी प्रकार का वर्गीकरण मिलता है। वैदिक काल में संगीत गायन के साथ-साथ नृत्य कला भी प्रचलित थी इसका प्रमाण ऋग्वेद
(5।33।6) में आया है 'नृत्यमनो अमृता'। लिंगपुराण के अनुसार शिव के प्रधान गन
नंदिकेश्वर थे। इन्होने भरत नामक एक विशा ग्रंथ नृत्यकला पर लिखा था। बाद में
इसका संक्षिप्तीकरण 'अभिनय दर्पण' में हुआ । नृत्य करती हुई अनेक प्राचीन
मूर्तियां भी इसका प्रमाण देती है कि वैदिक काल में नृत्य कला प्रचलित थी।
देवताओं द्वारा सोमरस पान करके नृत्य करने की प्रथा से भी संगीत और नृत्य की
प्राचीनता का समर्थन होता है।
(2) प्राचीन काल
(1000 ईसा पूर्व से सन 800 ई. तक)
इस समय का
पूर्वार्ध भाग अर्थात 1000 ईसा पूर्व से 1 ईसवीं तक का समय पौराणिक और बौद्ध काल के
अंतर्गत आता है । इस काल में संगीत का प्रचार किस रूप में रहा ? इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता, किंतु उपनिषद् तथा अन्य ग्रंथों के आधार पर
इतना कहा जा सकता है कि, इस काल में भी संगीत किसी न किसी रूप में चालु अवश्य रहा।
इसके बाद अर्थात 1 ई. से 800 ई. तक संगीत कला प्रकाश में आई । इसी काल में भरत
ने 'नाट्यशास्त्र' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ का निर्माण किया एवं अन्य ग्रंथ भी इस काल
में लिखे गए । भरत के नाट्यशास्त्र में प्रेरणा पाकर ही इस काल में नाट्य और नृत्य
का विशेष प्रचार हुआ। एवं इसी काल में 3 ग्राम, 21 मूर्च्छाना, 7 स्वर और 22 श्रुतियों की प्रणाली का वर्णन भी
संगीत ग्रंथों में किया गया।
इसी
काल में महाकवि कालिदास (400 ई.) द्वारा संगीत और
कविता का प्रचार चारों ओर हो चुका था । राजदरबारों में गायक-वादक सम्मानित होने लगे थे। कालिदास ने अपनी
रचनाओं मैं संगीत का पुट देकर आश्चर्यजनक प्रगति की । उस समय कविता और संगीत के
सम्मिश्र मैं संगीत में एक नई चेतना जागृत करने का श्रेय महाकवि कालिदास को ही है|
हमारे प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण और महाभारत भी इसी
काल में लिखे गए। अर्थात महाभारत का काल 500 ईसा पूर्व से 200 ईसवी तक और रामायण काल
400 ईसा पूर्व से 200 ईसवी तक का माना जाता है
रामायण में एक
वर्णन के अनुसार जब लक्ष्मणजी सुग्रीव के अंतर महल में प्रवेश करते हैं, तो वहाँ वीणा वादन के शुद्ध गायन सुनते हैं । रावण
को भी संगीत शास्त्र का प्रकांड विद्वान बताया गया है। इसी प्रकार महाभारत में भी
सात स्वरों का तथा गांधार ग्राम का वर्णन मिलता है। इन दोनों ही ग्रंथों में संगीत
तथा वाद्ययंत्रों का विशेष उल्लेख मिलता है भेरी, दुंदुभि, मृदंग, घट, डिम-डिम, मृदंदक, आदंबर, वीणा आदि वाद्यो का उल्लेख हम रामायण में देखते
ही है। इससे विदित होता है कि महाभारत और रामायण काल में भी संगीत कला प्रचार में
रही।
भरत का
नाट्यशास्त्र 5 वी शताब्दी की(400-500 ई.) रचना मानी जाती है। यद्यपि यह एक नाटकीय ग्रंथ
है, किंतु इसके 28-29 और 30 वें अध्यायों में संगीत संबंधी
शास्त्र दिया गया है, जिसमें गायन, वादन, नृत्य, श्रुति, स्वर, ग्राम, मुरझाना और
जातियों का उल्लेख है। नाट्य भी नृत्य श्रेणी में आ जाने के कारण यह समुच्च ग्रंथ
ही संगीत कला के अंतर्गत आ जाता है। आज भी नाट्य शास्त्र प्राचीन काल के संगीत का
एक आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है।
इसी समय के आस-पास भरत के पुत्र दत्तील द्वारा लिखित “दत्तिलम”
ग्रंथ का उल्लेख भी मिलता है। यह ग्रंथ भी पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का माना
जाता है। इसमें प्रतिपादित मत लगभग भरत से मिलते-जुलते हैं। दत्तिलम में मूर्च्छना की परिभाषा नहीं दी गई, जब कि भरत के नाट्य शास्त्र में दी गई है।
छटी शताब्दी के समय
में मतंग मुनि प्रणीत बृहद्देशीय ग्रंथ मिलता है, जिसमें ग्राम और मूर्छना का विस्तृत रूप में उल्लेख किया
गया है। सर्व प्रथम “राग” शब्द का उल्लेख भी इसी ग्रंथ में पाया जाता है। इससे पूर्व
के ग्रंथो में राग शब्द नहीं मिलता। मतंग के समय में 7 प्रकार की ग्राम जातिया प्रचलित
थी, जिनमें एक 'वट्ट' राग की जाति
भी है।
सातवीं शताब्दी
के लगभग “नारदीय शिक्षा” नामक एक ग्रंथ नारद का लिखा हुआ मिलता है। यहाँ पर
पाठकों को यह बता देना भी उचित होगा कि यह वे नारद नहीं है जो देवर्षि नारद के नाम
से प्रसिद्ध थे, वरना यह अपने
समय के दूसरे ही नारद है। इस ग्रंथ में भी सामवेदीय स्वरों को विशेष महत्व देते
हुए 7 ग्राम राँगो का वर्णन किया गया है, जिनके नाम इस
प्रकार है:-
1.षाडव, 2.पंचम, 3.मध्यम, 4.षड्जग्राम, 5.साधारिता, 6.कैशिक मध्यम और 7.मध्यमग्राम ।
सातवीं और आठवीं
शताब्दियों में दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का विशेष ज़ोर रहा, अतः भक्ति और संगीत के सामंजस्य द्वारा जगह-जगह कीर्तन और भजन गाये जाने लगे, इस प्रकार धार्मिक भावना का बल पाकर इस काल
में संगीत का यथेष्ट प्रचार हुआ।
आठवीं शताब्दी
में नारद का एक और ग्रंथ संगीत मकरंद प्रकाश में आया, जिसमें राग रागिनियों की कल्पना पुरुष राग और स्त्री रागों
के रूप में प्रथम बार की गई । कहा जाता है कि इसी के आधार पर आगामी ग्रंथकारों ने
राग-रागिनी वर्गीकरण किये।
(3) मध्य काल (मुस्लिम काल)
(सन 1100 ई. से 1800 ई. तक)
मुसलमानों का
आगमन भारत में 11 वीं शताब्दी में हुआ| भारतीय संगीत शास्त्र (Theory) उस समय तक संस्कृत भाषा में होने के कारण
मुसलमान उसे समझने में असमर्थ रहे, फिर भी गायन
वादन (क्रियात्मक संगीत) में उन्होंने अच्छी उन्नति की| नये-नये रागों का आविष्कार किया एवं तरह-तरह के नवीन संगीत वाद्य बने, जिनका तत्कालीन मुस्लिम बादशाहों द्वारा आदर
हुआ और गायक-वादकों का सम्मान
होने लगा।
इसके बाद 12 वीं शताब्दी
में संगीत की दशा विशेष अच्छी नहीं रही, क्योंकि इस काल
में मुहम्मद गौरी तथा अन्य मुस्लिमों द्वारा हिंदू राजाओं से युद्ध होता रहा, जिसके कारण देश में अव्यवस्था फैली, अतः संगीत प्रचार के मार्ग में भी बाधा पड़ना
स्वाभाविक ही था
12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जयदेव कृत 'गीत गोविन्द'
नामक संस्कृत के एक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना हुई । इसके रचयिता प्रसिद्ध कवि और
संगीतज्ञ जयदेव है, जिन्हें उत्तर
भारत का प्रथम गायक होने का सम्मान प्राप्त था । गीत गोविंद में राधा-कृष्ण संबंधी प्रबंध गीत है, जिन्हें आज भी अनेक गायक ताल-स्वरों में बांधकर गाते है। जयदेव कवि का
जन्म बंगाल में बोलपुर के निकटस्थ केन्डुला
नामक स्थान में हुआ था, जहा पर अब भी
प्रतिवर्ष संगीत समारोह मनाया जाता है ।
गीत गोविंद की विशेषता पर मुग्ध होकर सर एडविन
आरनॉल्ड ने (Sir Devun Arnald) ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद “The Indian Song Of Songs” अर्थात 'भारतीय गीतों के गीत' इस नाम से किया है |
13 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पंडित शारंगदेवने “संगीत रत्नाकर” ग्रंथ की रचना की । इसमें नाद, श्रुति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, जाति इत्यादि का
विवेचन भली प्रकार किया गया है । दक्षिणी और उत्तरी संगीत विद्वान इस ग्रंथ को
संगीत का आधार ग्रंथ मानते हैं । आधुनिक ग्रंथों में भी संगीत रत्नाकर के अनेक
उदाहरण पाठकों ने देखे होंगे । शारंगदेव ने अपने इस ग्रंथ में मतंग से अधिक विवरण
अवश्य दिया है, किंतु सैद्वान्तिक
दृष्टि से मत लगभग एक सा है ।
शारंगदेव का समय
1210 से 1247 ई. के मध्य का माना
जाता है, यह देवगिरि (दौलताबाद)
के यादव वंशीय राजा के दरबारी संगीतज्ञ थे ।
इसके पश्चात (1300 से 1800 ई.) संगीत का विकास
काल माना जाता है । 13 वीं शताब्दी के समाप्त होते ही अर्थात 14 वीं शताब्दी के
पूर्वार्ध में दक्षिण पर यवनों कई आक्रमण होने से देवगिरी यादव वंश नष्ट हो गया ।
जिसके फलस्वरूप भारतीय संगीत और सभ्यता पर भी यवनों का प्रभाव पडे बिना नहीं रहा ।
इसी समय मुस्लिमों द्वारा फारसी के रागों का आगमन भारत में प्रारंभ हो गया ।
दिल्ली का शासन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के हाथ में था, इसी समय (1296 से 1316 ई.) में संगीत कला की विशेष उन्नति हुई ।
अमीर खुसरो का समय : इसी समय के लगभग
खिलजी के दरबार में हजरत अमीर खुसरो नाम के एक प्रसिद्ध और कुशल गायक राज़ मंत्री
थे, इन्होंने अनेक नवीन राग, नवीन वाद्य और तालो की रचना की, इससे संगीत कला विकास की ओर अग्रेसर हुई । इनके
विषय में कहा जाता है कि अमीर खुसरो की ही
वह प्रथम तुर्क थे जिन्होंने अपने देश के रागों को भारतीय संगीत में मिलाकर एक
नवीनता पैदा की।
कहा जाता है कि गोपाल नायक नामक प्रसिद्ध गायक
भी, इसी दरबार में आ गया था
और अमीर खुसरो से उसकी संगीत प्रतियोगिता भी दिल्ली में हुई ।
अमीर खुसरो द्वारा अविष्कृत गीतों के प्रकार, ताल, तथा साजो़ का
उल्लेख भी यहाँ पर संक्षिप्त रूप में कर देना अनुचित न होगा-
गीतों के प्रकार- गज़ल, कव्वाली, तराना, खमसा, खयाल ।
राग- जिल्फ, साजगिरी, सरपर्दा, यमन रात की पुर्या, धरारी तोड़ी, पूर्वी इत्यादि ।
ताले- भूमरा, आडा चौताला, सुलफाक, पश्तो, फरोदस्त, सवारी इत्यादि ।
वाद्य- सितरा, तबला ।
गोपाल नायक ने भी कूछ रागो का भी अविष्कार किया
। जिनमे पिलू, बडहंस सारंग और विरम
उल्लेखनीय है ।
15 वीं शताब्दी में कवि लोचन कृत हिंदुस्तानी संगीत पद्धति पर एक प्रसिद्ध ग्रंथ “राग तरंगिनी” लिखा, कुछ लेखक लोचन का समय 12 वी शताब्दी बताते है, किंतु लोचन कवि ने अपनी ग्रंथ मेँ जयदेव और विद्यापति के उदाहरण दिए हैं ये दोनों शास्त्रकार क्रमशः 12 वीं और 14 वीं शताब्दी के हैं अतः लोचन का समय इस हिसाब से 12 वी शताब्दी ठीक नहीं बैठता ।इसमें प्राचीन राग-रागिनीं पद्धती को छोडकर थाट पद्धती अपनाई गई है इन्होने सभी जन्य रागों को 12 जनक मेलों (थाटो) में विभाजित किया है, अर्थात कुल 12 थाट मानकर उनसे अनेक राग उत्पन्न किए हैं। अपना शुद्ध थाट इन्होंने वर्तमान काफी थाट के समान माना है । राग तरंगिणी के अधिकांश भाग में विद्यापति के गीतों पर विवेचन है ।
1456 - 1477 ई. के लगभग विजयनगर के राजा के दरबार में संगीत के सुप्रसिद्ध
पंडित कल्लीनाथ थे । इन्होंने शारंगदेव कृत संगीत
रत्नाकर की टीका विस्तृत रूप से लिखी । यह टीका यद्यपि संस्कृत भाषा में ही थी तथापि
उसके द्वारा अनेक संगीत शास्त्रकारों ने यथोचित लाभ उठाया ।
15 वीं शताब्दी में (1458 – 1499 ई.) जौनपुर के
बादशाह सुल्तान हुसैन शर्की संगीत कला के अत्यंत प्रेमी हुए हैं । इन्होंने ख्याल गायकी (कलावन्ती ख्याल) का आविष्कार
किया एवं अनेक नवीन रागों की रचना की । जैसे जौनपुरी तोडी, सिंधु भैरवी, रसूली तोड़ी 12 प्रकार के श्याम, जौनपुरी, सिंन्दुरा इत्यादि ।
इसी समय अर्थात 1485-1533 ई. के बीच उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन ने ज़ोर
पकड़ा । भजन कीर्तन के
रूप में संगीत का जगह-जगह उपयोग होने लगा । साथ ही साथ बंगाल में चैतन्य महाप्रभु एवं अन्य
भगवत भक्तों द्वारा संकीर्तन का प्रचार हुआ, जिसके द्वारा संगीत को भी यथेष्ट बल प्राप्त
हुआ ।
सन 1550 ई. के लगभग कर्नाटकी संगीत का एक प्रसिद्ध ग्रंथ “ स्वरमेल कलानिधि “ रामामाल्य
द्वारा लिखा गया जिसमें बहुत से रागों का वर्णन दिया गया है । यद्यपि उत्तर भारत की संगीत पद्धति से इस
ग्रंथ का सीधा संबंध नहीं है तथापि इसका अध्ययन संगीत जिज्ञासुओं के लिए भी आवश्यक
समझा जाता है ।
अकबर का समय : 16 वीं शताब्दी (1556 - 1605 ई.) में संगीत की विशेष उन्नति हुई, यह बादशहा अकबर का समय था । अकबर संगीत के विशेष प्रेमी थे, इनके दरबार में 36 संगीतज्ञ थे । जिनमें प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन, बैजूबावरा, रामदास, तानरंग खां के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं ।
मियाँ तानसेन और बैजूबावरा : इससे पहले तानसेन राजा रामचन्द्र के यहाँ रहते
थे, इनके संगीत की प्रशंसा
सुनकर अकबर ने तानसेन को अपने दरबार में प्रधान गायक के रूप में रखा । कहा जाता है कि
तानसेन और बैजू बावरा की संगीत प्रतियोगिता भी एक बार हुई । तानसेन ने कुछ रागों का आविष्कार भी किया , जिनमें दरबारी कन्हरा, मियां की सारंग, मियां की मल्हार इत्यादि रागों के नाम है । तानसेन के संगीत से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य भी हो
गए थे, बाद में यह शीर्ष वर्ग दो भागों में बट गए 1) रवायिये, जो तानसेन द्वारा अविष्कृत रवाव बजाते थे और 2) बीनकार जो वीणा बजाते थे । बिनकारों के प्रतिनिधि रामपुर के वजीर खां तथा
रवयीयो की प्रतिनिधि
मोहम्मद अली खां रामपुर रियासत वाली माने जाते थे ।
स्वामी हरिदास :अकबर के समय में ही स्वामी हरिदास वृंदावन के
एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ महात्मा हुए हैं । जिनका जन्म सम्वत 1569 भाद्रपद शुक्ल आठ (सन 1512 ई.) में हुआ, तानसेन इन्ही के शिष्य थे । स्वामी जी के शिष्यो द्वारा संगीत का प्रचार अनेक नगरों में भली
प्रकार हुआ । कहा जाता है कि
स्वामी हरिदास जी अपने समय के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ थे । इनके विषय में एक कथा इस प्रकार बताई जाती है कि एक दिन तानसेन से
अकबर पूछ बैठे की तानसेन ऐसा भी कोई गायक है जो तुम से भी सुंदर गाता हो । इस पर तानसेन ने
अपने गुरु स्वामी हरिदास का नाम बताया । अकबर ने उनका गायन सुनने की इच्छा प्रकट की, किंतु तानसेन ने कहा कि दरबार में तो वे नहीं आयेंगे, तब एक नवीन युक्ती से काम लिया गया । अकबर ने अपना वेश बदलकर तानसेन का तानपुरा लिया और तानसेन के साथ स्वामी जी
के यहाँ जा पहुँचे । जब स्वामीजी ने
से गाने का आग्रह किया गया तो उन्होंने अपनी अनिच्छा प्रकट की । तब तानसेन ने एक
चाल चली, उसने जानबूझकर स्वामीजी के सामने एक राग
अशुद्ध रूप में गाया । स्वामीजी से न रहा गया उन्होंने वह
राग स्वयं गाकर
तानसेन को बताया । इस प्रकार अकबर
की इच्छा पूर्ण हुई । स्वामी जी के गाने
से प्रभावित होकर अकबर ने तानसेन से पूछा कि तानसेन तुम इतना सुंदर क्यों नहीं
गाते ?
तानसेन ने उत्तर दिया, जहाँपनाह मुझे जब दरबार की आज्ञा होती है तभी जाना पड़ता है, किंतु गुरु जी को कि अंतरआत्मा प्रेरणा करती है तभी वे गाते
हैं इसलिए उनके संगीत में एक विशेषता है ।
ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर : अकबर के समय में ही ग्वालियर के राजा मान सिंह
तोमर द्वारा ग्वालियर का प्रसिद्ध संगीत घराना चालू हुआ ग्रुप गायकी के आविष्कार
का श्रेय भी राजा मान सिंह को ही दिया जाता है ।
संत सूरदास, संत कबीर, संत तुलसीदास, संत मीरा : 16 वीं शताब्दी संगीत और भक्ति काव्य के समन्वय की दृष्टि
से अत्यंत महत्वपूर्ण रही; क्योंकि इसे शताब्दी में सूरसागर के रचयिता एवं गीत
काव्य के प्रकांड विद्वान महात्मा सूरदास, रामचरितमानस के यशस्वी लेखक गोस्वामी तुलसीदास, हिंदू-मुस्लिम
एकता के प्रतीक संत कबीर दास तथा सुप्रसिद्ध कवियित्री और भजन गायिका मीराबाई
द्वारा भक्ति पूर्ण काव्य के प्रचार से संगीत कला भगवत प्राप्ति का साधन बनकर
उच्चतम शिखर पर पहुंची।
उपरोक्त चारों संतो के जीवनकाल के हिसाब से इस
प्रकार होते हैं:-
नाम जन्म मृत्यु
संत कबीरदास " " 1456 " 1575
संत सूरदास " " 1540 " 1620 "
संत तुलसीदास " " 1554 " 1680 "
संत मीराबाई " " 1560
" 1630 "
ईसवी सन की दृष्टि से उक्त चारों भक्तों का समय 1400 - 1600 के मध्य का माना जा सकता है । इनके भजन और पद अमर हो
गए हैं । और आज भी भारत के घर-घर में इनका प्रचार है ।
पुण्डरीक विठ्ठल के ग्रंथ : 1599 के लगभग,
संगीत के एक कर्नाटकी पंडित पुंडरीक विट्ठल द्वारा लिखे हुए संगीत संबंधी चार
ग्रंथ मिलते हैं (1) सद्रागचंद्रोदय (2) रागमाला (3) राग मंजरी (4) नर्तन निर्णय ।
यह पुस्तकें बीकानेर लाइब्रेरी में सुरक्षित है ।
जहांगीर का राज्य (17 वी शताब्दी)
1605 ई. से 1627 ईसवी तक जहांगीर का राज्य रहा । इनके दरबार में बिलास
खां ,छत्तर खां, खुर्रमदाद, मख्खु, परवेज़दाद और हमजान प्रसिद्ध गवैये थे । इसी शासनकाल में
दक्षिण भारत के राजमुन्द्री स्थान निवासी पंडित सोमनाथ ने संगीत का ग्रंथ 'राग विवोध'
लिखा । इसका रचनाकाल ग्रंथकार ने स्वयं शके 1531 (अर्थात 1610 ई.) अश्विनी शुद्ध
तृतीया बताया है । इसमें उन्होंने अनेक विणाओं का वर्णन किया है तथा रागों का जन्यजनक
पद्धति से वर्गीकरण किया है ।
जहांगीर के समय में
ही हिंदुस्तानी संगीत पद्धति पर 1625 ई. में
संगीत दर्पण नामक ग्रंथ का निर्माण पंडित दामोदर ने किया । इसमें संगीत रत्नाकर के
भी बहुत से श्लोक कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं । राग-रागिनीयों के ‘ध्यान’ शीर्षक से जो देवरूप इसमें उपस्थित
किए हैं वे अत्यंत आकर्षक और मनोरंजक है । इसमें स्वराध्यायऔर और रागाध्याय का
विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । सर विलियम जॉन्स की पुस्तक द्वारा “The musical modes of the Hindus” द्वारा यह भी पता
चलता है कि संगीत दर्पण का फारसी अनुवाद
भी हो चुका है । इसके गुजराती तथा हिंदी अनुवाद भी वर्तमान काल में हो गए
हैं , इससे इस ग्रंथ की लोकप्रियता का आभास भली प्रकार मिलता है ।
1660 ई. के आसपास शारंगदेव गुरु परंपरा के शिष्य पंडित व्यंकटमखी ने दक्षिण पद्धति के आधार पर संगीत का एक ग्रंथ ‘चतुर्दंडिप्रकाशिका’ निर्मित किया । इसमें गणितानुसार सप्तक के 12 स्वरों में 72 मेल अर्थात थाट और एक थाट मे 484 रागों की उत्पत्ति सिद्ध की है । 72 थाटो में से 19 थाट जो दक्षिणी पद्धति में प्रयोग किए जाते हैं उनका विवरण तथा इन थाटो से उत्पन्न 55 रागों का विवरण भी इस पुस्तक में दिया है ।
शाहजहां का समय - 17 वी शताब्दी : शाहजहां का शासनकाल 1628 से 1658 ई. माना जाता है । यह
बादशाह खुद गाना जानता था । इसके उर्दू भाषा के गाने अत्यंत मधुर और आकर्षक होते
थे । गायकों का इसके यहां इतना आदर था कि अपने दरबारी गवैया दैरगया और लालखा को
इसमें चांदी से तुलना कर 4500) से
प्रत्येक को पुरस्कृत पुरस्कृत किया । इनके अतिरिक्त शाहजहां के दरबार में
प्रसिद्ध गायक रामदास महापट्टेर और जगन्नाथ भी थे ।
औरंगजेब का समय - 1658 से 1707 ई.: औरंगजेब आलमगीर संगीत का कट्टर शत्रु था, उसे संगीत से इतनी चिढ़ थी कि एक दिन हुक्म निकाल दिया कि
सब साज दफना दिए जाएं । इसके समय में यद्यपि संगीत को राजश्रय नहीं रहा, किंतु पृथक रूप से संगीतज्ञो की साधना को औरंगजेब भी नहीं
रोक सका ।
17 वी शताब्दी के
पूर्वार्ध में उस समय के संगीत विद्वान पंडित अहोबल ने सन 1650 ई. के लगभग हिंदुस्तानी संगीत का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ “संगीत
पारिजात” लिखा । इसी पंडित ने सर्वप्रथम वीणा के बजाने वाले तार की लंबाई पर
भिन्न-भिन्न नाप से अपने शुद्ध तथा विकृत स्वरों की स्थापना की । अहोबल का शुध्द थाट
भी लोचन की भांति आजकल प्रचलित काफी थाट के समान था । पारिजात का फारसी अनुवाद
1724 ई. में श्री दीनानाथ द्वारा हुआ और हिंदी अनुवाद श्री कलिंद
द्वारा 1941 ई. में होकर संगीत कार्यालय हाथरस में से प्रकाशित हुआ ।
परिजात के पश्चात हृदयनारायणदेव ने 'हृदय कौतुक' और 'हृदय प्रकाश'
यह दो ग्रंथ लिखे, जिनमें अहोबल का अनुकरण करते हुए 12 स्वर स्थान वीणा के
तार पर समझाए है ।
संगीत विद्वान पंडित भावभट्ट ने संगीत के 3 ग्रंथ भी ( 1674
– 1709 ई. के
लगभग ) लिखे (1) अनूपविलास (2) अनुपाकुंश (3)अनूपसंगीत
रत्नाकर । भावभट्ट दक्षिण पद्धति के लेखक थे, इनका शुद्ध थाट 'मुखारी' है। 20 मेल(थाटो) में इन्होंने सब रागों का विभाजन
किया है ।
मुहम्मद शाह रंगीले-(अठराहवी शताब्दी)
सदारंग-अदारंग:18 वीं शताब्दी
के पूर्वार्ध (1719 – 1740 ई.) में मुगल वंश के अंतिम बादशाह मुहम्मद शाह रंगीले हुए । संगीत
के यह अत्यंत प्रेमी थे, बहुत से गीतों में इनका नाम प्रायः आजकल भी पाया जाता है ।
रंगीले के दरबार में दो अत्यंत प्रसिद्ध गायक सदारंग और अदारंग थे, जिन्होंने हजारों ख्यालों की रचना करके अनेक शिष्य तैयार किये।
वास्तव में ख्याल गायकी के प्रचार का
श्रेय सदारंग और अदारंग को ही है, इन्हीं
के ख्याल आज सर्वत्र प्रचार में आ रहे हैं । इसी समय में शोरी मियां ने 'टप्पा' ईजात
करके प्रचलित किया ।
18 वी शताब्दी के उत्तरार्ध में संगीत साधना साधारण रूप से
चलती रही, इधर मुस्लिम शासकों की शक्ति क्षीन होने लगी और अंग्रेजों
का पंजा धीरे-धीरे भारत पर जमने लगा । इस उथल-पुथल में संगीत कला बड़े-बड़े राजा राजाश्रयो
से पृथक होकर स्वतंत्र रूप से एवं कुछ छोटी छोटी रियासतों में पलने लगी ।
इसी समय में पंडित श्रीनिवास में 'राग तत्वबोध' नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी । जिसमें उन्होंने भी पारिजात कार की भांति 12 स्वरस्थान बनाकर अपना सुधार आधुनिक काफी थाट के समान निश्चित किया । मध्यकालीन ग्रंथकारों में भी निवास पंडित ही अंतिम ग्रंथकार है ।
इसी काल में ( 1763 – 1786 ) तंजौर के मराठा महाराजा तुलाजी राव भोसले द्वारा
संगीत सारामृत नामक पुस्तक लिखी गई । संगीत सारामृत में दक्षिणी संगीत पद्धति का
वर्णन किया है और 72 थाट स्वीकार करते हुए 21 मेल (थाटो) द्वारा 110 जन्य रागों का
वर्णन किया है ।
राग लक्षणम ग्रंथ में रागोत्पादक 72 थाट मानकर उनके द्वारा
अनेक रागों का विवरण स्वरो सहित दिया है । यह ग्रंथ भी दक्षिण की प्रचलित संगीत
पद्धति का आधार ग्रंथ माना गया है । इस पर मूल लेखक का नाम तो नहीं दिया गया किंतु
इस ग्रंथ की प्रस्तावना से पता चलता है कि तंजोर के ही एक गृहस्थ के यहां से यह
प्राप्त हुआ था ।
(4) आधुनिक काल (अंग्रेजी राज्य)
अंग्रेज, भारतीय संगीत को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे, साथ ही साथ अंग्रेजी शब्द सभ्यता का प्रभाव रियासतों पर भी पड़ने लगा । जिसके फलस्वरूप राजा लोग भी संगीत के प्रति उदासीनता का भाव प्रकट करने लगे और इस प्रकार रियासतों से संगीतज्ञो को आश्रय प्राप्त हो रहा था उसमें बाधा पड़ने लगी । फिर भी कुछ खास खास रियासतों में विभिन्न घरानों के संगीतज्ञ संगीत साधना में तल्लीन रहे । साथ ही उन दिनों संगीत का प्रवेश भले घरों में निषिद्ध माना जाने लगा, इसका भी एक विशेष कारण था कि इस समय में शासन वर्ग की उदासीनता के कारण संगीत कला निकृष्ट श्रेणी के व्यवसायी स्त्री पुरुषों में पहुंच चुकी थी । अतः नवीन शिक्षा प्राप्त सभ्य समाज का इसके प्रति उपेक्षा रखना स्वाभाविक ही था । किंतु संगीत के भाग्य ने फिर पलटा खाया और कुछ प्रसिद्ध अंग्रेजों (सर विलियम जोन,कैप्टन
डे ,कैप्टन विलर्ड आदि) ने भारतीय संगीत का अध्ययन करके इस पर कुछ पुस्तकें लिखी, जिनका प्रभाव शिक्षित वर्ग पर अच्छा पडा और संगीत के प्रति अनादर का भाव धीरे-धीरे घटने लगा ।
आधुनिक काल में, सर्वप्रथम बिलावल को शुद्ध थाट मानकर 1813 ई. में पटना के एक रईस मुहम्मद रजा ने 'नगमाते आसफी' नामक पुस्तक लिखी । इन्होंने पूर्व प्रचलित राग रागिनी पद्धति का खंडन करके अपना एक नवीन मत चलाया, जिसमें 6 राग और 36 रागिनी मानकर उनका नए ढंग से विभाजन किया ।
1776 से 1804 ई. में जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने एक विशाल संगीत कांफ्रेंस का आयोजन करके बड़े-बड़े संगीत कलाविदो को इकट्ठा किया और उनसे विचार विनिमय करने के पश्चात 'संगीत सार' नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें बिलावल थाट को ही स्वीकार किया गया है ।
इसके पश्चात 1842 में श्री कृष्णानंद व्यास ने 'संगीत राग कल्पद्रुम' नामक एक बड़ी पुस्तक लिखी, जिसमें उस समय तक के हजारों ध्रुपद, ख्याले तथा अन्य गीत ( बिना स्वरलिपि के ) दिए हैं ।
उत्तरीय भारत में इस समय राग वर्गीकरण की नई पद्धति बनाने की योजना चल रही थी और उधर तजौर दक्षिणी संगीत का विशाल केंद्र बन गया था, जहां अनेक प्रसिद्ध संगीत विद्वान त्यागराज, श्यामशास्त्री सुवराम दीक्षित आदि संगीत कला का प्रचार कर रहे थे ।
इस परिवर्तन काल में भी बंगाल के राजा सर सुरेंद्र मोहन टैगोर ने तथा अन्य कुछ विद्वानों ने राग-रागिनी पद्धति का ही समर्थन करते हुए कुछ पुस्तके लिखी, जिनमें 'यूनिवर्सल हिस्ट्री ऑफ म्यूजिक' का नाम विशेष उल्लेखनीय है ।
संगीत प्रचार का आधुनिक काल (1900- 1950
ई.)
इस आधुनिक काल में संगीत उद्धार और प्रचार का श्रेय भारत की दो महान विभूतियों को है, जिनके शुभ नाम है पंडित श्री विष्णु नारायण भातखंडे और पंडित श्री विष्णु दिगंबर पलुस्कर । दोनों ही महानुभावों ने देश में जगह-जगह पर्यटन कर के संगीत कला का उद्धार किया । जगह-जगह अनेक संगीत विद्यालयों की स्थापना की । संगीत सम्मेलनों द्वारा संगीत पर विचार विनिमय हुए जिसके फलस्वरूप जनसाधारण मैं संगीत की रूचि विशेष रूप से उत्पन्न हुई । इस काल में शास्त्रीय साधना के साथ-साथ संगीत में नवीन प्रयोग द्वारा एक विशेषता पैदा करने का श्रेय विश्वकवि श्री रविंद्रनाथ ठाकुर को है , इन्होंने प्राचीन राग रागिनीयों के आकर्षक व समुदाय लेकर तथा अन्य कलात्मक प्रयोग द्वारा ‘रविंद्र संगीत’ के रूप में एक नई चीज संगीत प्रेमियों को दी ।
पंडित श्री विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म बम्बई प्रांत के बालकेश्वर नामक स्थान में 10 अगस्त 1860 ई. को हुआ । इन्होंने 1883 में बी. बी. ए. और 1890 में एल.एल.बी. की परीक्षा पास की । इनकी लगन आरंभ से ही संगीत की और थी । 1604 में आपकी ऐतिहासिक संगीत यात्रा आरंभ हुई, जिसमें आपने भारत के सैकड़ों स्थानों का भ्रमण करके संगीत संबंधित साहित्य की खोज की । बड़े-बड़े गायकों का संगीत सुना और उनकी स्वरलिपियां तैयार करके ' क्रमिक पुस्तक मालिका ' में प्रकाशित कराई , जिसके के 6 भाग है । थेअरी (शास्त्र) ज्ञान के लिए आपने हिंदुस्तानी संगीत पद्धति के चार भाग मराठी भाषा में लिखे । संस्कृत भाषा में भी आपने लक्ष्यसंगीत और “अभिनव राग मंजरी” नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन संगीत की विशेषताओं एवं उस में फैली हुई भ्रांतीयों पर प्रकाश डाला । श्री भातखंडे जी ने अपना शुद्ध थाट बिलावल मानकर थाट पद्धति स्वीकार करते हुए 10 थाटों में बहुत से रागों का वर्गीकरण किया ।
1916 ई. में बड़ौदा में एक विशाल संगीत सम्मेलन किया, इसका उद्घाटन महाराजा बड़ौदा द्वारा हुआ । इसमें संगीत के विद्वानों द्वारा संगीत के अनेक तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार हुए और एक “ऑल इंडिया म्यूजिक एकेडमी” की स्थापना का प्रस्ताव भी स्वीकृत हुआ । इस म्युझिक कॉन्फ्रेंस में भातखंडे जी के संगीत संबंधी जो महत्वपूर्ण भाषण हुए वे भी अंग्रेजों में “A Short Historical Survat Of the
Music of Upper India” नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं | (इसका भी हिंदी अनुवाद संगीत कार्यालय से प्रकाशित हो चुका है)
बाद में आपके प्रयत्न से अन्य कई स्थानों में भी संगीत सम्मेलन हुए तथा संगीत विद्यालय की स्थापना हुई जिनमें लखनऊ का मैरिस म्यूजिक कॉलेज (अब “भातखंडे कॉलेज ऑफ म्यूजिक”) ग्वालियर का माधव संगीत महाविद्यालय तथा बड़ौदा का म्यूजिक कॉलेज उल्लेखनीय है ।
इस प्रकार इन्होंने अपने अथक परिश्रम द्वारा संगीत की महान सेवा की और संगीत जगत में एक नवीन युग स्थापित करके अंतः में 19 सितंबर 1936 को आप परलोक वासी हुए ।
सन 1611 के लगभग लाहौर के रहने वाले एक संगीत विद्वान राजा नवाब अली खां भातखंडे जी के संपर्क में आये । राजा साहेब ने अपने एक प्रसिद्ध गायक नजीर खां को आचार्य भातखंडे जी के पास संगीत के शास्त्रीय ज्ञान तथा लक्षणगीतों को सीखने के लिए भेजा और फिर उर्दू में संगीत की एक सुंदर पुस्तक “मारीफुन्नगमात” लिखी । इस पुस्तक का यथेष्ठ आदर हुआ और वह बी. ए. के म्यूजिक कोर्स में शामिल की गई बाद में (सन 1950 में) इसका हिंदी अनुवाद संगीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हुआ । जिससे हिंदी के संगीत विद्यार्थियों को बहुत लाभ हुआ ।
पंडित श्री विष्णु दिगंबर पलुस्कर का जन्म 1872 इसवी में श्रावणी पूर्णिमा के दिन कुरुंदवाड (बेलगांव) में हुआ आपको संगीत शिक्षा गायनाचार्य पंडित बालकृष्ण बुआ से प्राप्त हुआ । 1896 ई. में आपने संगीत प्रचार के हेतु भ्रमण आरंभ किया ।पलुस्कर जी ने अपने सुमधुर और आकर्षक संगीत के द्वारा संगीत प्रेमी जनता को आत्म विभोर कर दिया । पंडित जी के व्यक्तित्व के प्रभाव से सभ्य समाज में संगीत की लालसा जाग उठी, जिसके फलस्वरूप संगीत के कई विद्यालय स्थापित हुए, जिनमें लाहौर का गांधर्व महाविद्यालय सर्व प्रथम 5 मई 1901 ई. को स्थापित हुआ । बाद में बम्बई का गांधर्व महाविद्यालय स्थापित हुआ और यही मुख्य केंद्र बन गया । पंडित जी का कार्य आगे बढ़ाने के लिए उनके शिष्यों के सामूहिक प्रयत्न से “गांधर्व महाविद्यालय मंडल” की स्थापना हुई, जिसके बहुल से केंद्र विभिन्न नगरों में स्थापित हो चुके हैं।
सन 1920 ई. से पलुस्कर जी कुछ विरक्त से रहने लगे थे, अत 1922 में नासिक में रामनाम आधार आश्रम आपने खोला । तब से आप का संगीत भी “ राम नाम मय “ हो गया । इस प्रकार संगीत को पवित्र वातावरण में स्थापित करके अंत में यह संगीत का पुजारी 21 अगस्त 1931 को मिरज में प्रभु धाम को प्रस्थान कर गया ।
पंडित जी द्वारा संगीत की कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुई थी, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं -संगीत बालबोध, संगीत व बाल प्रकार ,स्वल्पालाप
गायन, संगीत तत्वदर्शक, राग प्रवेश, भजनामृत लहरी इत्यादि ।
आप की स्वरलिपि भातखंडे पद्धति से भिन्न है । प्रोफेसर डी.वी. पलुस्कर, जो वर्तमान गायकों में एक अच्छे गायक माने जाते हैं, आपके ही सुपुत्र है ।
स्वतंत्र भारत में संगीत
भारत स्वतंत्र होकर जब से अपनी राष्ट्रीय सरकार साबित हुई है, तब से संगीत का प्रचार द्रुतिगति से देश में बढ़ रहा है । जगह-जगह स्कूल और कॉलेजों में संगीत पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो गया है, एवं कुछ विश्वविद्यालय की बी.ए. परीक्षाओं में संगीत भी एक विषय के रूप से रख दिया गया है । इधर रेडियो द्वारा भी संगीत का प्रचार दिनों दिन बढ़ रहा है । कुछ सिनेमा फिल्मों से भी हमें अच्छा संगीत मिल सका है । संगीत के अनेक शिक्षण संस्थाएं भी विभिन्न नगरों में सुचारू रूप से चल रही है । देश का शिक्षित वर्ग संगीत की और विशेष रूप से आकृष्ट होकर अब संगीत का महत्व समझा समझने लगा है । कुलिन घराणे के युवक युवती और कन्याए संगीत शिक्षा ग्रहण कर रही है । एवं जनसाधारण में भी संगीत के प्रति आशातीत अभिरुचि उत्पन्न हो रही है । इधर संगीत संबंधी पुस्तकें भी अच्छी-अच्छी प्रकाशित होने लगी है संगीत कला के विकास के लिए यह सब शुभ लक्षण है, आशा है निकट भविष्य में ही भारतीय संगीत उच्चतम शिखर पर आसीन होकर अपनी विशेषताओं से संसार का मार्गदर्शन करेगा ।
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Waa क्या बात है संगीत की खोज इस जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद 👏👏👏
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