पं.अहोबलकृत संगीत पारिजात
संगीत पारिजात ग्रंथ की रचना 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण के एक विद्वान द्राविड़ ब्राह्मण पं. अहोबल द्वारा हुई। इनके पिता श्रीकृष्ण संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे। संगीत कला में निपुणता प्राप्त कर पं. अहोबल उत्तर की ओर आये और उत्तरी संगीत का अध्ययन किया। धनबड़ नामक नगर में वहां के राजा ने आपको सम्मानित किया और यहां रहकर आपने लोचन कवि के ग्रंथों का अध्ययन किया और इसके बाद 'संगीत पारिजात' नामक ग्रंथ की सन् 1650 ई. के लगभग रचना की। यह एक लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रंथ का सन् 1724 ई. में पं. दीनानाथ द्वारा अनुवाद फारसी में हो चुका था। इस ग्रंथ में अहोबलजी ने मंगलाचरण में संगीत की परिभाषा देकर मार्ग और देशी सगी का भेद बताकर, हृदय में स्थित बाईस नाड़ियों से नाद की उत्पत्ति, श्रुति की व्याख्या, बाईस श्रुतियों के नाम, उनकी दीप्ता, आयता, करुणा, मृदुऔर मध्या पांच जातियां, उनके तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम जैसे भेद, वादी, संवादी, अनुवादी, विवादी, की व्याख्या, स्वरों की जाति (देवकुल, दैत्यकुल वैश्य और शूद्र) तथा सातों स्वरों के रंग, स्वरों की जन्मभूमि के दीप, सातों स्वरों के दृष्टा, उनके देवता, उनके छन्द, और सातों स्वरों का नवरसों में वर्गीकरण बताया गया है। फिर तीन ग्राम, मूर्च्छनाएं तथा उनके भेदों को समझाया है।
पं. अहोबलजी ने इस ग्रंथ में अलंकारों के कई प्रकार बताए हैं जैसे-मृदु, नन्द, विस्तीर्ण, सोम, बिन्दु, वेदि, प्रकाशक आदि। स्थाई वर्ण के 7 अलंकार, अवरोही वर्ण के भी 12 तथा संचारी वर्ण के 25 अलंकार। इस प्रकार कुल 56 अलंकारों का उल्लेख किया है। वर्ण लक्षणम् के अध्याय में स्थायी, आरोही, अवरोही, संचारी वर्णों को समझाकर अलंकारों का निरूपण किया है। जाति निरूपणम् के अध्याय में जातियों के लक्षण तथा कुछ गमकों के भेदों को समझाया है। इसके उपरान्त वीणा के तार पर शुद्ध तथा विकृत स्वरों के स्थान बताए हैं। आगे मेल (थाट) की परिभाषा देने के उपरान्त शुद्धा, भिन्ना, गौड़ी, बेसरा और साधारणी गीतियों को समझाने के बाद अनेक रागों का गायन समय बताया है। गमक प्रकरण में सात शुद्ध जातियों जैसे पाढजी, आर्यभी, गान्धारी, मध्यमा, पंचमी, धैवती, निषादी का संक्षिप्त परिचय दिया गया है और कम्पित, स्फुरित, तिरिप, घर्षण, हुम्फित आदि गमक प्रकारों को समझाया गया है।
राग प्रकरण के अन्तर्गत सैन्धव, सम्पूर्ण धनाश्री, षाडव धनाश्री, औडव धनाश्री, मेघमल्लार, नीलाम्बरी, मालव श्री, रक्तहंस, गौरी, मल्लारी, पंचम, बसन्त, देशाख्य, देशकारी, मध्यमादि, बंगाली, नारायणी, विभास, कानडी, मेघनाद तोड़ी, छाया तोड़ी, मार्ग तोड़ी, घण्टा राग, वराटी, शुद्ध वराटी, तोड़ी वराटी, प्रताप वराटी, कल्याण, वराली, खम्भावती, अभीरिका, कल्याण, रामकरी, सारंग, मालव, गुणक्रिया, शंकराभरण, बड़हंस, बिलावली, केदारी, काम्बोधी, दीपक, ललिता, बहुला, गौल, केदारगौल, छायानट, रीतिगौल, नारायण गौल, मालवगौल, देशी, हिन्दोल, ढक्कः, नाट, कामोद-नाट, आभीरीनाट, कल्याणनाट, केदारनाट, वैराटीनाट, तैलंग औरभीमपलासी के स्वर, स्वर-विस्तार और कुछ के स्वरूपों का भी वर्णन है। सबसे अंत में यह बताया है कि इन रागों में जो स्थर प्रयुक्त हुए हैं उनमें शुद्ध स्वर से दो श्रुति कम वाले रयर को 'पूर्व-कोमल' और एक श्रुति कम होने पर 'कोमल' कहते हैं। इसी प्रकार शुद्ध स्वर से एक श्रुति अधिक होने पर 'तीव्र' दो श्रुतियां चढ़ जाने पर 'तीव्रतर' और तीन श्रुतियां चढ़ जाने पर 'तीव्रतम' स्वर कहा जाता है। इस प्रकार इन्होंने पूर्व ऋषभ, कोमल ऋषभ, पूर्व गान्धार, कोमल गान्धार, पूर्व धैवत, कोमल धैवत, पूर्व निषाद, कोमल निषाद जैसे आठ कोमल स्वर और ऋपभ, धैवत को तीव्र तथा तीव्रतर, गान्धार, मध्यम व निषाद को तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम और अतितीव्रतम गान्धार जैसे चौदह तीव्र विकृत स्वर माने हैं।