दत्तिलकृत दत्तिलम्

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दत्तिलकृत-दत्तिलम्

 दत्तिलकृत दत्तिलम्


            दत्तिल ने दत्तिलम् नामक ग्रन्थ में मूर्च्छना के चार भेद, पूर्णा, षाडवा, औडुविता और साधारणी माने हैं, इस सम्बन्ध में मतंग ने भी दत्तिल का अनुसरण किया है। प्रथम शती ई. के एक शिलालेख में दत्तिल की चर्चा है। 'नृत्तलक्षण' नामक एक ग्रन्थ की चर्चा भी प्रायः आती है, जो दत्तिल के सिद्धान्तों का प्रतिपादक कहा जाता है। यह मंगल स्त्रोत से अपना ग्रन्थ प्रारम्भ करते हैं, उनका कहना है कि नारद द्वारा गान्धर्व को विधिवत रूप में मनुष्यों के सम्पर्क में लाया गया है। वे गान्धर्व के चार तत्व पद, स्वर, ताल और अवधान (चित्त को एक ओर लगाना) को बताते हैं। यह छोटा-सा ग्रन्थ पूर्णतया श्लोकबद्ध है। आगे बाईस श्रुति, सात स्वर, दो ग्राम, तानों सहित मूर्च्छना, स्थान, वृत्ति, अठारह जातियों एवं उनके नाम, गमक आदि के विषय में चर्चा की गई है। ग्राम मूर्च्छना के विषय में उन्होंने कहा है-,


स्वरो यावतिथौ स्यांता ग्रामयोः षड्जमध्यमौ । मूर्च्छना तावतिथ्येव तद्ग्रामावत एव तौ ॥


               अर्थात् षड्ज मध्यम दो ग्रामों में जितने स्वर होते हैं उतनी ही मूर्च्छनाएं उनकी उन ग्रामों में पाई जाती हैं। मूर्च्छनाओं के नाम उत्तरमन्द्रा उत्तरायता आदि का भी वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है। वादी स्वर की परिभाषा देते हुए इन्होंने कहा है कि जो स्वर अत्यन्त प्रयुक्त या बाहुल्य वाला हो, वह वादी  अथवा अंश स्वर कहलाता है। ग्रन्थकार ने वादी और संवादीस्वरों का पारस्परिक अन्तर 9 और 13 श्रुतियों का स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त ताल एवं लय पर इस ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है।


                दत्तिल ने सप्त स्वरों को स्वर मण्डल कहते हुए भरत के समान ही षड्ज ग्राम में षड्ज स्वर से क्रमिक आरोहण पद्धत्ति का अनुकरण किया है। दत्तिल ने 'अथताल प्रवक्ष्यामि' कहते हुए श्लोक क्रमांक 109 से कला, पात, पादभाग, मात्रा, परिवर्त, वस्तु, विदारी, पाणि, यति आदि ताल के अनिवार्य उपादानों का परिचय देते हुए आवाप, निष्काम, विक्षेप, प्रवेश, शम्या, ताल, सन्निपात आदि का उल्लेखकर उनका भी विवरण प्रस्तुत किया है। कला के सौन्दर्य में उन्होंने कहा है-निमेष काल को कई विद्वान् कला कहते हैं। चित्रा, वार्तिक व दक्षिण तीन कलाएं हैं जिनमें क्रमशः दो, चार व आठ कलाओं (द्विकल, चतुष्कल, अष्टकल आदि) का समावेश होता था। उनके मतानुसार, 'द्वि मात्रा स्यात कला चित्रेचतुर्मात्रा तु वार्तिके, अष्टमात्रा तु विद्वद्भिर्दक्षिणे समुदाहृता' मात्रा युक्त होकर कलाओं का विकास होता है।' आवाप' उठी हुई ऊँगलियों का कुंचन है। 'निष्क्राम' हस्त के अधः स्तल का प्रसारण है। उसी प्रकार हस्त के अधःस्तल के दक्षिण की ओर प्रसारण को 'विक्षेप' एवं आकुंचन को 'प्रवेश' कहा है। दक्षिण हस्त से छटिका द्वारा ताल देने की क्रिया को शम्या, वाम हस्त से ताल देने की क्रिया को ताल एवं उभय हस्त से ताल देने की क्रिया को सन्निपात कहा है। दत्तिल ने विदारी, वस्तु अवगाठ, अन्तभार्ग, विषम, विविध, हुत, मध्य व बिलम्बित लय, त्रिपाणि, समा, श्रोतोगता व गोपुच्छा, यति, पुलक, छेदक, निर्युक्त व अनिर्युक्त पद आदि का विवरण श्लोक क्रमांक 1 पर से 170 तक दिया है। आगे अपरन्तक प्रकरण में शाखा, प्रतिशाखा, मार्ग आदि का उल्लेख हुआ है। उल्लोप्यक में शम्या, सन्निपात आदि तालक्रियाओं के प्रयोगों को दर्शाकर अन्य क्रियाओं की प्रयोग- विधि का भी वर्णन दत्तिल ने किया है। 'अन्ताहरण' के तीन अंगों का उल्लेख भी आगे है एवं उनकी समाप्ति के तीन प्रकार होते हैं। सम्भवतः अन्ताहरण द्वारा तिहाई दिखाने की प्रथा रही हो। आगे वस्तु प्रकरण में विभिन्न मात्राओं को वस्तुओं का विवरण दिया गया है। पंचपाणि, चारगीतियांमागधी, अर्धमागधी, संभाविता और पृथुला को समझाया है अन्त में ध्रुवमार्ग को समझाकर इस ग्रंथ को समाप्त किया गया है।



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