क्या है संगीत रत्नाकर
संगीतरत्नाकर (13 वीं सदी) पं.शारंगदेव द्वारा रचित संगीतशास्त्र पर आधारित ग्रंथ है। यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण संगीतशास्त्रीय ग्रंथों में से है जो हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत दोनो द्वारा समादृत है। इसे 'सप्ताध्यायी' भी कहते हैं क्योंकि इसमें सात (7) अध्याय हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बाद संगीत रत्नाकर ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है। शारंगदेव, यादव राजा 'सिंहण' के राजदरबारी थे। सिंहण की राजधानी दौलताबाद के निकट देवगिरि थी। इस ग्रंथ के कई भाष्य हुए हैं जिनमें सिंहभूपाल (1330 ई.) द्वारा रचित 'संगीत सुधाकर' तथा कल्लिनाथ (१४३० ई.) द्वारा रचित 'कलानिधि' प्रमुख हैं।
संगीत रत्नाकर इस ग्रंथ के प्रथम छः अध्याय इस प्रकार है - 1. स्वरगताध्याय, 2. रागविवेकाध्याय, 3. प्रकीर्णकाध्याय, 4. प्रबन्धाध्याय, 5. तालाध्याय तथा 6. वाद्याध्याय संगीत और वाद्ययंत्रों के बारे में हैं। इसका अन्तिम एवं सातवाँ अध्याय 'नर्तनाध्याय' है जो नृत्य के बारे में है।
संगीत रत्नाकर एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है और इस पर लिखी गई अनेक टीकाओं से यह स्पष्ट होता है। यह समकालीन समय में भारतीय संगीतशास्त्रियों और संगीत विद्यालयों के बीच एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में बना हुआ है। इस पाठ ने भारतीय परंपरा में भाष्य नामक द्वितीयक साहित्य को आकर्षित किया । पाठ पर कई टिप्पणियों में से दो का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। ये सिम्बाभूपाल के संगीत सुधाकर और कल्लिनाथ के कलानिधि हैं। संगीत रत्नाकर ने नाट्यशास्त्र, दत्तिलम, बृहदेशी, सरस्वती-हृदयालंकार, नाट्यशास्त्र पर अभिनवगुप्त के विचारों और साथ ही अन्य जैसे पहले के कार्यों में मिली जानकारी को संकलित किया है। सारंगदेव ने अधिक प्राचीन और मध्ययुगीन विचारों का भी विस्तार किया, जैसे कि लास्य पर उनके विचार । यह पाठ भारत में संगीत इतिहास के प्राचीन, मध्यकालीन और 13वीं शताब्दी के बाद के काल के बीच एक उपयोगी पुल बनाता है।