राग हंस किंकिणी
राग हंसकिंकिणी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक आकर्षक किन्तु कम प्रचलित राग है। इसके नाम में 'हंस' (राजहंस) तथा 'किंकिणी' (छोटी घंटी या घुँघरू की सूक्ष्म झंकार) शब्द हैं, जो इसके मधुर और अलंकारिक स्वभाव को प्रतिबिंबित करते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इस राग का वर्णन बहुत व्यापक रूप से नहीं मिलता, पर माना जाता है कि यह कम-से-कम सदारंग (नियामत ख़ान, लगभग सत्रहवीं-अठारहवीं सदी) के काल में प्रचलन में था। यानि, अठारहवीं सदी के आरंभिक दौर में कुछ ख़याल अथवा ध्रुपद रचनाकारों द्वारा इस राग का प्रयोग होने लगा था, हालाँकि इसके विस्तृत ऐतिहासिक स्रोत सीमित हैं।
थाट और समय
यह राग काफी थाट के अंतर्गत माना गया है। काफी थाट के अनुसार इसमें कोमल गांधार (ग) और कोमल निषाद (नि) स्वर प्रधान होते हैं। राग का गायन-समय दिन का तृतीय प्रहर, अर्थात दोपहर का समय (लगभग 12 से 3 बजे के बीच) माना गया है। परंपरागत समय-सिद्धांत के अनुसार दोपहर के इन घंटों में इस राग का वातावरण विशेष प्रभावशाली होता है।
आरोह, अवरोह, वादी, संवादी
राग हंसकिंकिणी की स्वर संरचना औढ़व-सम्पूर्ण जाति की है (आरोह में पाँच स्वर, अवरोह में सात)। इसमें आरोह और अवरोह के स्वर क्रम इस प्रकार हैं:
आरोह: मंद्र नि से आरंभ होकर सा ग म प नि सां (आरोह में रिषभ और धैवत स्वर नहीं लगते, गांधार एवं निषाद शुद्ध)
अवरोह: सां नि ध प, म प, ग रे सा
वादी स्वर: पंचम (प)
संवादी स्वर: षड्ज (सा)
आरोह में कोमल/शुद्ध स्वरों का संयोजन विशिष्ट है: कुछ मतों के अनुसार आरोह में शुद्ध गांधार एवं शुद्ध निषाद लगते हैं, जबकि अवरोह में कोमल गांधार-निषाद का प्रयोग होता है। कुल मिलाकर राग के स्वरूप में दोनों प्रकार के गांधार और निषाद (कोमल व शुद्ध) सिक्त होते हैं, जो इसे एक मोहक स्वर-छटा प्रदान करते हैं।
राग की विशेषताएँ, भाव और गायन-शैली
हंसकिंकिणी की सबसे बड़ी विशेषता है इसके आलाप-प्रक्रिया में दो प्रकार के गांधार व निषाद का प्रयोग तथा सुंदर वक्र स्वर-संगतियाँ। आरोह में ऋषभ और धैवत के वर्जन तथा पंचम-गंधार के विशिष्ट मेल से इसमें राग धनाश्री का अंग झलकता है, परंतु कोमल गांधार लगाने पर यही राग धनाश्री से भिन्न स्वरूप प्रस्तुत करता है। पंचम से कोमल गांधार की संगति के कारण गायन में कभी-कभी राग पीलू का आभास भी होता है, लेकिन जहाँ पीलू में "प, ग नि सा" जैसी चलन होती है, वहीं हंसकिंकिणी में "प, ग रे सा" पर जोर दिया जाता है। इस तरह विशेष भाव द्वारा हंसकिंकिणी अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखता है। भाव की दृष्टि से यह राग श्रृंगार और विरह दोनों रसों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। इसके स्वर संयोजन में एक ओर चंचलता और चपलता है तो दूसरी ओर कोमल स्वरों के कारण कोमल भावुकता भी। गायन-शैली में इस राग की प्रकृति चंचल (फुर्तीलापन) मानी गई है। कलाकार ख़याल प्रस्तुति के दौरान अनेक खटकों व मुरकियों (तेज़ अलंकारिक स्वर सञ्चालन) का प्रयोग करते हैं, जिससे राग का अलंकृत और चंचल रूप निखर कर आता है। कुल मिलाकर हंसकिंकिणी का स्वभाव मधुर, चपल व भावप्रधान है, जो प्रेमभाव (नायिका-भेद, मिलन-विरह) से जुड़ी बंदिशों के लिए उपयुक्त वातावरण बनाता है।
प्रमुख बंदिशें
चूँकि राग हंसकिंकिणी अपेक्षाकृत दुर्लभ है, इसकी पारंपरिक बंदिशें सीमित संख्या में उपलब्ध हैं। फिर भी कुछ ख़याल बंदिशें प्रचलित हैं जो इस राग के सौंदर्य को दर्शाती हैं। प्रमुख बंदिशों के उदाहरण निम्न हैं:
"नैना ऊलझ गए" – मध्य लय ख़याल (झपताल) – श्रृंगार रस की बंदिश (प्रेम में नायक-नायिका की आँखें उलझ जाने का चित्रण)।
"पिया नहीं आए" – मध्य लय ख़याल (झपताल) – विरह रस की बंदिश, जिसमें नायिका अपने प्रिय के न आने का दुख प्रकट करती है।
"नूपुर पग झनन बाजत" – द्रुत ख़याल (एकताल) – श्रीकृष्ण की रासलीला पर आधारित बंदिश, जिसमें नृत्य करते कृष्ण के पैरों में बजते घुंघरू (किंकिणी) का वर्णन है।
"मोरे घर आए श्याम" – द्रुत ख़याल (एकताल) – श्रृंगार रस की बंदिश, जिसमें प्रिय के आगमन की हर्षोल्लास भरी भावना व्यक्त होती है।
उपरोक्त बंदिशों के बोल (प्रथम पंक्तियाँ) इस राग की चाल-चलन और भाव-सौंदर्य को सरल शब्दों में उजागर करते हैं। इनके अतिरिक्त भी कुछ छोटे ख़याल एवं सरगम गीत रचे गए हैं। उदाहरण: अंग अंग में रंग रंग है, लागी तोरी प्रीत आदि, जो अलग-अलग रस (विरह, बसंतोत्सव, रुठना-मनाना आदि) को दर्शाते हैं। इन बंदिशों के माध्यम से राग हंसकिंकिणी के विभिन्न आयामों का प्रदर्शन होता है।
प्रसिद्ध प्रस्तुतियाँ
यद्यपि यह राग कम सुना जाता है, फिर भी समय-समय पर कुछ सुप्रसिद्ध प्रस्तुतियों में इसे स्थान मिला है:
फिल्म नया जमाना (1952) का गीत "कहाँ जाते हो, टूटा दिल हमारा" – महान गायिका लता मंगेशकर द्वारा गाया यह अर्ध-शास्त्रीय गीत राग हंसकिंकिणी पर आधारित माना जाता है, जिसने जनमानस में इस राग को पहली बार व्यापक पहचान दिलाई।
पं. दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर (डी.वी. पलुस्कर) की ख़याल प्रस्तुति – पलुस्कर जी द्वारा हंसकिंकिणी में गाया गया एक विलंबित ख़याल रिकॉर्ड किया गया है, जो इस दुर्लभ राग की सुन्दरता को पारदर्शी अंदाज़ में सामने लाता है। संगीतज्ञ अनीश प्रभाकर जैसे विद्वानों ने विशेष रूप से उनकी बंदिश की प्रशंसा की है।
विदुषी किशोरी आमोनकर द्वारा मंच प्रस्तुति – जयपुर-अतरौली घराने की प्रख्यात गायिका किशोरी आमोनकर ने भी अपने एक संगीत सभागार में राग हंसकिंकिणी का भावपूर्ण गायन प्रस्तुत किया। उनके द्वारा गाई बंदिश ("नैनैं सुरग सखी" जैसी पंक्तियाँ) में इस राग के स्वर और भाव को अनूठी गहराई मिली।
श्रुति सडोलिकर का गायन – आधुनिक दौर की प्रसिद्ध गायिका श्रुति सडोलिकर ने हंसकिंकिणी को अपने कार्यक्रमों में शामिल किया है। उनकी प्रस्तुति को भी माहिरों ने सराहा है, और इसे सुनकर राग की बारीकियाँ समझने में मदद मिलती है। इन प्रसिद्ध उदाहरणों के जरिए राग हंसकिंकिणी श्रोताओं तक पहुँचा है। शास्त्रीय गायन के अलावा, उपरोक्त फिल्मी गीत जैसे अर्ध-शास्त्रीय प्रयोगों ने भी इस राग को लोकप्रिय संदर्भ प्रदान किया।
अन्य रागों से तुलना
धनाश्री: राग हंसकिंकिणी को पारंपरिक रूप से राग धनाश्री के अंग वाला माना जाता है, क्योंकि इसकी STRUCTURE (विशेषकर आरोह में ऋषभ-धैवत वर्जित और प–नि–सां का क्रम) धनाश्री से मेल खाता है। फिर भी, हंसकिंकिणी में कोमल गांधार के प्रयोग और कुछ विशिष्ट स्वरसमूहों के कारण यह धनाश्री से अलग पहचान बनाता है। धनाश्री में जहाँ शुद्ध गंधार प्रमुख होता है, वहीं हंसकिंकिणी में कोमल गंधार की मौजूदगी इसे अलग रंग देती है।
पीलू: राग पीलू एक ठुमरी अंग का काफी-थाट राग है जिसमें कई स्वर प्रकारों का मिश्रण होता है। हंसकिंकिणी में पंचम-गंधार की विशेष संगति (जैसे "प ग रे सा") सुनाई देती है जिससे पीलू की छाया महसूस हो सकती है। अंतर यह है कि पीलू में अक्सर "प ग नि सा" का स्वरसमूह लिया जाता है जबकि हंसकिंकिणी में "प ग रे सा" पर जोर दिया जाता है। इस भेद के चलते दोनों राग अपने अलग चरित्र बनाए रखते हैं।
भीमपलासी: राग भीमपलासी भी काफी थाट का, दोपहर का एक प्रसिद्ध राग है, जिसमें आरोह में कोमल निषाद और गंधार लगते हैं तथा ऋषभ वर्जित रहता है। सतही तौर पर हंसकिंकिणी और भीमपलासी में कई समानताएँ हैं (दोनों में कोमल ग व नि, तथा समय एक ही)। लेकिन हंसकिंकिणी में दोनों रूप के गंधार-निषाद प्रयोग होने से और धनाश्री अंग की वजह से उसका चलन भीमपलासी से भिन्न हो जाता है। हंसकिंकिणी का आलाप-तान करते समय धनाश्री, पीलू और भीमपलासी की छाया अनायास आ सकती है, अतः कलाकार को इनसे सावधान रहकर शुद्ध स्वरूप बनाए रखना होता है। भीमपलासी की अपेक्षा हंसकिंकिणी अधिक अलंकृत व चंचल ढंग से पेश किया जाता है।
प्रदीपकी (पतदीपकी): राग प्रदीपकी हंसकिंकिणी का एक निकटवर्ती और संयोजित रूप माना जाता है। कुछ विद्वान इसे हंसकिंकिणी और भीमपलासी का मेल बताते हैं – अर्थात इसमें धनाश्री के बजाय भीमपलासी के अंग की छाप अधिक है। प्रदीपकी में हंसकिंकिणी जैसी ही स्वर-संरचना है, परंतु उसकी पसंदीदा चाल भीमपलासी से मिलती-जुलती है। इसलिए दोनों रागों का उल्लेख साथ किया जाता है, यद्यपि सामान्य प्रदर्शन में प्रदीपकी अत्यंत दुर्लभ है।
इस प्रकार, राग हंसकिंकिणी को समझने के लिए उपर्युक्त समान रागों से उसकी तुलना करना उपयोगी है। इन रागों के बीच सूक्ष्म अंतर स्वर-विन्यास और भाव-प्रस्तुति में हैं, जिनसे हर राग की अपनी अलग पहचान सुनिश्चित होती है। हंसकिंकिणी, अपने अनूठे स्वर समूहों और अलंकारिक शैली के कारण, समान थाट के रागों के बीच भी एक अलग ही झिलमिलाहट लिए हुए उभरता है।