डॉ लालमणि मिश्र: वाद्य-वर्गीकरण प्रणाली एवं संगीत योगदान
भारतीय वाद्य यंत्रों की वर्गीकरण प्रणाली
डॉ लालमणि मिश्र ने भारतीय वाद्य यंत्रों के वर्गीकरण को एक व्यवस्थित वैज्ञानिक रूप दिया। पारंपरिक तौर पर भरत मुनि द्वारा बताए चार मुख्य वर्ग – तत वाद्य (तंत्री या तार वाले), सुश्रिर वाद्य (फूंक या हवा से बजने वाले), अवनद्ध वाद्य (झिल्ली या ताल वाद्य, जैसे ढोल) एवं घन वाद्य (ठोस संयुग्मन से ध्वनि वाले, जैसे झांझ) – प्रचलित थे। डॉ० मिश्र ने अपनी शोध में पाया कि कुछ वाद्य जैसे जलतरंग, नालतरंग, तबला आदि पारंपरिक चार श्रेणियों में ठीक से नहीं समाहित होते थे। उन्होंने ऐसे उपकरणों के लिए एक नया वर्ग “तरंग-वाद्य” प्रस्तावित किया। इसी प्रकार, 20वीं सदी में विकसित इलेक्ट्रॉनिक वाद्यों (इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा, तबला मशीन, आदि) को भी उन्होंने एक अलग श्रेणी “इलेक्ट्रोफोन” के रूप में मान्यता देने की ओर संकेत किया।
डॉ० मिश्र का दृष्टिकोण यह था कि आधुनिक हिंदुस्तानी वाद्य यंत्रों की जड़ें प्राचीन भारतीय परंपरा में हैं, न कि बाहरी संस्कृतियों में। उन्होंने तर्क एवं ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर दिखाया कि वर्तमान वाद्यों का विकास प्राचीन वाद्यों से क्रमिक रूप में हुआ है। वाद्यों के निर्माण, संरचना, ध्वनि-निर्माण के सिद्धांतों और वादन शैली के आधार पर उन्होंने उनका “आधुनिक वैज्ञानिक वर्गीकरण” प्रस्तुत किया, जिसमें प्रत्येक वाद्य की ध्वनि-तीव्रता, स्वर-सीमा (पिच) और ध्वनि-पट्टी का विस्तार (रेंज) इत्यादि गुणों के अनुसार श्रेणियों में बांटा गया। उनके इस वर्गीकरण प्रणाली में प्राचीन श्रेणियों के साथ-साथ नये वाद्यों के लिए उपयुक्त स्थान निर्धारित किये गये हैं, जिससे परंपरागत व आधुनिक वाद्यों के आपसी संबंध को भी समझा जा सके। उदाहरणतः उनकी पुस्तक में बारहवें अध्याय में वाद्यों का तीव्रता, उच्च-नीच स्वर एवं विस्तार के आधार पर नवीन वर्गीकरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त ग्यारहवें अध्याय में लोक-संगीत के वाद्यों पर तथा सातवें अध्याय में जलतरंग, घुंघरू तरंग जैसे मध्यकालीन नए वाद्यों पर भी विस्तृत चर्चा की गई है। डॉ० मिश्र द्वारा रचित “भारतीय संगीत वाद्य” नामक पुस्तक (प्रथम संस्करण 1973, द्वितीय 2002) में यह वर्गीकरण प्रणाली विस्तार से वर्णित है। उन्होंने भारतीय वाद्यों के उद्भव व विकास को तर्कपूर्ण आधार पर समझाते हुए उनसे जुड़े अनेक भ्रम दूर किए हैं। आज तक यह ग्रंथ भारतीय वाद्यों की पहचान, उनके वर्गीकरण तथा आपसी संबंधों को समझने का प्रमुख स्रोत माना जाता है। 1974 में इथनोम्यूज़िकॉलॉजी शोधपत्रिका में इस पुस्तक की समीक्षा में इसे भारतीय वाद्य इतिहास पर अब तक प्रकाशित “सबसे पूर्ण एवं प्रामाणिक कृति” बताया गया। इस प्रकार, डॉ० लालमणि मिश्र की वर्गीकरण प्रणाली ने प्राचीन सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित कर एक समग्र एवं तर्कसंगत ढांचा प्रस्तुत किया।
प्रमुख अनुसंधान कार्य एवं आविष्कार
डॉ० लालमणि मिश्र ने संगीतशास्त्र में कई महत्वपूर्ण अनुसंधान एवं आविष्कार किए। वैदिक संगीत पर शोध करते हुए उन्होंने सामवेद के सामिक स्वरों की संरचना का रहस्य सुलझाया और उन स्वरों को सुरक्षित रखने के लिए राग “सामेश्वरी” की रचना की। यह राग सामवेद के उद्गाता स्वरसमूह का प्रतिपादन करता है और प्राचीन साम-गान पर आधारित है। भारतीय संगीत के सिद्धांत में उल्लिखित 22 श्रुतियों (सूक्ष्म स्वरों) को व्यवहारिक रूप से सुनने हेतु डॉ. मिश्र ने एक विशिष्ट वाद्य का आविष्कार किया जिसे “श्रुति-वीणा” कहते हैं। भरतमुनि द्वारा वर्णित सभी बाईस श्रुतियों को मानव इतिहास में पहली बार एक साथ इस श्रुति-वीणा पर सुनना संभव हुआ। इस यंत्र के निर्माण एवं प्रयोग की विधि पर उन्होंने एक विवरण पुस्तिका “श्रुति वीणा” (वाराणसी, 1964) प्रकाशित की, जिसमें ग्राम और शृंखला (चतुस्सरण) पद्धति के अनुसार श्रुतियों के निर्धारण की प्रक्रिया बताई गई। श्रुति-वीणा के माध्यम से डॉ० मिश्र ने प्राचीन भरत के शुद्ध श्रुति-स्वरแกรม को पुनः स्थापित करने में सफलता पाई।
इसके अलावा डॉ० मिश्र एक विलुप्तप्राय वाद्य विचित्र वीणा की तकनीक को पुनर्जीवित करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने इस दुर्लभ तंत्री वाद्य में नयी जान डालते हुए उसकी वादन-शैली को संवर्धित किया। 1950 में लखनऊ के मरिस कॉलेज के संगीत सम्मेलन में उनके विचित्र वीणा वादन ने श्रोताओं को चकित किया था, जो इस प्राचीन वाद्य पर उनकी निष्णातता को दर्शाता है। उन्होंने उस्ताद अब्दुल अजीज ख़ाँ (पटियाला) की बंदिशों से प्रेरणा लेकर विचित्र वीणा की विशिष्ट तकनीक विकसित की और आगे चलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इस वाद्य के माध्यम से कई शिष्य तैयार किए। डॉ० लालमणि मिश्र की शोध का एक अन्य आयाम भारतीय वाद्यों के लिए नया स्वरलिपि एवं वादन शैली विकसित करना था। उन्होंने विशेष रूप से तंत्री वाद्यों (सितार, सरोद, वीणा आदि) के लिए “मिश्रबानी” नामक वादन-शैली ईजाद की। मिश्रबानी शैली में गत और बंदिशों की रचना इस प्रकार की जाती है कि तार वाले वाद्यों की तकनीकी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग हो सके। इस शैली हेतु डॉ. मिश्र ने सैकड़ों रागों में हजारों बंदिशों की रचना की, जो तंत्री वाद्यों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त थीं। यह मिश्रबानी रचनाएँ उनके ग्रंथों तथा शिष्यों द्वारा संकलित पुस्तकों एवं संगीत पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इन अनुसंधानों और आविष्कारों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी सराहना हुई – वर्ष 1996 में यूनेस्को ने उनके विचित्र वीणा वादन के प्रमाणस्वरूप “म्यूज़िक ऑफ़ पंडित लालमणि मिश्र” शीर्षक से एक कॉम्पैक्ट डिस्क जारी किया।।
संगीत रचनाएँ (नए राग एवं बंदिशें)
डॉ० मिश्र एक रचनाशील संगीतकार भी थे। उन्होंने कई नए रागों की रचना की, जो हिंदुस्तानी परंपरा में उनके अद्वितीय योगदान हैं। इन नए रागों में कुछ प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं:
मधु-भैरव – भैरव अंग का षाड़व (छः-स्वरीय) राग, प्रातःकालीन प्रकृति।
श्याम बिहाग – कल्याण ठाट पर आधारित पंच-सप्तक (उत्तरांग में संपूर्ण) राग, सन्ध्या समय के लिए।
मधुकली – यह राग मधुवंती, मुल्तानी एवं रामकली रागों के मेल से बना है, प्रारंभिक संध्या समय में बजाया जाता है।
सामेश्वरी – रागेश्री और कलावती के स्वरांशों से निर्मित राग, जो सामवेद के स्वरों को समर्पित है (सायंकालीन)।
बालेश्वरी – बागेश्वरी एवं बिलासखानी तोड़ी के सम्मिश्रण से बना छः-स्वरीय राग, दोपहर पूर्व प्रदोष काल के लिए उपयुक्त।
जोग तोड़ी – जोग तथा तोड़ी राग का मेल से उत्पन्न राग (कुछ स्वरों में षाड़व, कुछ में संपूर्ण), हल्के भाव का राग जो दिन के किसी भी समय प्रस्तुत किया जा सकता है।
आनंद भैरवी – यह एक प्राचीन भैरवी प्रकार है जिसे डॉ० मिश्र ने शोध के माध्यम से पुनर्जीवित किया। आनंद भैरवी मध्यम-प्रधान भैरवी है जिसमें ऋषभ स्वर का प्रयोग नहीं होता।
इन रागों में से कई का दस्तावेजीकरण उनकी शिष्या डॉ० पुष्पा बसु द्वारा रचित पुस्तक “राग रुपांजली” (2007) में किया गया है। नए रागों के अलावा, डॉ० लालमणि मिश्र ने पारंपरिक रागों में भी अनेकों बंदिशें बनाईं, ख़ासतौर पर तार वाद्यों के लिए उपयुक्त गतें और रचनाएँ तैयार कीं। मिश्रबानी शैली की इन बंदिशों ने सितार, सरोद, विचित्र वीणा जैसे वाद्यों के लिए नए प्रदर्शन मानक स्थापित किए। उनकी कुछ रचनाएं “झल्लर” (तानपुरे के तारों पर आधारित हल्की रचना) जैसी नवीन विधाओं में भी थीं, जो शास्त्रीय संगीत में कम प्रचलित थीं। कुल मिलाकर, डॉ० मिश्र की संगीत रचनाएँ उनके गहन रागज्ञान, नवाचार एवं परंपरा के सम्मिश्रण का प्रमाण हैं।
प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें
डॉ० लालमणि मिश्र ने अपने जीवनकाल में कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं, जिनमें शास्त्रीय संगीत के इतिहास, वाद्यविज्ञान और शिक्षण से जुड़े विषय शामिल हैं। उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है.
भारतीय संगीत वाद्य (1973, भारतीय ज्ञानपीठ) – भारतीय वाद्य यंत्रों का इतिहास, विकास और वैज्ञानिक वर्गीकरण पर विस्तृत ग्रंथ। यह हिंदी में लिखा गया प्रामाणिक शोधकार्य है, जिसे “भारतीय वाद्य इतिहास पर सबसे प्रामाणिक कृति” कहा गया है। (इसका दूसरा संस्करण 2002 तथा तृतीय संस्करण 2005 में प्रकाशित हुआ।)
तंत्री नाद (1979, साहित्य रत्नालय) – भारतीय तंत्री (तार) वाद्यों की संगीत शैली, तकनीक एवं रचनाओं पर केंद्रित व्यापक ग्रंथ। यह पुस्तक हिंदुस्तानी सितार एवं अन्य तारवाद्यों की गत-बंदिशों एवं शैली (विशेषतः मिश्रबानी) का प्रथम विस्तृत लेखा है।
संगीत सरिता (प्रकाशन वर्ष अज्ञात, हिंदी) – बाल एवं किशोर पाठकों के लिए भारतीय संगीत का परिचय कराने वाली पुस्तक। इसमें सरल भाषा में संगीत के मूल तत्वों और राग-रूपों की जानकारी दी गई है।
तबला विज्ञान (प्रकाशन वर्ष अज्ञात, हिंदी) – तबला वाद्य से संबंधित मूल सिद्धांतों को बालकों के लिए सुव्यवस्थित रूप में समझाने वाली पुस्तक। इस पुस्तक में तबला बजाने की प्रारंभिक तकनीक और बोल इत्यादि का वर्णन है।
संगीत और समाज (2000, मधुकली प्रकाशन) – डॉ० मिश्र के विभिन्न लेखों और निबंधों का संकलन, जिसे उनकी पुत्री डॉ० रागिनी त्रिवेदी ने संपादित कर पिता के निधन के बाद प्रकाशित कराया। इस पुस्तक में संगीत, संस्कृति और समाज पर डॉ० मिश्र के विचार संग्रहित हैं।
“श्रुति-वीणा” विवरणिका (1964, वाराणसी) – यह लघु पुस्तिका/शोध प्रपत्र है जिसमें डॉ० मिश्र द्वारा निर्मित श्रुति-वीणा वाद्य के निर्माण, संरचना और उपयोग विधि का वर्णन है। इस तकनीकी दस्तावेज ने २२ श्रुतियों की धारणा को प्रयोगात्मक पुष्टि प्रदान की।
उपरोक्त पुस्तकों में भारतीय संगीत वाद्य और तंत्री नाद विशेष रूप से संगीत शोधार्थियों और कलाकारों के बीच अत्यंत प्रतिष्ठित हैं। भारतीय संगीत वाद्य पुस्तक भारतीय ज्ञानपीठ की लोकोद्या ग्रंथमाला शृंखला के अंतर्गत प्रकाशित हुई (ग्रंथांक 346) और वर्तमान में भी यह पुस्तक बाज़ार में उपलब्ध है। डॉ० लालमणि मिश्र की कई पांडुलिपियाँ उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सकीं; उनके पुत्र स्वर्गीय पं. गोपाल शंकर मिश्र ने कुछ अपूर्ण कार्य पूरे करने का प्रयास किया था, तथा अब उनकी पुत्री डॉ० रागिनी त्रिवेदी शेष अप्रकाशित लेखन पर कार्यरत हैं। इस प्रकार, डॉ० लालमणि मिश्र की लेखनी से निकले ग्रंथ भारतीय शास्त्रीय संगीत के शास्त्र और प्रयोग पक्ष दोनों को समृद्ध करते हैं, और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं।