भारतीय शास्त्रीय संगीत के विलुप्त होते तत्व, तथा उनका संरक्षण करने का प्रयास।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है, लेकिन आधुनिक समय में इसके कई महत्वपूर्ण तत्व धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं। इन तत्वों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है ताकि हमारी सांस्कृतिक विरासत जीवित रह सके।
विलुप्त होते तत्व:
(क) दुर्लभ राग कई राग जैसे गौड़ सारंग, श्रीराग, लच्छा गौंड़ा आदि अब प्रचलन से बाहर हो चुके हैं। इन रागों की बंदिशें, ठुमरी या द्रुत कंपोजीशन्स आजकल के कलाकारों के पास नहीं हैं।
(ख) लुप्त होती गायकी शैलियाँ ध्रुपद, धमार, हवेली संगीत, सोपाना संगीत जैसी पारंपरिक शैलियाँ धीरे-धीरे विलुप्त हो रही हैं। आज की पीढ़ी खयाल और फिल्मी रचनाओं तक सीमित होती जा रही है।
(ग) लुप्त होती घरानेदारी परंपरा आगरा, जयपुर, ग्वालियर, पटियाला जैसे घरानों की विशिष्टताएँ अब मिश्रित रूप में आ रही हैं, जिससे उनकी पहचान मिटती जा रही है।
(घ) पारंपरिक वाद्ययंत्र
रुद्रवीणा, सुरबहार, पखावज आदि वाद्ययंत्र अब बहुत कम बजाए जाते हैं। इन वाद्यों के कारीगर और शिक्षक भी अब नगण्य रह गए हैं। (ङ) मौखिक परंपरा में संरक्षित ज्ञान पुराने समय में गुरु-शिष्य परंपरा से बहुत-सा ज्ञान मौखिक रूप में सिखाया जाता था। आज यह परंपरा समाप्ति के कगार पर है।
संरक्षण के प्रयास:
(क) डिजिटलीकरण और दस्तावेजीकरण दुर्लभ रागों, बंदिशों, गायकी शैलियों और वाद्य-संगीत को रिकॉर्ड करके डिजिटल लाइब्रेरी बनाई जाए। उदाहरण: Sangeet Natak Akademi, ITC SRA जैसी संस्थाएँ पहले से इस दिशा में काम कर रही हैं, इन्हें और अधिक समर्थन दिया जाए।
(ख) विलुप्त रचनाओं का पुनरुद्धार पुराने पांडुलिपियों, ताड़पत्रों और हस्तलिखित ग्रंथों से संगीत रचनाओं को खोजकर उनका अभ्यास कराया जाए।उदाहरण: संगीत रत्नाकर, नाट्यशास्त्र, रघुनाथशास्त्री की रचनाएँ।
(ग) शोध आधारित संगीत सम्मेलन ऐसे संगीत सम्मेलनों का आयोजन हो, जहाँ केवल विलुप्त रागों, वाद्यों और शैलियों को प्रस्तुत किया जाए शोधकर्ताओं और छात्रों को इनपर प्रोजेक्ट्स दिए जाएँ।
(घ) संगीत शिक्षण संस्थानों में पाठ्यक्रम का विस्तार गायकी शैलियों, रागों और वाद्यों की विविधता को संगीत विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
(ङ) लोक-संगीत और मंदिर संगीत का संरक्षण हवेली संगीत जैसे परंपरागत मंदिर संगीत को संस्थागत रूप से रिकॉर्ड और प्रचारित किया जाए। ग्राम्य क्षेत्रों से कलाकारों को खोज कर मंच प्रदान किया जाए।
(च) युवा पीढ़ी को जोड़ना
वर्कशॉप, ई-कोर्स, स्कॉलरशिप आदि के माध्यम से युवाओं को इन लुप्त परंपराओं की ओर आकर्षित किया जाए।भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई तत्व धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं। इनका संरक्षण केवल प्रदर्शन से नहीं, बल्कि गहन अनुसंधान, दस्तावेजीकरण, पुनर्पाठ और शैक्षणिक प्रयासों से संभव है। हमें यह समझना होगा कि यह संगीत केवल कला नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक आत्मा है। इसलिए इसे जीवित रखना हमारी ज़िम्मेदारी है।