ऐसा होता है एक असली श्रोता
कला का एक उद्देश्य है संप्रेषण। हर कलाकार अपनी कृति को दूसरों के सम्मुख पेश करता है। उद्देश्य चाहे यशप्राप्ति हो, अर्थप्राप्ति हो, आत्म- सन्तोष प्राप्ति हो अथवा दूसरों को आनन्दित या लाभान्वित करना हो, परन्तु यह कटु सत्य है कि वह उसका प्रदर्शन करता है। दूसरों के द्वारा सराहे जाने में कला की सार्थकता व सफलता निहित है, तो दूसरों द्वारा सही समा लोचना से उसनें उन्नति तथा निखार आना भी सम्भव होता है। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि संगीत में कृति उसी समय तैयार होती जाती है व प्रस्तुति भी होती जाती है। इसलिए भारतीय संगीत को Occurrent अथवा सामने घटित होने वाली कला कहा जाता है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि किसी अन्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की उपस्थिति में कोई भी कार्य किया जाय तो उसकी (कलाकार) या कार्यकर्ता की स्वतंत्रता पर अंकुश लगता है, घबराहट व मानसिक दबाव भी महसूस होता है, क्योंकि दर्शक अथवा श्रोता के चेहरे के भाव, उसकी प्रतिक्रिया, कर्त्ता को प्रभावित करती है। संगीत में चूंकि कृति श्रोताओं के समक्ष तैयार की जाती है अतः गायक, वादक का श्रोता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध बनता है। श्रोता का दाद देना, वाह-वाह करना अथवा मुह बनाना, सभा में नींद लेना अथवा बातचीत करना ऐसी क्रियाएँ हैं जो कलाकार के मानस व मनोबल को तुरन्त प्रभावित करती हैं। अतः श्रोताओं का संगीत में क्या महत्व है, उनका आचरण कैसा हो, उनमें किन गुणों का होना आवश्यक है ? आदि का विवेचन यहां करेंगे ।
कलाकार तथा श्रोता
संगीत की कोई भी विधा हो, गायन, वादन, नृत्य, इनमें कलाकार तथा श्रोता व दर्शक दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। किसी भी संगीत कार्यक्रम की सफलता जितनी कलाकार की कुशलता, ज्ञान व अभ्यास पर निर्भर करती है उतनी ही श्रोताओं के आचरण तथा सहयोग पर। कलाकार यदि यश प्राप्ति के लिए कार्यक्रम करता है तब भी श्रोता का सहयोग जरूरी है। यदि श्रोताशान्ति व धैर्य से सुनेगा नहीं तो उसे कलाकार की कुशलता तथा योग्यता का भान नहीं होगा और प्रशंसा के अभाव में यश प्राप्ति असम्भव है। भलीभांति सुने बिना श्रोता प्रभावित नहीं होता। संगीत के कलाकार को यश, श्रोताओं की प्रशंसा से मिलता है। इसी प्रकार अर्थ प्राप्ति की दृष्टि से, जिसे श्रोता पसन्द करते हैं, उसी के कार्यक्रम होते हैं और विकते हैं। इसलिए कलाकार अधिकाधिक सौन्दर्यात्मक अनुभव श्रोताओं को देने का प्रयास करता है।
सौन्दर्य बोध के लिए कलाकार तथा श्रोता दोनों के लिए भिन्न सिद्धान्त होते हैं-
(1) कलाकार के लिए- आंतरिक अनुभव जो भी कलाकार का होता है, उसका बाहरीकरण किया जाता है। कलाकार उसे दृष्टव्य अथवा श्रव्य विषय में बदलता है।
(2) श्रोताओं के मामले में इसके बिलकुल विपरीत क्रिया होती है। बाहरी अनुभव पहले होता है। सुनकर वह पहले बाह्यन्द्रियों से ग्रहण करता है, तब वह आन्तरिक अनुभव में बदलता है।
इस प्रकार सौन्दर्यात्मक अनुभव की क्रिया दोनों में होती है पर उसकी प्रक्रिया भिन्न होती है। कलाकार के लिए श्रोता का महत्व बहुत होता है, इसलिए वह भी श्रोता की रुचि, ज्ञान, समय आदि का ध्यान रख- कर कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। वह श्रोताओं से तादात्म्य के लिए क्या-क्या प्रयास करता है, उसे हम निम्न रूपों में देख सकते हैं-
(1) वह श्रोताओं की रुचि का ध्यान रखता है। जैसे कि, साधारण भीड़ में यदि कोई गायक शास्त्रीय गायन पेश करेगा तो बड़ा ख्याल व अधिक आलापचारी के स्थान पर छोटा ख्याल, ठुमरी अथवा तराने का उपयोग करेगा । सुगम संगीत के कार्यक्रमों में भी प्रायः प्रान्तीय भाषा, लोक संस्कृति आदि के अनुसार कार्यक्रम पेश किया जाता है, ताकि अधिक से अधिक श्रोता समझें व आनन्दित हों।
(2) श्रोताओं की संगीत सम्बन्धी समझ व ज्ञान का कलाकार को ध्यान रखना चाहिए। जिस स्तर के श्रोता हों, उसी के अनुसार सरल राग, ताल व सरल गायन शैली का प्रयोग करना चाहिए। क्लिष्ट ताने व स्वर समूह समझ में आए बिना श्रानन्ददायी प्रतीत नहीं होते। जानकार संगीतज्ञों के बीच उसे अपनी समस्त कलाकारी के प्रदर्शन का मौका मिलता है, तो यदि विद्याथियों के बीच दिये गये कार्यक्रम में उनके बुद्धिस्तर के अनुकूल ही प्रस्तुति हो, तभी समझ में आएगी। कलाकार कभी भी श्रोताओं के समक्ष एक रहस्यमय व्यक्ति के रूप में न रहकर वरन् उन्हें अपने साथ लेकर चलताहै। वह उन्हें अपने को समझने की सामर्थ्य प्रदान करता है।
(3) कलाकार श्रोताओं से सहयोग प्राप्त करने के लिए मौके व समय का भी ध्यान रखता है। किसी विशेष पर्व पर जैसे होली, जन्म अष्टमी अथवा किसी संगीतज्ञ की जन्म तिथि आदि के उपलक्ष्य में कार्यक्रम का आयोजन हो तो वह उससे सम्बन्धित रचना, जैसे धमार, कृष्ण से सम्बन्धित प्रबन्ध आदि गाता है जिससे समयानुकूल वातावरण तैयार होता है। इसी प्रकार श्रोताओं की मांग का भी स्वागत करता है।
(4) दीर्घ काल तक की गई साधना से गले में लोच, स्निग्धता आती है, उसकी प्रशंसा हो यह हर कलाकार चाहता है। वह कार्यक्रम के दौरान जिस प्रकार की स्वर-संगति अथवा मींड, गमक अथवा स्वर का लगाव, श्रोता पसन्द कर दाद देते हैं, उसकी वह पुनरावृत्ति करता है।
(5) कलाकार जब अपनी कला की प्रस्तुति करता है तो वह श्रोता को आनन्दित करने, झूमने की स्थिति में लाने की कोशिश करता है। यही उसकी कला की सफलता है। उसकी कला से जब श्रोता आनन्दित होते हैं तब उसमें नयी स्फूर्ति व जीवन का संचार होता है। उसके आनन्द की सीमा नहीं रहती ।
उपरोक्त प्रयास जब एक कलाकार अपनी कृति की सफलता के लिए करता है, तब उसे श्रोताओं से पूर्ण सहयोग की अपेक्षा रहती है। वह चाहता है कि श्रोता उसके सह-कार्यकर्ता के रूप में रहे। इसलिए श्रोताओं को अपनी भूमिका समझनी चाहिए और अपना महत्वपूर्ण स्थान ध्यान में रखते हुए कुछ बातों का पालन करना चाहिए। श्रोता को किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, सभा के कुछ नियम, मुख मुद्रा आदि बातों का ध्यान रखना चाहिए । इन्हें हम श्रोता के गुण कह सकते हैं।