गायनोपयोगी आवाज
भाग २
(6) स्पष्टता गायन में चूंकि स्वर के साथ शब्दों का उच्चारण भी होता है इसलिए शब्दों का स्पष्ट उच्चारण होना चाहिए। श्रकार, इकार, उकार तथा ओकार अथवा अंकार आदि के समय आवाज में कम-ज्यादा (तेज-धीमी) होने का दोष नहीं आना चाहिये। आवाज हर समय समान रहनी चाहिये। इसके लिए नोम, तोम के अलापों का खूब अभ्यास करना चाहिये ।
(7) काकु गीत रचना अथवा राग की प्रकृति के अथवा भावों के अनुरूप आवाज निकालना काकु कहलाता है। ठुमरी की एक पंक्ति को विभिन्न काकु (क्रोध, दैन्य, विनती, रूठना, अधिकारपूर्ण) में गाना ही उसकी विशेषता है। आवाज में ये भेद दिखाने की सामथ्यं होनी चाहिए, इसके लिए अभ्यास जरूरी है।
(8) ट्रेनिंग- उपरोक्त सभी विशेषताओं की, सीखने वाले को जानकारी देना तथा सीखने की प्रारम्भिक अवस्था में ही इन गुणों को पैदा करने की ट्रेनिंग दी जानी जाहिये। आवाज को दोषों से बचाने के तरीके, गला ठीक रखने के लिए नियम जैसे पेट खराब न रहना, देर तक न जागना, चिल्लाकर न बोलना या गाना आदि निषेधों की जानकारी दी जानी चाहिए। ट्रेनिग के अभाव में गलत अभ्यास से आवाज में अनेक दोष पैदा हो सकते है। विभिन्न अवयव (छाती, गर्दन, होठ, मुहे, जीभ, कन्धे आदि) ढीले छोड़ने चाहिए, इसकी जानकारी दी जाय। आवाज नक्की न हो, उसमें कंपकंपा- हट न हो, स्पष्ट उच्चारण हो, गूज हो, सहज निकाली गयी हो, इन सभी बातों की जानकारी देना तथा उसके लिए प्रशिक्षण जरूरी है।
उपरोक्त समस्त विवेचन से ज्ञात होता है कि आवाजशास्त्र एक विकसित व उपयोगी शास्त्र है, जिसका अपना क्षेत्र, नियम व इतिहास है। तथापि यह कहना कि भारत में आवाजशास्त्र नहीं था या कण्ठ-संस्कार बिल्कुल नहीं था, गलत है। एक निश्चित तथा क्रमबद्ध अथवा वैज्ञानिक इतिहास के रूप में यह नहीं था तथापि प्राचीन संगीताचार्य इस ओर सचेत न थे अथवा इस दिशा से अनभिज्ञ थे, ऐसा नहीं था। एक स्वतंत्र शास्त्र न होते हुए भी उससे सम्बन्धित अनेक तथ्यों, जो कि आज भी वैज्ञानिक आधार पर आवाज- शास्त्र में मान्य है, का उल्लेख हमें मिलता है।