गायनोपयोगी आवाज

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गायनोपयोगी-आवाज

 गायनोपयोगी आवाज


कोई भी गायक, चाहे गुरु हो अथवा शिष्य अथवा आरम्भिक संगीत शिक्षा लेने वाला छात्र, उसको आवाज में कौनसी विशेषताएँ होनी चाहिये और उन्हें पैदा करने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिये, उसे जानकारी होनी चाहिये। यहां हम अच्छी आवाज की कुछ विशेषताओं पर दृष्टिपात करेंगे-


(1) अपना स्वर- गायन में सर्वप्रथम गाने वाले को अपना स्वर निश्चित कर लेना चाहिये। हर व्यक्ति के गले की अपनी अपनी क्षमता होती है। वह स्वर जिससे मंद्र तथा तार दोनों सप्तकों में कम-से-कम मध्यम या पंचम तक आवाज जा सके, उसे ही अपना स्वर बनाना चाहिये। तत्पश्चात अभ्यास द्वारा तीनों सप्तकों में पूरी तरह फिर सके, ऐसी आवाज बनाई जाय ।


(2) श्वासोच्छ्‌वास - श्वास की दीर्घता गायन में बहुत उपयोगी तथा महत्वपूर्ण है। एक ही सांस में स्वरालंकारों का गायन करने से श्वास पर काबू पाया जा सकता है। लगातार अभ्यास करके श्वास की दीर्घता लायी जा सकती है। यह कार्य (दीर्घता, लम्बासांस) धीरे-धीरे होता है, अतः धैर्य से अभ्यास जारी रखा जाना चाहिये। श्वास को कब तोड़ना, जिससे गायन में स्वरसमूह, शब्द अथवा राग तथा ताल न टूटे, इसकी विशेष जानकारी दी जाय तथा उसके अनुकूल अभ्यास किया जाय ।


(3) मधुरता- गायन में गायक की कलाकारी बाद में सामने आती है। सर्व प्रथम षड़ज के साथ ही उसकी आवाज सुनाई देती है, अतः उसमें मधुरता होना जरूरी है। कण्ठ स्थान की अच्छी स्थिति, अभ्यास, आवाज को सहज रूप में निकालने से आवाज में मधुरता पैदा होती है। आवाज की मधुरता (Softness) अथवा गले का लोच, जिसमें स्वर बड़े सहज तरीके से तथा स्निग्धता से निकलते हैं, संगीत के लिए बहुत आवश्यक है। आवाज में किसी प्रकार की कृत्रिमता नहीं होनी चाहिये ।


(4) आवाज की गहराई गले की रचना पर आवाज की गहराई निर्भर करती है, साथ ही आवाज पैदा करने वाले भाग पर भी यह निर्भर है। तथापि मुह कम खोलकर गाने से Volume और कम हो जाता है। मन्द्र सप्तक अभ्यास द्वारा तथा मुंह को एक इंच खोल कर गाने से Volume सही रखा जा सकता है। आवाज को गले में दबाकर नहीं निकालना चाहिये बरन खुली आवाज हो, जिससे उसे दूर तक सुना जा सके ।


(5) सुरीलापन - आवाज सुनने में मीठी (Mellowness) तथा सहीलगने वाली होनी चाहिये। आवाज में ये दोनों विशेषताएँ पैदा करने में तानपूरा बहुत ही सहायक होता है। तानपूरे के साथ अभ्यास करने (स्वर- साधना आदि) से आवाज सुरीली तथा गूंजयुक्त होती है। हारमोनियम के स्वर छेड़कर अथवा साथ बजाकर अभ्यास करने से स्वयं को, यथास्थान स्वर लगाने की दक्षता प्राप्त नहीं होती, क्योंकि हारमोनियम उसे सहारा देता है। अतः अभ्यास हमेशा तानपूरे के साथ ही किया जाना चाहिए ।

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