श्रोता के गुण
सामाजिक गुण किसी भी कार्यक्रम में बैठने - सुनने का एक तरीका होता है, उसे हम सभागोष्ठी सभ्यता अथवा सभागोष्ठी नियम का नाम दे सकते हैं। जिस प्रकार समाज या परिवार में बड़ों के प्रति, बच्चों के प्रति, कर्तव्य आदि के नियम अथवा मानदण्ड होते हैं, जिससे व्यक्ति को हम सभ्य या असभ्य की संज्ञा देते हैं। उसी प्रकार किसी भी कार्य क्रम को सुनते समय श्रोता को कुछ नियमों का पालन करना चाहिए, जिससे कलाकार के ध्यान व प्रस्तुतिकरण में विघ्न न पड़े, वह अपने को अपमानित महसूस न करे आदि। इसके लिए उसे निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(i) श्रोता को कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पूर्व अपना स्थान ग्रहण कर लेना चाहिए। चल रहे कार्यक्रम में बीच में जाने से गायक, वादक, श्रोता सभी का ध्यान भंग होता है। कुछ लोग उसी समय नमस्कार, हाथ मिलाना आदि भी करने लग जाते हैं, जिससे बंधा हुआ समा टूट जाता है और सभी का ध्यान भंग होता है।
(ii) यदि विलम्ब से ही जाएँ तो आगे की पंक्तियों में न जाकर कोने की अथवा पीछे की सीट पर बैठ जाना चाहिए। आगे की ओर जाने से गायक-वादक की दृष्टि भी तुरन्त पड़ती है और पीछे बैठे समस्त श्रोताओं का एक बार ध्यान उस ओर जाता है।
(iii) शास्त्रीय संगीत आदि के कार्यक्रमों में ऐसे छोटे बच्चों को न ले जाएँ जो एक चित्त होकर सुन व बैठ नहीं सकते और कभी कुछ खाने-पीने की मांग करें अथवा रोएँ और फिर माता-पिता को उठकर बाहर जाना पड़े ।
(iv) जिस समय कलाकार अपने साज निला रहे हों, श्रोता को पूर्णशांति बनाए रखनी चाहिए ताकि उन्हें साज मिलाने में दिक्कत न हो व सही सही मिला सकें ।
(v) जब तक एक गाना अथवा एक गत अथवा चल रहे कार्यक्रम का गीत या अंश पूरा न हो, बीच में से उठकर नहीं जाना चाहिए। इससे ध्यान भंग के साथ-साथ कलाकार का अपमान भी होता है। या तो गीत रचना आरम्भ होने से पहले उठ जाएँ अथवा उसके समाप्त होने व दूसरी के शुरु होने से पहले उठ जाएँ। जिससे कलाकार में हताशा पैदा न हो पाए ।
(vi) कोई बात पसन्द न आने पर भी सभा में बैठे बैठे उसकी निंदा न करें, न आवश्यक बात करें, जिससे कलाकार यह महसूस करे कि मुझसे कुछ गलत हुआ अथवा लोगों को आनन्द नहीं आ रहा है।
(vii) कार्यक्रम के बीच-बीच में जब भी कोई तिहाई, सुन्दर मुखड़ा अथवा कोई स्वर-संगति पसन्द आए तो प्रशंसात्मक शब्द अवश्य बोलें, जिससे कलाकार में उत्साह बना रहता है और इस प्रकार की प्रतिक्रिया से वह यह समझता है कि श्रोता उसे ध्यान से सुन रहे हैं।
(viii) हर कार्यक्रम (अंश) के बाद ताली अवश्य बजानी चाहिए ।
(ix) जिन श्रोताओं को शास्त्रीय संगीत में रुचि न हो अथवा कोई
समझ न हो, उन्हें केवल सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण भीड़ बढ़ाने के लिए नहीं आना चाहिए। ऐसे हो श्रोता स्वयं तो सुनते नहीं, पास बैठे लोगों से भी बातें करते हैं और सभा नियमों का भी उल्लंघन करते हैं अथवा वे भावहीन चेहरा लिए बैठे रहते हैं। ऐसे श्रोता पर कलाकार की दृष्टि पड़ने पर वह हताश होता है कि श्रोता को या तो समझ नहीं आ रहा है या आनन्द नहीं था रहा है।
(x) कलाकार से श्रोता को ऐसी कोई फरमाइश (राग, गीत की) नहीं करनी चाहिए, जिसे वह तत्काल पूरी न कर सके। न ही श्रोता को उसे नीचा दिखाने या उसकी कमी सामने आए, इस भावना से प्रेरित होकर कोई
फरमाइश करनी चाहिए ।
(xi) कला व कलाकार के प्रति हमेशा आदर व सहानुभूति का भाव रखना चाहिए। केवल आलोचनात्मक दृष्टि नहीं रखनी चाहिए ।
उपरोक्त बातों का यदि श्रोता पालन करे तो वह अवश्य एक सभ्य व अच्छे श्रोता की श्रेणी में जाना जाएगा और अच्छा श्रोता बनकर ही वह कलाकार के सह-कार्यकर्ता के रूप में अपना दायित्व निभा सकता है, क्योंकि संगीत में कलाकार व श्रोता दोनों का समान दायित्व, महत्व होता है। दोनों को एक दूसरे का ध्यान रखते हुए, एकात्म होकर सामंजस्य पैदा करनाचाहिए, तभी कार्यक्रम सैफल होगा व स्वयं को आनन्द भी आएगा। अतः संगीत में श्रोता का विशेष महत्व व भूमिका है, यह कहना गलत न होगा। कला की उन्नति, नवीनता, उत्तमता के लिए कला पारखी का होना जरूरी है। श्रोताओं की रुचि, बुद्धि स्तर, स्वीकृति-अस्वीकृति को कलाकार ध्यान में रखकर ही अपनी कृति में परिवर्तन करता है व प्रस्तुत करता है। इसलिए कलाकार व श्रोता दोनों का महत्व है।