रस निष्पत्ति और विभाव
रस निष्पत्ति
स्थायी भाव रसों के उपादान हैं, परन्तु ये भाव किस प्रकार रस में परिणत होते हैं अथवा किस क्रिया द्वारा वे रस रूप में अनुभावित होते हैं, इसके लिए भरत ने जो सूत्र दिया वह 'रससूत्र' के नाम से विख्यात है। इसी सूत्र की परवर्ती साहित्यकारों ने भिन्न भिन्न परिभाषा द्वारा विवेचना की है।
भरत के अनुसार-
विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः ।
अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी (संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। जिस प्रकार भिन्न भिन्न द्रव्यों के संयोग से 'बडरस व्यंजनों' का तथा औषधि द्रव्यों के संयोग से रसायन की निष्पत्ति होती है उसी प्रकार अनेकानेक भावों के मिश्रण से स्थायी भाव रस तत्त्व में परिणत होते हैं। रसिक हृदय उन रसों का अनुभव करता है। भरतोक्त सूत्र में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव का नामोल्लेख हुआ है। ये सभी क्या हैं तथा रस निष्पत्ति में किस प्रकार सहायक होते हैं? यह जानने के लिए इनमें से प्रत्येक प्रकार के भाव के बारे में जानना जरूरी है।
विभाव
ये स्थायी भाव को रस तक पहुँचने में सामग्री जुटाकर सहायता करते हैं। विभाव का अर्थ है 'जिसका ज्ञान हो सके'। विभाव ही स्थायी भाव को पुष्ट करता है। विभाव के दो भेद हैं आलम्बन तथा उद्दीपन । आलम्बन प्रायः व्यक्ति होता है तथा उद्दीपन देशकाल, प्रकृति आदि। जैसे किसी नाटक में नायक नायिका (राम, सीता, दुष्यन्त, शकुन्तला) आलम्बनहोते हैं। आलम्बन के माध्यम से जो भाव पैदा होता है अथवा जो भाव को उद्दीप्त करता है वह उद्दीपन होता है। जैसे- शकुन्तला का सुन्दर व यौवन सम्पन्न होना (आलम्बन स्वरूप) दुष्यन्त के हृदय में रति का भाव पैदा करता है। यहाँ शकुन्तला आलम्बन है। उस समय का एकान्त, मालिनी तट, कोयल की कुहू कुहू, बगीचे को शोभा आदि उस रति भाव को और बढ़ा रहे हैं। अतः ये सभी उद्दीपन विभाव हैं। इस प्रकार स्थायी भाव को विभाव (आलम्बन तथा उद्दीपन) पुष्ट करता है। रति भाव को धारण करने के कारण दुष्यन्त आश्रय है।