रस तथा भाव

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रस-तथा-भाव

 रस तथा भाव


अनुभाव


स्थायी भाव की सूचना देने वाले विकार अनुभाव कहलाते हैं। ये सामाजिकों को (रसिकों) स्थायी भाव का अनुभव कराते हैं। 'अनु' अर्थात् बाद में या पश्चात । आश्रय में स्थायी भाव उद्बुद्ध होने के बाद ये पैदा होते हैं, इसलिए इन्हें स्थायी भावों का कार्य माना जाता है। विभिन्न भावों के अनुसार अनुभाव भिन्न होते हैं। कुछ अनुभाव स्वर भंग, अक्षु, स्वेद, आँखें लाल होना, शरीर काँपना, चुप्पी साधना आदि हैं। अनुभाव प्रायः शारीरिक, मानसिक या आंगिक होते हैं। ये भावोत्पत्ति को सूचित करते हैं। आलम्बन के शारीरिक विकार अनुभाव नहीं होते वरन् वे उद्दीपन विभाव होते हैं। आश्रय (जिसमें भाव पैदा हो) के विकार ही अनुभाव कहलाते हैं।


व्यभिचारी अथवा संचारी भाव


जिस प्रकार समुद्र में लहरें उठती हैं तथा उसी में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार व्यभिचारी भाव भी स्थायी भाव में कभी आविभूत होते हैं, कभी तिरोहित । ये भाव भी स्थायी भाव के अभिप्रेरित कार्य निर्माण में सहायक होते हैं। व्यभिचारी भाव 33 होते हैं- निर्वेद, ग्लानि, शङ्का, श्रम, धृति, जड़ता, हर्ष, दैत्य, असूया, मद, आलस्य, चिता, मोह, स्मृति, ब्रीडा, चपलता, आवेग, गर्व, विवाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास तथा वितर्क । इन व्यभिचारी भावों के विना रसों को पूर्णत्व प्राप्त नहीं हो सकता ।


सात्विक भाव


भरत ने 8 स्थायी भाव, 33 व्यभिचारी भावों के अतिरिक्त 8 सात्विकभाव बताए हैं। सत्व का अर्थ है मन से उत्पन्न। ये मन की एकाग्रता से उत्पन्न होते हैं। यद्यपि सात्विक भावों में अनुभावतत्व होता है, वे अनुभावों की तरह ही आश्रय के विकार हैं, तथापि इन्हें सत्व (मानसिक स्थिति) से उत्पन्न होने के कारण भाव की संज्ञा दी जाती है। एक ओर ये सत्व से उत्पन्न होने के कारण भाव कहलाते हैं तो दूसरी ओर विकार रूप होने के कारण अनुभाव भी हैं। अतः ये सात्विक भाव तथा अनुभाव दो रूपों से युक्त हैं। सात्विक भाव हैं- स्तम्भ (अंगों का निष्क्रिय हो जाना), प्रलय (अचेतना), रोमांच, स्वेद, वैवण्ये (मुह का रंग फीका पड़ जाना), वेपनु (कम्प), अश्रु तथा वैस्वयं (आवाज में परिवर्तन) ।


रस-निष्पत्ति


भरत द्वारा दिया गया सूत्र 'विभानुभावही परवर्ती विज्ञजनों ने माना है। परन्तु उसी सूत्र की व्याख्या उन्होंने भिन्न भिन्न प्रकार से की है। उसी रससूत्र की व्याख्या में लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक तथा अभिनव- गुप्तपादाचार्य ने अपने अपने रस सिद्धान्तों को प्रतिष्ठापित किया है। इनकी व्याख्या की भिन्नता का कारण है इनका भिन्न मतावलम्बी होना, कोई भीमांसक है तो कोई नैयायिक और कोई सांख्य। अतः इनकी व्याख्या पर इन मतों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यहां हम प्रमुख रसशास्त्रियों के मतों का उल्लेख करेंगे ।

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