रस तथा भाव
रसों के प्रमुख आधार भाव ही हैं। इन भावों को स्थायी भावों की संज्ञा दी गई है। हर सहृदय सामाजिक के हृदय में यह भाव रहते हैं तथा मानस के अद्ध चेतन अथवा अवचेतन भाग में छिपे रहते हैं। जब हम नाटक, काव्यादि में भाव विशेष का चित्रण पढ़ते या देखते हैं तो छिया भाव उभर कर चेतन मन में उतरता नजर आता है और विभाव, अनुभाव आदि के द्वारा पुष्ट होकर रस में परिणत होता है। तब वह असीम आनन्द प्रदान करता है। अतः भाव ही रस के आधार हैं। इसीलिए कहा है 'स्थायीभावाः श्समाप्नुवन्ति', भाव ही रस को प्राप्त होते हैं। जो भाव रस तक नहीं पहुंचते, वे विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों का आश्रय लेते हैं।
भरत ने 8 स्थायी भाव तथा उसके अनुरूप 8 रस बताए हैं। अभिनव गुप्त ने सर्वप्रथम 'शांतरस' को स्थान देकर 'नवरसकल्पना' की। बाद के विज्ञजन मम्मट आदि ने भी रसों की संख्या 9 मानी है। ये स्थायी भाव तथा उनके रस निम्न हैं-
स्थायी भाव रस
रति शृंगार
हास हास्य
शोक करुण
क्रोध रौद्र
उत्साह वीर
भय भयानक
जुगुप्सा बीभत्स
विस्मय अद्भुत
निर्वेग शांत
इसके अतिरिक्त समय-समय पर विद्वानों ने अन्य रसों की चर्चा की यथा मधुसूदन सरस्वती तथा विश्वनाथ ने भक्ति रस तथा वात्सल्य रस को स्वतंत्र रस के रूप में माना। परन्तु आज भी मुख्य रूप से रस 8 अथवा 9 ही माने जाते हैं। भक्ति तथा वात्सल्य आदि को श्रृंगार रस के अन्तर्गत ही माना जाता है । स्थायी भावों की तुलना समुद्र से की जाती है। जिस प्रकार समुद्र खारा तथा मीठा पानी और समस्त (अनेक) वस्तुओं को आत्मसात कर आत्मरूप बना लेता है, उसी प्रकार स्थायी भाव अपने से प्रतिकूल अथवा अनुकूल किसी भी भाव से विच्छिन्न नहीं होता तथा सभी को आत्मरूप बना लेता था। इस प्रकार रस के उपादान ये स्थायी भाव ही महत्त्वपूर्ण हैं।