(4) केवल नाथ महत्त्वपूर्ण संगीत तथा काव्य दोनों में नाद महत्त्वपूर्ण है। जो विचारक यह मत रखते हैं कि संगीत शब्द के विना पंगु है, वे यह भूल जाते हैं कि वाद्य संगीत में कोई शब्द नहीं होते और उसका प्रभाव और आनन्द भी उतना ही होता है जितना कि किसी गीत का अथवा कण्ठ संगीत का । आजकल तो वाद्य संगीत स्वतंत्र रूप से इतना अधिक विकसित, उन्नत हो गया है कि गले की सभी हरकतें उसमें दिखाई जाती है, साथ ही यह भी देखा गया है कि वाद्य संगीत को लोग अधिक पसन्द करते हैं। कण्ठ संगीत में भी बंदिश के अतिरिक्त अलाप, तानें आदि शब्दहीन होती हैं। फिर संगीत में स्वर लहरी ही विशेष महत्त्व की होती है। इसके विपरीत काव्य पाठ यदि ससंगीत (गोत के रूप में) न हो तो उसका प्रभाव ही ग्राधा रह जाता है। जो कवि अपनी रचना का अगेय रूप में पाठ करते हैं वे भी उसे जिस उतार-चढ़ाव के साथ गाते हैं वह भी कम स्वरों में एक प्रकार से लय मय गायन होता है। यही कारण है कि राष्ट्रगीत, भक्ति गीत, बन्दना, प्रणाय सम्बन्धी रचनाएँ गायी जाती हैं, पढ़ी नहीं जातीं।
(5) मावाभिव्यक्ति कुछ लोगों की यह मान्यता है कि शब्द ही भावों को व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है, जबकि वास्तव में जहां भाषा पंगु हो जाती है, वहां भी संगीत (स्वर) काम आता है। यही कारण है कि जन्म, विवाह, खुशी, दुख, यहां तक की मृत्यु पर भी लोक जीवन में संगीत व्याप्त है। प्रीट ने कहा है- "भाव, जो हम अनुभव करते हैं, संगीत उसे ही ध्वनि द्वारा प्रकट करता है।" साथ-साथ संगीत जीवन में स्फूति लाता है, निराशा का अन्त कर नयी चेतना भरता है। अतः भावों की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम संगीत है।
(6) धानन्दानुभूति - आनन्दानुभूति को दूसरे शब्दों में हम रसानुभूति भी कह सकते हैं। काव्य में भी रसानुभूति बहुत हद तक सम्भव है। यह भी कह सकते हैं कि काव्य में सभी रसों (9 रस) की निष्पत्ति सम्भव है, जबकि संगीत में वीभत्स, घृणा, भय तथा रौद्र आदि रसों की निष्पत्ति नहीं की जा सकती है। लेकिन रस को और रसानुभूति को जब हम अन्तिम रूप में आनन्द से जोड़ते हैं तब संगीत में भी उसी आनन्द की प्राप्ति होती है। रसोद्र क की पूर्णता चिर आनन्द में है और संगीत से यह आनन्द प्राप्त होता है। रस निष्पत्ति से भी आगे की स्थिति संगीत में होती है। श्रोता कौनसा रस है, कौनसा राग है, इसे न सोचकर उसमें इतना लीन हो जाता है कि वह केवल विशुद्ध आनन्द प्राप्त करता है और झूमता है। यही स्थिति आनंदानुभूति की है, जिसमें न भाषा, न प्रान्तीयता, न देश-विदेश की कोई सीमा व बाधा रहती है, न ही शिक्षा की।
(7) गतिशील कला-संगीत की अपनी एक विशेष विशेषता है कि वह एक गतिशील कला है। इसमें कृति बनती जाती है और आनन्द आता रहता है। जबकि अन्य कलाओं में जब तक कृति पूर्ण न हो जाय, आनन्द देने तथा भाव दशनि में समर्थ नहीं होती। लेकिन संगीत तानपुरा अथवा वाद्य के छिड़ते ही और षड़ज लगते ही आनन्दित करना शुरु कर देता है। राग का एक आलाप वातावरण तैयार कर देता है और उसके बाद हर step श्रानन्दानुभूति कराता है। जबकि काव्य में रचना पूर्व रचित होती है। संगीत की इसी विशेषता के कारण इसे 'Moving Art' कहा गया है।
उपरोक्त तों के प्राधार पर हम कह सकते हैं कि संगीत का स्थान कलाओं में सर्वोच्च है। वाल्टर पैटर ने तो यहां तक कहा है "जितनी भी कलाएँ हैं वे सब संगीत की ओर उन्मुख हैं।" संगीत से हमें तत्क्षण आनन्द मिलता है। संगीत की सर्वोच्चता के पक्ष में शॉपन हार्क ने कहा है-
"Music is the highest art which gives us abandon, where the will to live is silenced. It is the vehicle of religious and mistical experience."
अतः हम कह सकते हैं कि संगीत श्रेष्ठतम कला है, उसकी श्रेष्ठता निर्वाध है। अपने प्रभाव की व्यापकता, सूक्ष्मता, महत्त। के कारण ललित कलाओं रूपी आकाश का ध्रुव तारा संगीत है। लौकिक तथा अलौकिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त करने तथा प्रदान करने की जितनी शक्ति संगीत में है, उतनी अन्य कलाओं में नहीं है। स्वर व लय का प्रभाव इतना सशक्त होता है कि सृष्टा व श्रोता दोनों को ही उस आनन्द सागर में हिलोरें लेने के लिए बाध्य कर देता है। स्वर साँचों को योजना चाहे मानव कण्ठ से प्रस्फुटित हो अथवा वाद्य से, बिना किसी साहित्य का आश्रय लिए पशु-पक्षी, मानव-देवता, मूर्ख विद्वान, सम्पूर्ण जड़-चेतन को अपने प्रभाव में बांधने की क्षमता रखती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जहां स्थापत्य व मूर्ति कला में विषयरूप सौन्दर्य होता है, चित्रकला में चाक्षुक सौन्दर्य, काव्य में कल्पना का प्रामुख्य, वहीं संगीत में प्रेषणीयता होती है। संगीत एक हृदय से दूसरे हृदय को छूता है। अतः संगीत उत्कृष्टतम कला है।