कला के उद्देश्य
कला का उद्भव क्यों हुआ, कला का उद्देश्य क्या है, उसका जीवन में क्या महत्त्व है आदि ऐसे प्रश्न हैं जिन पर अनेक विचारकों, दार्शनिकों तथा कलामीमांसकों ने अपने मत दिये हैं। मानव की सुन्दरतम अभिव्यक्ति कला है, यह तो सभी विचारक मानते हैं परन्तु वैचारिक भिन्नता, स्थान व समय भेद के कारण हमें अनेक मत मिलते हैं। ये विचारधाराएँ मुख्य रूप से हम दो भागों में बांट सकते हैं- पाश्चात्य विचारधारा तथा भारतीय विचार- धारा ।
पाश्चात्य विचारधारा
'पाश्चात्य विचारधारा' इस नामकरण के कारण यह नहीं समझना चाहिए कि सम्पूर्ण पाश्चात्य देशों की कला के सम्बन्ध में समान राय है। पाश्चात्य विचारकों में भी कला के सम्बन्ध में विचार वैभिन्य है, इस विभिन्नता के कारण अलग-अलग मत मिलते हैं। अतः भिन्न विचारकों ने कला के उद्देश्य अथवा प्रयोजन भी भिन्न बताए हैं। ये उद्देश्य निम्न शीर्षकों में देखे जा सकते हैं-
(1) कला, कला के लिए इस मत के प्रवर्तक ए. सी. ब्रडले, कोचे, वॉल्टर, आस्कर व्हाइट, जे. ई. स्पिनगार्न आदि हैं। इनके अनुसार कलाकार का लक्ष्य केवल कलात्मक अभिव्यक्ति या सौन्दर्य की सृष्टि करना है। अतः कलाकार की कृति अथवा कला का नीति, धर्म, उपदेशों के प्रतिपादन से कोई सरोकार नहीं होता ।
(2) कला, जीवन के लिए- इस श्रेणी के विचारकों का मत है कि कला केवल सौन्दर्य की मूर्ति मात्र न हो वरन् उसे उपयोगी व कल्याणकारी होना चाहिए । कला वह है जो जीवन को दिशा दे, उसे ऊँचा उठाए, शिव हो व आदर्श हो, जीवन में कला की कोई सार्थकता हो। टाल्सटाय इसी मत के अनुयायी थे ।
(3) कला, जीवन से पलायन के लिए जो व्यक्ति जीवन से निराश हों, असफलता के शिकार हों, अपंग (विकलांग) हों, अन्य कार्यों में असमर्थहों, कला उन्हें सहारा देती है। जीवन की सच्चाइयों, कठिनाइयों तथा कड़वाहट का अनुभव, जो सहन नहीं कर सकते, वे कला का ही सहारा लेते हैं। इस मत के प्रमुख प्रवर्त्तक टी.सी. इलियट हैं जो 20 वीं शताब्दी के अंग्रेज समीक्षक हैं, इनके अनुसार "अपने व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति कला नहीं अपितु उससे पलायन कला है।"
(4) कला, अभिव्यंजना के लिए इटली के प्रसिद्ध कला मीमांसक क्रोचे रहे हैं। उन्होंने ही इस अभिव्यंजनावाद का विचार दिया। उनके अनुसार इस अभिव्यंजना का आधार मनुष्य की सहजानुभूति है। प्रत्येक सहज अनुभूति अभिव्यंजना है और प्रत्येक अभिव्यंजना कला है। क्रोचे के अनुसार "व्यक्ति का प्रकाशन चित्र, शब्द या संगीत किसी भी रूप में क्यों न हो, सहजानुभूति अभिव्यंजना का कोई-न-कोई रूप ढूढ़ ही लेती है। वस्तुतः अभिव्यंजना सहजानुभूति का एक अभिन्न अंग है।"