राग एवं रस

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राग-एवं-रस

राग एवं रस


उच्च श्रेणी का काव्य वही है जो नवरस कल्पना को साकार कर सके, जो सभी रसों की उत्पत्ति करने में सफल हो। रसों की निष्पत्ति आवश्यक भी है तथा संभव भी। नाट्य पर तथा काव्य पर चरितार्थ होता है, इसी प्रकार नाट्य में भी भरत का रससूत्र जिस का उसी रूप में संगीत पर भी होता है? नहीं, काव्य तथा नाट्य में भाषा, संवाद, आश्रय, आलम्बन आदि ऐसे सशक्त माध्यम हैं जिनसे किसी भी रस का परिपाक संभव है। संगीत में किन-किन रसों की तथा किस सीमा तक निष्पत्ति संभव होती है, यह एक विकट प्रश्न है। चूंकि संगीत प्रारम्भ से ही धार्मिक परिवेश में पला व आश्रय पाता रहा, अतः सदा ही अध्यात्म की ओर उन्मुख रहा । जो कला अध्यात्म से संबंधित हो, जिसका उद्देश्य ईश्वर- प्राप्ति व भक्ति हो, जो आत्म साक्षात्कार का माध्यम रही हो, उससे भयानक, वीभत्स आदि रसों की निष्पत्ति की कल्पना नहीं करनी चाहिए और न ही यह संभव है। इसके अतिरिक्त राग का मूर्त न होना, शब्दाभाव आदि कुछ अन्य कारण भी हैं, जिनके द्वारा सभी रस निष्पादित नहीं किए जा सकते । संगीत का स्वरमाधुर्य, लयात्मकता तथा नवीन प्रस्तुतीकरण ऐसे आयाम है, जिनमें यह क्षमता तो होती है कि वे श्रोता-समूह को आनन्दविभोर कर देते हैं पर प्रत्येक रस को निष्पादित कर ही दें, यह कठिन है।


                 संगीत (शास्त्रीय) का सीधा सम्बन्ध व निर्देश राग की ओर है। जब हम संगीत व रस की चर्चा करते हैं, तो मूल रूप में राग ही केन्द्र रूप में होता है। राग द्वारा किन-किन रसों की निष्पत्ति संभव है? राग के बताए गये रसों में वाद्यों अथवा तालों का क्या स्थान रहता है ? संगीत अथवा राग में रस का क्या अर्थ हमें लेना चाहिए आदि पर विस्तार से विश्लेषण करेंगे। इन सभी बातों पर विभिन्न संगीतज्ञों, शास्त्रकारों के मतों का उल्लेख भी करेंगे । शास्त्रज्ञों के कुछ मत है कि वे किस प्रकार स्वर - विशेष के रस के कारण उस स्वरयुक्त राग को भी वही रसयुक्त मानते हैं। परन्तु यह बात बड़ी विचित्र है कि राग का विशेष रस मानने पर भी भिन्न बंदिश, भिन्न ताल तथा लय से रस-परिवर्तन संभव है। तब क्या यह मान लिया जाय कि राग को कोई निश्चित रस से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता ? इस सन्दर्भ में पं. रविशंकर कहते हैं "हर राग का अपना मूल रस होता है तथापि उस राग से उसी प्रकार के और रस भी सम्बद्ध हो सकते हैं अतः ऐसी अवस्था में भिन्न रसों की निष्पत्ति संभव है जैसे राग मालकौंस जिसका मुख्य भाव वीर रस है तो भी आलाप में शांत व करुण रस के निरूपण से आरम्भ करके जोड़ व झाला बजाने में वीर, अद्भुत और रौद्र रस में विकसित कर सकते है । यह सभी तत्व प्रायोगिक अभ्यास से सिद्ध हो सकते हैं।"


              इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी वाद्य विशेष की बजाने की जो शैली है, यदि कोई वादक उस पर दो भिन्न रसयुक्त राग, जैसे बिलावल तथा बागेश्री अथवा भैरव तथा मियाँमल्हार (दोनों अलग-अलग वर्गीकरण के राग हैं) को समान लय तथा समान बाज शैली में बजाएँ तो आलाप की धीमी गति में शान्त अथवा करुण रस ही पैदा होगा और झाले में समान तीव्रता लाने पर अद्भुत अथवा रौद्र रस पैदा होगा। इसी प्रकार हर राग का छोटा ख्याल समान भाव के शब्दों (श्रृंगारिक, रूठना, शिकायत, मनाना आदि) से युक्त होता है अतः उसकी अदायगी में समान रस पैदा होता है।

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