रस तथा भाव पर विशेषज्ञों की राय

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रस तथा भाव पर विशेषज्ञों की राय


अभिनवगुप्त


          अभिनवगुप्त एक ओर शैव दार्शनिक थे तो दूसरी ओर व्यंजनावादी तथा ध्वनिवादी, इसलिए उनका रस सिद्धान्त दोनों से प्रभावित था । अपने दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक आधार के कारण इनका मत रसशास्त्र तथा अलंकारशास्त्र में विशिष्ट स्थान तथा प्रसिद्धि पा सका। अभिनवगुप्त का मत 'व्यक्तिवाद' के नाम से जाना जाता है। ये रस को ध्वनि का एक प्रमुख भेद रसध्वनि मानते हैं, इसी कारण वे रस को व्यंग्य मानते हैं। भरत सूत्र की व्याख्या करते समय अभिनवगुप्त ने 'संयोगात्' का अर्थ 'व्यङ्गय- व्यञ्जकभावरुपात्' तथा निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्ति से लिया है। अभिनव- गुप्त रस की स्थिति सहृदय में मानते हैं तथा रसदशा को शैवों की 'विमर्श- दशा' से जोड़ा है। विभाव, अनुभव तथा संचारी आदि भाव रस के अभिव्यंजक हैं और रस अभिव्यंग्य । अभिनवगुप्त के अनुसार जीवन में हम कई प्रकार के अनुभव प्राप्त करते हैं। ये अनुभव हमारे मानस में रति, शोक आदि भावों की स्थिति को जन्म देते हैं। प्रत्येक सहृदय काव्य पढ़ता या नाटक देखता है तो उसमें वणित विभावादि उसके मानस में छिपे अव्यक्त भाव को व्यक्त कर देते हैं। और वह भाव रस रूप में व्यक्त हो जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि रसास्वादन सहृदय ही करता है क्योंकि इसके लिए पूर्व संस्कार अपेक्षित हैं। ये रस लौकिक भावों के अनुभव से पूर्णतया भिन्न होता है, तभी इसे अलौकिक तथा 'ब्रह्मास्वादसहोदर' बताया जाता है। इस समय सहृदय अपूर्व आनन्द का अनुभव करता है। यह दशा एक योगी की दशा के समान है। जहां साधक 'शिवोऽहम्' का अनुभव करता है।


            अभिनवगुप्त के अनुसार उपरोक्त अलौकिक दशा के लिए आवश्यक है कि विभावादि अपने वैयक्तिक रूप को छोड़ दें तथा सहृदय भी निर्वैयक्तिकता धारण करले । ऐसी स्थिति में राम, सीता आदि अपने व्यक्तित्व को छोड़कर नायक नायिका के रूप में हमारे सामने आते हैं तथा सामाजिक केवल रसानुभव करता है। अभिनवगुप्त ने कहा है कि विभावादि केवल विषयमात्र तथा सामाजिक केवल विषयीमात्र रह जाता है, यही साधारणीकरण कहलाता है। यह साधारणीकरण केवल विभाव (ग्रालम्बन) अथवा आश्रय का ही नहीं होता, सभी तत्वों का होता है। उस दशा में राग, द्वेष आदि लुप्त हो जाते हैं, तब रसानुभूति का अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है। अभिनवगुप्त ने नये रस 'शांतरस' की नवें रस के रूप में स्थापना की। अभिनवगुप्त का यही रस सिद्धान्त मम्मट से लेकर जगन्नाथ पण्डितराज तक मान्य रहा। यही कारण है कि उन्हें अलंकार शास्त्र में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। आनन्दवर्धन के 'ध्वन्यालोक' पर उनकी 'लोचन' नामक टीका तथा भरत के नाट्यशास्त्र १२ 'अभिनव भारती' टीका अमूल्य कृतियाँ हैं। यद्यपि ये दोनों टीकाग्रन्थ हैं तथापि अलंकारशास्त्र तथा रसशास्त्र में इनका स्थान आकर ग्रन्थों के समान है।


            उपरोक्त सभी मतों के विश्लेषण से एक बात स्पष्ट है कि रस चर्चा प्राचीन आचार्यों ने नाटक के संदर्भ में ही की है। भरत से लेकर अभिनव- गुप्त तथा परवर्ती विज्ञजन मम्मट, मधुसूदन सरस्वती, विश्वनाथ तथा जगन्नाथ पंडितराज तक, सभी ने रस निष्पत्ति नायक, पात्र के माध्यम से बतायी है। अतः नाट्य से ही रस निष्पत्ति को प्रमुख रूप से जोड़ा गया है। भरत ने अपने रससूत्र की व्याख्या नाट्य के परिप्रेक्ष्य में ही की है, तथापि वही व्याख्या अन्य सभी ललित कलाओं पर भी लागू होती है। काव्य चित्रतथा संगीत कला के लिए रसनिष्पत्ति सम्बन्धी कोई अन्य सूत्र अलग से नहीं है।

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