कला के उद्देश्य
भाग ३
कालीदास ने कला के निम्न प्रयोजन बताए हैं-
(1) कला देवों को प्रसन्न करती है।
(2) कला मनुष्य के आचरण से सम्बन्धित है और जीवन के सुख-दुःख को व्यक्त करती है।
(3) कला अनेक रसों की अभिव्यक्ति करतो है, जिसके कारण यह कलाकार को विविध प्रकार का पारलौकिक आनन्द प्रदान करती है।
(4) कला व्यापक आनन्द प्रदान करती है। कला के अतिरिक्त और कुछ ऐसा नहीं है जो युवा तथा वृद्ध, सुखी-दुखी, रोगी पीड़ित, स्वस्थ-सबल सभी को समान रूप से आनन्द पहुंचा सके । कला के इस आध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण ही कला में निहित सौंदर्य व उससे प्राप्त आनन्द (रस) के प्रति भी भारतीय विचारधारा पाश्चात्य विचारधारा से भिन्न है, आध्यात्मिकता का पुट लिए है। कला से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह आत्मिक आनन्द होता है। यही कारण है कि उस आनन्द अथवा रस को 'रसौवेसः' कहा गया है। इस आनन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है-
सत्योद्र कादखण्डस्वप्रकाश नन्द चिन्मयः ।
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्मा स्वाद सहोदरः ।।
लोकोत्तर चमत्कार प्राणः कैश्चित्प्रभातृभिः ।
स्वाकारवद भिन्नत्वे नाय मास्वाद्यते रसः ।।
भारतीय विचाधारा के अनुसार कला केवल वैयक्तिक आत्म-प्रदर्शन के लिए नहीं है वरन् वह समूची संस्कृति की द्योतक होती है। वह देवताओं की सांकेतिक भाषा है, वह देवताओं की संदेशवाहिका है। यही कारण है कि भारतीय कलाएँ निवैयक्तिक हैं। विशाल मन्दिरों, मूतियों के शिल्पी तथा भित्ती चित्रों के चित्रकारों के बारे में हम नहीं जानते, क्योंकि कलाओं का प्रयोजन व्यक्तित्व की महिमा बताना नहीं है।
प्रसिद्ध यूनानी कला महर्षि पर्सी ब्राउन के अनुसार- "यूनानियों की वास्तुकला की विशेषता इनकी प्रौज्ज्वलता व पूर्णता रही है। रोमन भवन अपनी वैज्ञानिक रचना के लिए प्रसिद्ध है। फ्रेंच गोथिक कला में भावुक बुद्धि एवं सद्भावना दर्शनीय है। ठीक इसी प्रकार भारतीय बास्तुकला की सर्व- प्रथम विशेषता इसकी अध्यात्म निष्ठा में निहित है।". संक्षेप में, समस्त कलाओं का सार उस परमात्मा से साक्षात्कार करना है या उसकी खोज करना है, केवल उसके माध्यम भिन्न हैं। नंदलाल के अनुसार "सभी शिल्पों का लक्ष्य एक है। कवित्, मूर्ति, चित्र, नृत्य, गान की आध्यात्मिक साधना में सृष्टि के सारे वैचित्य के अन्तराल में ऐक्य को ढूँढ़ना है। सभी कलाएँ ठीक उसी प्रकार उस एक विराट् के दर्शन को लेकर चल रही हैं।" भारत में भी कला को मनोरंजन, अर्थप्राप्ति, यशप्राप्ति के साधन के रूप में समय-समय पर देखा गया पर ऐसी कलाएँ निम्न कोटि की मानी जाती रही हैं। कला का प्रयोजन जिस प्रकार का होता है, कला वैसा ही रूप धारण कर लेती है। जब कला का उद्देश्य आत्मानुभूति होता है, तब आत्मा पर चढ़ी धूल (काम, क्रोध, लोभ, मोह) हट जाती है। तानसेन तथा श्रीगोविन्दस्वामी और हरिदासस्वामी के संगीत में यही अन्तर था। एक में बौद्धिक आनन्द था तो दूसरे में आत्मिक आनन्द । कला को साध्य न मानकर अन्तिम लक्ष्य (उस परम तत्त्व की प्राप्ति) की प्राप्ति का साधन माना है। साथ ही अभिव्यक्ति के माध्यम अथवा साधन के रूप में भी भारतीय विचारक कला को स्वीकारते हैं। इस प्रकार भारतीय तथा पाश्चात्य विचारधाराओं में भिन्नता पाई जाती है।