भारतीय दृष्टिकोण
केवल कला ही नहीं, सम्पूर्ण जीवन के प्रति भी भारतीय दृष्टिकोण पाश्चात्य दृष्टिकोण से सदा से भिन्न रहा है। इस भिन्नता का कारण है, अन्तःकरण की भिन्नता । पाश्चात्य लोग कलाकार पहले हैं व दार्शनिक बाद में। वे हर वस्तु, विचार को बौद्धिक अथवा वैज्ञानिक रूप से आंकते हैं। वे स्कूल के आधार पर सूक्ष्म की खोज करते हैं, जबकि भारतीय विचारधारा सूक्ष्म की तह तक जाकर स्थूल की ओर लौटती है। भारत चू' कि हमेशा से अध्यात्म व धर्म प्रधान देश रहा है, अतः आत्मिक सुख व आत्मा को पहचानने पर विशेष महत्त्व दिया है। अतः कला के प्रति दृष्टिकोण भी अध्यात्म से ओत-प्रोत होना स्वाभाविक है। यहाँ कलाम्रों का दृष्टिकोण 'अन्तिम लक्ष्य' (आत्मबोध या आत्मलीन) की प्राप्ति है और पद्धति धार्मिक व दार्शनिक है। इसके विपरीत पाश्चात्य में दृष्टिकोण उपयोगितावादी और पद्धति भौतिक-वैज्ञानिक है। भारतीय कलाओं में, आत्मा का परमात्मा से मिलने की इच्छा से जीवन स्पंदित होता है। कलाकार कृति के सहारेसांसारिकता से परे आध्यात्मिक सुख व शांति का आनन्द प्राप्त करता है। कलाएँ मानव को मोक्ष प्रदान करती हैं। मानव जीवन के चार पुरुषार्य हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। इनमें अर्थ व काम निम्न श्रेणी के हैं तथा धर्म व मोक्ष उच्च श्रेणी के। कलाएँ इन्हीं की ओर उन्मुख हैं।
बुद्धि से सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता, इसलिए अनुभूति को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है और यह अनुभूति कलाओं के द्वारा होती है। उस परमतत्त्व की खोज और उसका दर्शन ही भारतीय विचारधारा का मूल रहा है। यही कारण है कि सभी कलाएँ, विद्याएँ, शास्त्र उसी (सच्चिदानंद, ब्रह्म, परमात्मा, आत्मा, चैतन्य आदि नामों से अभिहित) एक परमतत्त्व की ओर अग्रसर हैं। सभी कलाएँ आत्म-साक्षात्कार की साधन हैं। यही कारण है कि प्राचीन समय से ही कलाओं और धर्म (ईश्वर) में गठबन्धन रहा है। वास्तुकला के सुन्दरतम नमूने मन्दिरों के रूप में प्राप्त हैं। मूर्ति तथा चित्रकला में देवी-देवता अथवा महापुरुषों का बाहुल्य रहा है। अनेकों काव्य ईश्वरो- पासना अथवा भक्ति प्रधान हैं। इसी प्रकार संगीत की तो उत्पत्ति ही शिव व सरस्वती आदि से मानी जाती है। उसका प्रयोग हमेशा ईश्वरस्तुति, मंत्रों तथा भक्तिगायन में होता था, नृत्य सबसे पहले मन्दिरों में ही होता था ।
भारतीय विचारधारा के अनुसार कला प्रकृति के बहुत निकट रहती है, परन्तु दृश्यमान जगत सदा सत्य नहीं होता, अतः बाह्य आवरण को भेदकर मूल रूप को प्राप्त करना ही कला का कार्य है। कला का ध्येय है, निस्सीम को प्राप्त करना। चाहे पत्थरों पर खुदाई हो अथवा तूलिका से बना चित्र, अथवा संगीत के स्वरों की साधना या साहित्यिक प्रतीकों का आश्रय, भारतीय कला में सर्वदा सत्य का दर्शन करने का प्रयत्न रहता है।