कला के आदर्श
कला के आदर्श से तात्पर्य है कला के नियम, तत्त्व, उसका महत्त्व एवं प्रयोजन आदि । कला की जो आवश्यक शर्ते जैसे कला का प्रभावकारी होना, अनुभूति एवं अभिव्यक्ति करना, सौन्दर्ययुक्त होना आदि के निर्वाह में संगीत कहां तक सफल हुआ है? विभिन्न विचारकों ने कला के अनेक प्रयोजन बताए हैं, संगीत उनमें से कितने प्रयोजनों की पूति में समक्ष है? एक आदर्श कला की आवश्यक शर्तों की पूर्ति संगीत कितनी मात्रा में तथा किस प्रकार करता है, इन सभी बातों का विश्लेषण तथा विवेचन इस अध्याय में करेंगे ।
कला के प्रमुख तत्त्व तथा संगीत
संगीत को जब हम एक उच्च श्रेणी की कला कहते हैं तो यह प्रश्न उठता है कि संगीत क्यों एक श्रेष्ठ कला है? अथवा संगीत को कला का दर्जा क्यों दिया जाय ? किसी भी कला को कला कहलाने के लिए यह जरूरी है कि उसमें कला के प्रमुख तत्त्व मौजूद हों। किसी भी कला में रूप, प्रमाण, भाव, लावण्य, उपमा, विचार, ध्यान, कल्पना, आध्यात्मिकता, प्रकृति आदि का होना आवश्यक है। संगीत में इन तत्त्वों की स्थिति निम्न है-
(1) रूप (Form) - जिस प्रकार अन्य कलाओं में कृति के लिए निश्चित आकार-रूप होता है जैसे मन्दिर हो या मस्जिद, इनका एक निश्चित एवं मूल रूप होता है अथवा काव्य में दोहा, सोरठा आदि का मात्रानुसार रूप होता है। इसी तरह संगीत में हर राग का अपना एक निश्चित रूपहोता है। राग के वादी-संवादी विवादी स्वर, उत्तरांग पूर्वांग की प्रधानता, उसका चलन सीधा अथवा वक्रत्व लिए है आदि बातें राग को एक निश्चित रूप प्रदान करती हैं। इसी रूप के कारण हम सुनकर रागों को पहचानते हैं कि प्रस्तुत राग यमन है अथवा बिहाग है। रागों के अलावा हिन्दुस्तानी संगीत में तालों का भी निश्वित रूप होता है जो उन्हें मात्रा, विभाजन तथा बोलों के द्वारा प्राप्त होता है।
(2) प्रमाण-कोई भी कृति उत्कृष्ट तव कहलाती है, जब उसके विभिन्न आयामों, अंगों, रंगों तथा तत्त्वों में समुचित प्रमाण हो। इन सभी के उचित प्रमाणपूर्ण मिश्रण से ही कृति में सौन्दर्य पैदा होता है। संगीत में प्रमाण का विशेष महत्त्व है। राग में प्रयुक्त होने वाले स्वरों का प्रमाण होता है जो अल्पत्व, बहुत्व द्वारा निभाया जाता है। स्वर-प्रमाण के बदलने से राग भी बदल जाता है, जैसे मारवा तथा पूरिया। इसी प्रकार सा म, सा प तथा सा ग, संवाद का ग्राधार भी प्रमाण है। राग प्रस्तुतीकरण में आलाप तानों का समुचित प्रमाण में प्रयोग किया जाता है।
(3) भाव - कला का एक प्रमुख तत्त्व है, भाव की अभिव्यक्ति तथा भाव की उत्पत्ति । संगीत में गायक, वादक अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है और कृति के माध्यम से स्वर लहरी द्वारा श्रोताओं को आत्मविभोर कर उनके अन्तनिहित भावों को जागृत करते हुए आनन्द की अनुभूति कराता है। भावों की अभिव्यक्ति का संगीत एक सशक्त माध्यम है और इसका प्रभाव श्रोता पर तत्काल पड़ता है। संगीत में विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति व उन भावों के रसों की निष्पत्ति के अनुकूल प्रबन्ध रचनाएँ, रागें, ताल तथा वाद्य उपलब्ध हैं ।
(4) लावण्य - लावण्य कला का ओज है। इसे हम सौन्दर्य कह सकते हैं। इसके बिना कला अधूरी रहती है। संगीत में लावण्य, मींड, व.ण, स्वर को छोड़ने का तरीका, छोटे-छोटे स्वरगुच्छ, स्वर को आन्दोलित करना आदि द्वारा पैदा किया जाता है। वादन में घसीट जमजमा, कृन्तन तथा तरव के तारों को छेड़कर सौन्दर्य पैदा किया जाता है। इसके अतिरिक्त ताल द्वारा (दुगुन, तिगुन, तिहाइयां आदि), बंदिश द्वारा, तान आलाप द्वारा सौन्दर्य पैदा किया जाता है।