कला के आदर्श : भाग २

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कला-आदर्श

कला के आदर्श 


 (5) सादृश्यता- कुछ समान तत्त्वों का एक से अधिक वस्तु में विद्यमान होना ही सादृश्यता है। संगीत में अनेक बंदिशें अलग-अलग रूप लिए होने पर भी उनमें कुछ रागत्व की सादृश्यता होती है, जिसके कारण ही वे एक राग में आती हैं। रागांग भी सादृश्यता का एक उत्तम उदाहरण है। एकरागांग भिन्न रागों में होने पर उनमें सादृश्यता पैदा करता है। चतुविध वाद्यों का वर्गीकरण भी सादृश्यता पर आधारित है।


(6) उत्कृष्टता - ललित कला का एक आवश्यक तत्त्व है, कृति की

उत्कृष्टता। संगीत में भी उत्कृष्टता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यही कारण है कि गायक अथवा वादक साधना और अभ्यास को बहुत महत्त्व देते हैं और इसी अभ्यास के परिणामस्वरूप वे अपनी कृति को उत्कृष्ट बना पाते हैं। इसके अतिरिक्त कृति की उत्कृष्टता के लिए वे कल्पना द्वारा उसे सजाते हैं और विभिन्न अलंकरणों (तान, आलाप, मींड, कण, आन्दोलन, गमक, गिटकड़ी, जमजमा आदि) का प्रयोग करते हैं। गायक या वादक जब स्वयं को, कुशलता पूर्वक अपनो कृति को उत्कृष्ट रूप देने में समर्थ पाता है, तभी उसे प्रस्तुत करता है। यह अन्तर एक साधारण तथा उच्च कोटि के गायक वादक में देखा जा सकता है। इस अन्तर का कारण है कृति का कम व अधिक उत्कृष्ट होना ।


(7) विचार-कोई भी कला हो कलाकार को अपने मस्तिष्क में क्या बनाना है, यह विचार अथवा उसका प्रत्यय स्पष्ट रूप से लाना होता है। संगीत में गायक अथवा वादक, जो राग प्रस्तुत करना होता है, उसकी स्पष्ट अवधारणा वह अपने मस्तिष्क में करता है। स्पष्ट व स्थिर विचार की आवश्यकता के कारण ही रागों के 'रागध्यान' रचे गये। इन्हीं की सहायता से गायक वादक मस्तिष्क में राग का स्वरूप (concept) स्पष्ट रूप से लाते थे और तब राग की उत्कृष्ट अवतारणा करते थे। इसके अलावा प्रस्तुति के पूर्व कौनसा राग, बन्दिश, किस ताल में प्रस्तुत करना है, कितने समय में पूर्ण कृति प्रस्तुत करनी है, श्रोता किस तरह के हैं, इन सभी बातों पर पूर्ण विचार किया जाता है, तभी प्रस्तुति सफल रूप धारण करती है।


(8) ध्यान कला चाहे कोई भी हो, कृति बनाते समय ध्यान का एकाग्र होना जरूरी होता है। इसीलिए, कलाओं को चित्त एकाग्र करने का साधन माना गया है। संगीत में ध्यान का अपना महत्त्व है। चूंकि संगीत में कृति पहले से तैयार नहीं होती है वरना उसी समय (श्रोताओं के सम्मुख) तैयार होती है, अतः राग का स्वरूप, बंदिश, ताल, सौन्दर्य स्थल आदि सही रहें, इसके लिए गायक वादक को ध्यान अपनी कृति में ही केन्द्रित करना होता है। जरा ध्यान बंटने से कोई वर्जित स्वर लग सकता है अथवा ताल छूट सकती है अथवा सौन्दर्योत्पादक व प्रभावित करने वाले स्वर समुदायों की रचना नहीं हो पाएगी। संगीत में ध्यान का महत्त्व श्रोता के लिए भी है। विना ध्यान से सुने संगीत का आनन्द नहीं लिया जा सकता ।


(9) काना-कला को, नवीनता लाने तथा सौन्दर्य प्रदान करने के लिए कल्पना का विशेष महत्त्व है। संगीत में कल्पना का अपना महत्त्व है। बंदिश के अतिरिक्त जो भी गायकी है, अथवा वाद्य-संगीत में जो भी गत है उसके अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रस्तुति कल्पना का चमत्कार होता है। बोल-आलाप, तानें, दुगुन, तिगुन, तिहाइयाँ, उपज, जोडअलाप, झाला; घसीट आदि सब कलाकार की कल्पना की उपज होते हैं। यही कारण है हमारा कोई राग कभी पुराना नहीं होता। एक ही बंदिश को विभिन्न गायक विभिन्न समय पर अपनी कल्पना के बलबूते पर नवीनता प्रदान करते रहते हैं।


(10) प्रकृति सभी कलाओं में किसी-न-किसी रूप में प्रकृति से साम्य पैदा किया जाता है, उसका वर्णन किया जाता है। संगीत भी प्रकृति से जुड़ा है। मौसम के अनुरूप राग जैसे बसंत, बहार, मल्हार के प्रकार आदि है। इसके अतिरिक्त बंदिशों में बादल गरजना, बिजली चमकना, फूलों का खिलना, पपीहे अथवा कोयल का बोलना आदि का 'वर्णन भी उपलब्ध है। इतना ही नहीं, प्राचीन समय में तो प्रकृति को संगीत द्वारा प्रभावित भी किया जाता था, राग विशेष गाकर वर्षा कराना अथवा पत्थर पिघलाना आदि । राग का समय सिद्धान्त भी प्रकृति के अनुरूप है। प्रातः व सायं का समय पूजा, अर्चना, वंदना का होता है अतः करुण रस प्रधान राग गाये जाते हैं।


(11) प्रतीकबाद-कला में सौन्दर्य पैदा करने के लिए विभिन्न प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। जैसे देवी देवताओं को विद्या-धन-यल का प्रतीक माना जाता है। संगीत में रागों के प्रतीक हैं रागचित्र। इसके अतिरिक्त रागांग राग विशेष के प्रतीक हैं। समय-समय पर स्वरों व रागों को विभिन्न भावों व रसों का प्रतीक माना गया है। विभिन्न तालों के नाम उनकी लय के प्रतीक हैं। कोयल, चातक, मेंढ़क आदि पशुपक्षी की आवाजों को भिन्न स्वरों के प्रतीक रूप में माना जाता था। इस प्रकार संगीत में प्रतीकबाद का निर्वाह अनेक रूपों में किया जाता है।


(12) आध्यात्मिकता समस्त भारतीय कलाओं का मूल विषय परमे- श्वर रहा है। वास्तु, मूति, चित्र सभी कलाएँ मुख्य रूप से अध्यात्म की ओर उन्मुख हैं, फिर संगीत कला इसका अपवाद कैसे हो सकती है ? संगीत के लिए तो यहाँ तक कहा जाता है कि ईश्वर प्राप्ति का सर्वाधिक सरल मार्ग जो कि 'भक्तिमार्ग' अथवा 'भक्तियोग' के नाम से अभिहित है वह संगीतमय है। संगीत का प्रमुख निवास वहीं था, है और रहगा। ईश्वर को प्रसन्नकरने, उसकी वंदना-उपासना करने, मंत्रों द्वारा देवता का आह्वान करने आदि सभी में संगीत का प्रयोग होता रहा है। शास्त्रीय संगीत में भी अनेक ध्रुवपद, धमार, ख्याल आदि ईश्वर पर आधारित हैं। स्वर साधना योग की प्रथम सीढ़ी है। त्यागराज, हरिदास, पुरंदरदास, मीरा आदि ने संगीत के माध्यम से ही ईश्वर से साक्षात्कार किया है।


(13) शैली- समय व स्थान के परिवर्तन के कारण प्रत्येक कला, जो भिन्नता प्राप्त करती है उसी से नवीन शैली का जन्म होता है। कुछ समान- ताएँ अथवा प्रस्तुतिकरण का निश्चित तरीका किसी शैली का सूचक होता है। इसी आधार पर हम कोई भी चित्र अथवा मूर्ति अथवा भवन को देख- कर सिधु शैली, अजन्ता शैली अथवा राजपूत शैली अथवा मुगल शैली की पहचान करते हैं। संगीत में प्रस्तुति के आधार पर विभिन्न शैलियाँ पाई जाती हैं। कण्ठ संगीत में विभिन्न घराने, शैली के ही प्रतीक हैं। इसके अतिरिक्त ध्रुवपद गायन शैली, ख्याल गायन, टप्पा गायन आदि विभिन्न शैलियाँ हैं। नृत्य में मणिपुरी, कुचिपुड़ी, भरतनाट्यम, कथक आदि नृत्य की विभिन्न शैलियाँ हैं। वाद्यों में हमें बाज के रूप में भिन्न शैलियाँ मिलती हैं। समय की माँग व समय परिवर्तन के साथ इनमें परिवर्तन होता है व नवीन शैलियों का जन्म भी होता है।


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