कला के उद्देश्य एवं संगीत
ऊपर हमने कला के विभिन्न तत्त्वों की उपस्थिति संगीत में देखी। केवल तत्त्वों का होना ही कला नहीं है, किसी भी कला को, कला के उद्देश्यों की पूर्ति में भी सक्षम होना चाहिए। भारतीय विचारकों के अनुसार मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। उन्हीं की प्राप्ति का प्रयत्न मनुष्य करता है अतः कला द्वारा इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होनी चाहिए । पाश्चात्य विचारकों ने कला के जितने भी उद्देश्य बताए हैं वे सब इन्हीं चार पुरुषार्थों के अन्तर्गत ही आते हैं।
(1) धर्म- इसके अन्तर्गत हम कला जीवन के लिए, कला सेवा के लिए आदि उद्देश्यों को रख सकते हैं। संगीत द्वारा इन सबकी पूर्ति होती है। कला जीवन के लिए अर्थात् उपयोगी है । संगीत द्वारा मनुष्य को उत्साह, प्रेम आदि का सन्देश मिलता है। राष्ट्रीय गीतों द्वारा देशप्रेम की भावना का विकास होता है, तो श्रमगीतों के द्वारा उत्साह प्राप्त होता है और थकान नहीं होती। अनेक रागों की चिकित्सा में सहायता देकर संगीत सेवा का उद्देश्य भी पूरा करता है। यह मनुष्यों को चिताओं से मुक्त करता है। ईश्वरोपासना चाहे किसी धर्म में हो,हिन्दू, मुसलमान, इसाई, निर्गुण-सगुण कोई भी पंथ हो, उस एक शक्ति की उपासना का तरीका संगीतमय ही है। इनके भिन्न रूप आरती, भजन, कव्वाली, प्रेयर, गुरुवाणी आदि देखने को मिलते हैं। इस स्तुति-भक्ति के समय व्यक्ति छल, कपट, झूठ, अहंकार, लोभ, क्रोध आदि दुर्गुणों से ऊपर उठ जाता है। उसकी वासनाओं का, दुविचारों का अन्त हो जाता है, यही विरेचन है।
(2) अर्थ- कला का एक कार्य है कि वह व्यक्ति को अर्थ प्राप्ति में सहायता दे। संगीत का प्रयोग इस ओर वैदिक काल से होता चला आ रहा है। सूत, शैलूज व नट इसी प्रकार के लोग थे जो अर्थ प्राप्ति के लिए संगीत का उपयोग करते थे। उसके बाद राज-दरबारों में आश्रय प्राप्त गायक-वादक- नर्तक अपनी कला का मूल्य पाते थे। इसके अलावा डोली, लंगा, मिरासी आदि प्रकार की अलग-अलग स्थानों पर अनेक जातियाँ रहीं, जिनके जीवन- यापन का साधन संगीत रहा। आधुनिक समय में भी कलाकार गायक-वादक- नर्तक कोई भी हो, अपनी प्रस्तुति के बदले अर्थ प्राप्त करते हैं। यह प्रस्तुति रेडियो अथवा टी.वी. पर हो, किसी आयोजित सभा में हो अथवा किसी पर्व पर हो। आज भी अनेक जातियाँ हैं जो अपना जीवन व्यापन संगीत के द्वारा ही करती हैं। बंजारे, ढोली, नटनियाँ, सांसी, लंगा आदि इसी प्रकार की जातियाँ हैं।
(3) काम - कला मनोरंजन के लिए, यश प्राप्ति के लिए, अभिव्यंजना तथा संप्रेषण के लिए आदि उद्देश्य काम पुरुषार्थ के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं। संगीत इन सभी की पूति में सक्षम है। विशुद्ध मनोरंजन संगीत की स्वर-लहरी से तुरन्त व सर्वाधिक सरल तरीके से प्राप्त होता है। यह संगीत चाहे लोकगीत अथवा नृत्य हों अथवा फिल्म संगीत हो या शास्त्रीय अथवा उपशास्त्रीय सभी से अपनी रुचिनुसार मनोरंजन संभव है। वैदिक काल में गाथागान, वर्तुलाकार नृत्य आदि के रूप में मनोरंजन होता था तो उसके बाद के काल में राजमहलों में संगीत के आयामों (नृत्य, वीणा वादन, मुजरे) का प्रयोग केवल आराम तथा मनोरंजन के लिए था । यश अथवा प्रसिद्धि ऐसा अमृत है, जिसे हर कोई पीना चाहता है। गायक वादक संगीत द्वारा इसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और प्राप्त भी करते हैं। यही कारण है कि कई गायक अपने कार्यक्रम में अपने गले की तैयारी के प्रयोग प्रस्तुत करते हैं, जिससे वह वाह वाह लूट सकें। इस वाह को सुनने की चाह के लिए बुद्धि को चमत्कृत करने वाली गायकी पेश करते हैं। यही कारण है कि आज के युग में त्यागराज, हरिदास, मीरा, सूर जैसी भाव-प्रधान गायकी सुनने को नहीं मिलती । संगीत से संप्रेषण संभव है, भावों की अभिव्यक्ति व श्रोताओं में उस भाव की जागृति संगीत के द्वारा की जाती है, भजन, आरती, भक्ति का भाव, राष्ट्रीय गीत तथा मार्च धुनें, वीरता का भाव आदि जगाते हैं। संप्रेषण को अधिकाधिक सफल बनाने के लिए गायक वादक श्रोताओं के स्तर को ध्यान में रखते हुए अपनी कृति प्रस्तुत करते हैं, जिससे वे उसे समझ सकें ।
(4) मोक्ष- मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, अतः स्वा-भाविक है कि कलाओं को इस लक्ष्य पूर्ति में सहायक होना चाहिए। संगीत इस कसौटी पर खरा उतरता है। भगवान् कृष्ण द्वारा बताए गये मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में एक है 'भक्ति योग'। इस भक्ति का साधन है, संगीत । इसके अलावा नादब्रह्म की उपासना, साधना ही ईश्वर उपासना है। संगीत द्वारा आनन्द प्राप्ति का उद्देश्य भी प्राप्त किया जाता है। संगीत से प्राप्त होने वाला आनन्द पारलौकिक है, जिसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया है। गायक, वादक व नर्तक अपनी कला में इतने लीन व भाव-विभोर हो जाते हैं कि इस संसार व अपने आप को भूल जाते हैं, आनंदश्रु बहाने लगते हैं। यही स्थिति उस अलौकिक आनन्द की है। त्यागराज, विष्णुदिगम्बर, हरिदास, सूर, मीरा आदि ऐसे आनन्द में डूब जाते थे। इनमें ईश्वर प्रेम की भावना इतनी प्रवल थी कि वह संगीत के माध्यम से फूट पड़ती थी।
उपरोक्त विश्लेषण से ज्ञात होता है कि कला के उद्देश्य चाहे पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार हों अथवा भारतीय विचारधारा के, संगीत उन सबकी पूर्ति करने में समर्थ है। वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों का साधन है। इसी प्रकार कला के सभी आवश्यक तत्त्व संगीत में विद्यमान हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि संगीत एक आदर्श कला है, उच्च कोटि की कला है व श्रेष्ठ कला है।