संगीत में सौन्दर्योत्पत्ति

0


 संगीत में सौन्दर्योत्पत्ति


प्रत्येक कला में सौन्दर्य पैदा करने के लिए कुछ साधनों का प्रयोग किया जाता है। जहाँ काव्य में उपमा, भाषा, छन्द, अलंकार आदि अनेक माध्यमों का प्रयोग होता है, वहीं चित्रकला में दृश्यों, रंगों व अनेक प्रकार की सजावट की जाती हैं। स्थापत्य में खुदाई, कटाई, मीनाकारी, नक्काशी आदि द्वारा सौन्दर्य पैदा किया जाता है। अतः स्पष्ट है कि संगीत में भी सौन्दर्योत्पत्ति के कुछ साधन, माध्यम अवश्य होंगे। संगीत जगत के इस लेख में हम उन्हीं साधनों का अध्ययन करेंगे जिनके द्वारा संगीत में सौन्दर्य पैदा किया जाता है। एक कलाकार अपनी कृति में किस प्रकार स्वर, अलंकार, लय, रचना आदि के माध्यम से सौंदर्य पैदा करता है, इसका विश्लेषण हम यहां करेंगे ।


          हिन्दुस्तानी संगीत में राग का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण उसे 'रागदारी संगीत' भी कहा जाता है। अतः राग की प्रस्तुति में किन - किन तत्त्वों के द्वारा सौन्दर्य भरा जा सकता है, यही मुख्य तथ्य है। प्रत्येक राग का अपना व्यक्तित्व व सौन्दर्य होता है, उसे बनाए रखने में, राग के दस लक्षणों का प्रयोग, उसकी प्रकृति के अनुरूप अलंकारों (मींड, गमक, खटके, कण, घसीट, जमजमा आदि) का प्रयोग; आलाप तान, उसके वादी संवादी विवादी स्वर, आदि अनेक  का प्रयोग किया जाता है। इन तत्त्वों के अतिरिक्त कुछ विचारक संगीत में सौन्दर्य को उसकी गतिशीलता में देखते हैं। यहां हम उन सभी बिन्दुओं का उल्लेख करेंगे, जिनके द्वारा संगीत में सौन्दर्योत्पत्ति में सहायता मिलती है। सौन्दर्योत्पत्ति के कुछ आधार निम्न है-


(1) राग के दस लक्षण विकास की दृष्टि से राग को जाति का ही विकसित रूप माना जा सकता है। इसीलिए भरत द्वारा बताए गये जाति लक्षणों को ही राग के प्रमुख लक्षणों के रूप में स्वीकारा गया है। ये लक्षण - ग्रह, अंग, तार-मन्द्र, न्यास, अपन्यास, अल्पत्व, बहुत्व, औड़व तथा षाड़व हैं । ये दस लक्षण राग में किस प्रकार सौन्दर्य निर्मिति में सहायता करते हैं, उनके योगदान को हम निम्न रूपों में पाते हैं-ग्रह स्वर- जिस स्वर से गायन वादन आरम्भ किया जाता है, उसे ग्रह स्वर कहा जाता है। ये तो आधुनिक समय में षड़ज को ही प्रत्येक राग का प्रारम्भक स्वर माना जाता है, तथापि कुछ रागों में षड़ज से भिन्न स्वर प्रारम्भक स्वर के स्वरूप में प्राप्त होते हैं तथा ये ही स्वर उस राग का सौन्दर्य होते हैं। इसके कुछ उदाहरण हम दे सकते हैं-


(i) आलाप तान का प्रारम्भक स्वर जैसे बिहाग में सा ग म के स्थान पर नि सा ग म लेना। इसी प्रकार कल्याण में सम्पूर्ण होने पर भी सा रे ग म के स्थान पर नि रे ग म लिया जाता है। इन रागों का सौन्दर्य इस प्रकार के उठाव में ही है।


(ii) राग का प्रमुख अंग का आरम्भिक स्वर भी षड़ज से भिन्न होता है जैसे जयजयवंती में ध नि रे ।


अंश स्वर - भरत ने अंश स्वर की व्याख्या में कहा है कि अंश स्वर उसको कहना चाहिए जो राग तथा रंजकता का आवास हो, राग रंग या रस की उत्त्पत्ति में मुख्य अंग अथवा उपकरण हो। अंश स्वर राग का प्राण होते हैं। इनकी संख्या एक से अधिक भी हो सकती है। आज भी हम अनेक रागों में एक से अधिक महत्त्वपूर्ण स्वर पाते हैं, जिनको केन्द्र बिन्दु मानकर आलापचारी की जाती है। जैसे कल्याण, तोडी मालकौंस आदि अनेक ऐसे राग हैं, जिनके अनेक स्वर महत्त्वपूर्ण हैं व उन्हें विश्रांतिस्थान के रूप में काम में लाया जाता है। ये भिन्न विश्रांतिस्थल राग में विविधता व नवीनता द्वारा सौन्दर्य बढ़ाते हैं।


न्यास-अपन्यास - जिस प्रकार भाषा में, विराम चिन्हों का महत्त्व होता है, उसी प्रकार संगीत में न्यास अपन्यास अर्थात् विराम और ठहराव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। रागों का स्वरूप स्वरों के इसी विशेष ठहराव पर निर्भर करता है। देशकार भूपाली, मारवा-पूरिया, ये ऐसे राग हैं, जिनमें स्वर ठहराव भिन्न हैं और इसी में इनका व्यक्तित्व व सौन्दर्य निहित है।


तार-मंद्र - सप्तक के तीन प्रकार मंद्र, मध्य तथा तार हैं। समान-स्वर समुदाय इन स्थान भेदों के कारण भिन्न प्रभाव पैदा करते हैं। इन सप्तकों का सम्बन्ध लय से जोड़ा गया है। मंद्र को विलम्बित लय से, मध्य को मध्यलय से, तथा तार को द्रुतलय से संबंधित किया गया है। इसी प्रकार राग की प्रकृति का सम्बन्ध भी तार मंद्र से होता है। जैसे मारवा दरबारी कानडा आदि रागों की प्रकृति गम्भीर है, अतः इन रागों में स्वर विस्तार मंद्र सप्तक में किया जाता है और मंद्र सप्तक में ही ये राग सुन्दर लगते हैं। इसी प्रकार चंचल प्रकृति के राग बहार, बसंत आदि तार सप्तक में गाये जाते हैं व सुन्दर लगते हैं।


अल्पत्व-बहुत्व - राग में किसी स्वर का प्रयोग बहुतायत में हो तो

बहुत्व तथा कम मात्रा में होने पर अल्पत्व कहलाता है। बहुत को अलंघन तथा अभ्यास द्वारा दिखाया जाता है। यह अभ्यास आन्दोलन द्वारा दिखाया जाता है। जैसे- दरबारी का गंधार तथा भैरव के रिषभ, धैवत । इन स्वरों को आन्दोलित करने में ही राग का सौन्दर्य है। इसी प्रकार किसी स्वर को छोड़ दिया जाय अथवा मनाक् स्पर्श वक्र रूप में हो तब उसे लंघन (छोड़ देना) अनभ्यास (स्पर्श मात्र) अल्पत्व कहा जाता है। जैसे- मारवा में रे ध का बहुत्व तथा ग नि का अल्पत्व है और पूरिया में ग नि का बहुत्व तथा रे ध का अल्पत्व है। इन रागों का स्वरूप सौन्दर्य इन स्वरों के अल्पत्व बहुत्व पर ही निर्भर करता है।


        ओड़व-षाड़व- ये शब्द राग में लगने वाले स्वरों की संख्या के सूचक हैं। 5 स्वर युक्त राग औड़व तथा 6 स्वरों से युक्त राग षाड़व कहलाते हैं। औड़व जाति के स्वरों का अन्तराल बड़ा होता है, इस प्रकार के अन्तरालयुक्त रागों का अपना सौन्दर्य होता है। जैसे- हिण्डोल, मालकौंस आदि। इन रागों का सौन्दर्य उसमें न लगने वाले स्वरों को वर्ज्य करके गाने में ही है।


संगीत जगत ई-जर्नल आपके लिए ऐसी कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ लेके आ रहा है। हमसे फ्री में जुड़ने के लिए नीचे दिए गए सोशल मीडिया बटन पर क्लिक करके अभी जॉईन कीजिए।

संगीत की हर परीक्षा में आनेवाले महत्वपूर्ण विषयोंका विस्तृत विवेचन
WhatsApp GroupJoin Now
Telegram GroupJoin Now
Please Follow on FacebookFacebook
Please Follow on InstagramInstagram
Please Subscribe on YouTubeYouTube

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top