कला का अर्थ
भाग ३
कला के तत्त्व
जब हम किसी कार्य को कला की श्रेणी में रखते हैं तब उस कार्य को पहले आंकते हैं। उसमें कुछ बातों का होना जरूरी होता है जो उसे कला कहलाने के योग्य बनाती है। ये ही कला के तत्त्व हैं। हर कला में इन तत्त्वों का होना जरूरी है। ये तत्त्व कौन-कौनसे हैं, इस विषय पर मामूली विचार भेद के होने पर भी मूलतत्त्व लगभग सभी द्वारा स्वीकार्य हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कला के निम्न तत्त्व बताये हैं:-
(1) रूप या आकार (Form) - मूर्ति, चित्र, संगीत, चाहे जो कला हो, उसकी कृति का एक निश्चित रूप या आकार होना चाहिए। क्या बनाया है, यह उसे देखते ही ज्ञात हो जाना जाहिए। जिस प्रकार स्थापत्य कला में मन्दिर का रूप गोल गुम्बद, कलश आदि से युक्त होता है तो मस्जिद में मीनारों से । अतः कृति में रूप व आकार मर्यादानुकूल होना चाहिये ।
(2) प्रमाण (Proportion) - रूप तथा आकार के अनुकूल सभी घटकों व आयामों में प्रमाण का ध्यान रखा जाना चाहिए। जिस प्रकार बच्चे के चित्र अथवा मूर्ति में उसके अंगों का प्रमाणानुसार होना जरूरी है। जैसे धड़ छोटा हो और सिर बड़ा हो अथवा मुख पर नेत्र अधिक बड़े हों तो कृति न सुन्दर बनेगी न स्वाभाविक । इसी प्रकार काव्य में मात्रा, छन्द, अलंकारों आदि का सप्रमाण ही प्रयोग होना चाहिए ।
(3) भाव (Feeling) - जैसा कि परिभाषाओं से ज्ञात होता है कि कला भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है अतः यह आवश्यक है कि जिस भाव को लेकर कृति बनी हो उसके द्वारा वह भाव स्पष्ट होना चाहिए। मूर्ति, चित्र आदि में हास्य, रोष, वीरता आदि के भावों को स्पष्ट होना चाहिए, तभी कृति सजीव प्रतीत होती है।
(4) लावण्य (Quality) - यह कला का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। रूप, प्रमाण व भाव द्वारा कृति में लावण्य पैदा किया जाता है। समान सामग्री के उपरान्त भी भिन्न कलाकार की कृति भिन्न होती है। एक को देखते ही हम वाह कर उठते हैं, यही लावण्य है, यही सौन्दर्य है। यही लावण्य सम्पूर्ण कला का ओज एवं कलाभिव्यक्ति का आकर्षण है।
(5) सादृश्य या उपमा (Example) - कला में सौन्दर्य पैदा करने का एक विशेष माध्यम है- उपमा। काव्य में तो उपमा प्राण है- मृगनयनी, चरणकमल, श्वेतधवल आदि असंख्य उपमाएँ हैं। चित्र व मूर्तिकला में भी उपमाएँ मिलती हैं, जैसे- पतझड़ का दृश्य शोकसूचक, लाल रंग क्रोध का, श्वेत रंग शांति का सूचक होता है। इनके द्वारा कला को अधिक सुन्दर बनाया जाता है।
उपरोक्त तत्त्वों से थोड़ी-सी भिन्नता के साथ, एस. एन. गुप्ता ने भी कला के कुछ तत्त्व अथवा सिद्धान्त बताए हैं। उनके अनुसार किसी भी कला में निम्न तत्त्वों का होना जरूरी है:-
(1) विचार करना (Conception) - कलाकार के मन में सबसे पहले कोई विचार होता है। यह विचार किसी घटना के परिणामस्वरूप भी पैदा हो सकता है। अपने मस्तिष्क में स्थित उसी विचार को वह कलाकृति के रूप में मूर्त रूप प्रदान करता है। कृति की धारणा उसके मस्तिष्क में स्पष्ट होनी जरूरी है। क्या बनाना है अथवा चित्रित करना है अथवा गाना है, यही विचार यदि उसके मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं होगा तो वह न चित्र बना सकता है, न गा सकता है।
(2) ध्यान (Meditation) - कलाकार को अपने विचार को साकार रूप देने के लिए उस पर ध्यान केन्द्रित करना, उस पर चिंतन-मनन करना बहुत जरूरी है। एकचित्त हुए बिना न वह नवीन कल्पना कर सकता है और न ही उसे प्रस्तुत कर सकता है। मूर्ति अथवा चित्रकला में ध्यान विचलन से छैनी-हथौड़ा अथवा तूलिका पर हाथ फिसलने से कृति खण्डित हो सकती है, बिगड़ सकती है। अतः कृति बनाते समय ध्यान की एकाग्रता व उसी का मनन आवश्यक है। यही कारण है कि शिल्पी या चित्रकार कृति बनाते समय अपने विचारों में खोए रहते हैं। इस प्रकार के ध्यान व मनन से युक्त कृति ही सौन्दर्यमयी होती है और भाव-सम्प्रेषण में सफल होती है।
(3) कल्पना (Imagination) - कल्पना के बिना कला का अस्तित्व नहीं है। कल्पना ही वह माध्यम है जिसके द्वारा कला सदा नवीन रूप धारण करती है। पुराने भवन निर्माण व आधुनिक भवन निर्माण, प्राचीन चित्र शैली व आधुनिक शैली आदि में अन्तर आने का बीज इसी कल्पना में निहित है। एक राग सैकड़ों वर्षों में भी पुरानी नहीं होती, उसका कारण यही कल्पना है जिसके द्वारा हर गायक उसे अपने तरीके से प्रस्तुत कर नवीनता प्रदान करता है। विषय चाहे कलाकार प्रकृति से ले परन्तु प्रस्तुत उसे वह कल्पना से सजाकर ही करता है।
(4) आध्यात्मिकता (Spirituality) - प्राचीन काल से ही भारतीयों के जीवन में धर्म व अध्यात्म की प्रधानता रही है, इसलिए कला का अन्तिम उद्देश्य भी अध्यात्म से जुड़ा है। कला में इतनी शक्ति हो कि वह मनुष्य को अध्यात्म की ओर प्रेरित कर सके। नैतिकता व आध्यात्म विहीन कलाएँ निम्न कोटि की होती हैं। कलाकार स्वयं उस आनंदानुभूति तक पहुंचे जिसे ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है। कला में मनुष्य को मोक्ष मार्ग की ओर उन्मुख करने की शक्ति होनी चाहिए ।
(5) प्रकृति (Nature) - अध्यात्म से जुड़ा होने पर भी कलाकार प्रकृति का सहारा लेता है। प्रकृति की उपमाएँ देता है जैसे मेघ, चाँद, इंद्रधनुष ।इसी प्रकार चित्रकार कभी उदय होते सूर्य की रक्तिम आभा से सुन्दरता भरता है तो कभी अन्धकार में तारों की छटा दिखाता है। ऋतुओं का वर्णन मूर्ति, चित्र, काव्य तथा संगीत आदि सभी कलाओं में मिलता है। अतः चाहे जो कला हो, उसमें कितनी ही कल्पना हो पर प्रकृति की अवहेलना कलाकार नहीं कर सकता। कला में वास्तविकता लाने के लिए प्रकृति का निर्वाह जरूरी है।
(6) प्रतीकवाद (Symbolism) - हर कला में प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। भारतीय कला में किसी-न-किसी रूप में प्रतीकों का अंकन हुआ है। इन प्रतीकों से देवी-देवता भी वंचित नहीं हैं। गणेश को ज्ञान का, लक्ष्मी को धन का, इसी प्रकार लाल रंग क्रोध का, हरा रंग सम्पन्नता का प्रतीक है। संगीत में रागों के प्रतीक हैं राग-ध्यान तथा रागचित्र ।
उपरोक्त तत्त्वों के साथ-साथ कलाकार में कुशलता अथवा दक्षता का होना जरूरी है। एक चित्रकार बिना त्रुटि के, बिना कोई रेखा मिटाए, एक बार में ही किसी का, कोई भी चित्र बना लेता है, जबकि हम सभी ऐसा नहीं कर पाते। कुशलता के परिणामस्वरूप ही एक विद्यार्थी तथा कलाकार गुरु के चित्र अथवा गायन-वादन में अन्तर होता है। अतः अन्य सभी तत्त्वों कल्पना, ध्यान, प्रतीक, भाव, प्रमाण आदि का प्रयोग कुशलतापूर्वक करने पर ही कृति उत्कृष्ट व सुन्दर बनेगी। कलाकार कितना कुशल व दक्ष है, इसका ज्ञान उसकी कृति को देखकर होता है।