पखावज की कुछ प्रमुख परंपराएँ
कोदऊ सिंह अथवा कुदऊ सिंह पखावज के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कलाकार हुए। अधिकांश लोगों के मतानुसार इनका जन्म 1812 में उत्तर प्रदेश के बाँदा शहर में हुआ और निधन 1907 में हुआ था। पखावज वादन की शिक्षा इन्होंने मथुरा के प्रसिद्ध पखावजी भवानी दास से प्राप्त की थी, जिन्हें भवानी सिंह और भवानी दास के नाम से भी जाना जाता है। कुदऊ सिंह झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के दरबार से भी जुड़े थे। इन्हें 'सिंह' की उपाधि भी प्राप्त हुई थी। अपने शिष्यों द्वारा इन्होंने अपनी कला का चतुर्दिक प्रचार-प्रसार किया।
ओजपूर्ण और गंभीर वादन, हथेलियों का प्रयोग, जोरदार, क्लिष्ट और एक-दूसरे से गुँथे हुए वर्णं, जैसे- धड़न्न, तड़न्न, धिलांग, धुमकिट, धेत्ता, तक्का थुंगा इस परंपरा में अधिक प्रयुक्त होते हैं। कोदऊ सिंह के भाई राम सिंह भी श्रेष्ठ पखावजी थे। राम सिंह के पुत्र जानकी प्रसाद, पौत्र गया प्रसाद और प्रपौत्र पंडित अयोध्या प्रसाद श्रेष्ठ पखावजी हुए। अयोध्या प्रसाद के पुत्र पंडित रामजी लाल शर्मा वर्तमान में इस परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
नाना पानसे परंपरा
नाना पानसे ने पखावज वादन की शिक्षा अपने पिता सहित बाबू जोधसिंह, मान्याबा कोड़ीतकर, चौण्डे बुवा, मारतण्ड बुवा और योगीराज माधव स्वामी से प्राप्त करके एक नयी वादन शैली सृजित की जिसे 'पानसे परंपरा' कहा गया। इनकी वादन शैली कर्णप्रिय और मधुर थी। आसानी से द्रुतलय में बजने वाले वर्ण, तबले और कथक नृत्य के वर्षों का समन्वय भी इनकी रचनाओं में दिखता है। सुदर्शन नामक एक नवीन ताल की रचना करने वाले नाना पानसे ने प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर कई तालों के ठेकों का नवीनीकरण किया, हजारों रचनाएँ भी रचीं और सैकड़ों लोगों को पखावज सिखाया। आज महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत में जो पखावज बजाया जा रहा है, वह नाना पानसे और उनके शिष्यों की ही देन है।
नाथद्वारा परंपरा
नाथद्वारा (राजस्थान) की पखावज परंपरा के नाम से इस परंपरा का शुभारंभ सत्रहवीं शताब्दी में तुलसीदास, नरसिंह दास और हालू नामक तीन भाइयों से हुआ। हालू बाद में आमेर आ गए। इस परंपरा में स्वामी, छबील दास, फकीर दास, चंद्रभान, मानजी और रूपराम महान पखावजी हुए। रूपराम के पुत्र वल्लभ दास, 1802 में श्रीनाथद्वारा जाकर बस गए। वल्लभ दास के पुत्र चतुर्भुज, शंकरलाल और खेमलाल हुए। खेमलाल के पुत्र श्यामलाल और शंकरलाल के पुत्र पंडित घनश्याम दास पखावजी महान कलाकार हुए। पंडित घनश्याम दास के पुत्र गुरु पुरुषोत्तम दास ने देश-विदेश में इस परंपरा का प्रचार-प्रसार किया। उनका निधन 21 जनवरी, 1991 को हुआ। इस परंपरा की दो महत्वपूर्ण पुस्तकों मृदंग सागर और मृदंग वादन में अनेक सुंदर बंदिशें संकलित हैं। मिठास, माधुर्य और भक्ति प्रधान रचनाओं का वादन इस परंपरा की विशेषता है। इस परंपरा में 'ता' बायें पर और 'क' दायें पर बजता है। किट, किटी, ता. दीं, ना घिड़नक जैसे वर्षों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है। इस परंपरा की पंचदेव स्तुति परन अत्यंत प्रचलित एवं विख्यात है।