ललित कलाएँ और संगीत

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 ललित कलाएँ और संगीत


               मानव भावनाओं की सुन्दरतम अभिव्यक्ति का साकार रूप ही कला है। जब मानव अपने किसी गुण की अभिव्यक्ति सुन्दर व आकर्षक ढंग से करता है तो उसके उस गुण की अभिव्यक्ति कला का रूप ले लेती है। उस सौन्दर्यमयी कला की सबसे सौन्दर्यमयी विद्या ही 'ललित कला' है। आदि काल से मानव आनन्द की खोज करता आया है और प्रकृति के सौन्दर्य से प्रभावित रहा है। विकास के साथ-साथ मानव की कल्पना, सृष्टि से तादात्म्य स्थापित करती रही और प्रकृति को सुन्दर रूप देने की चेष्टा करने लगी। उसकी इस चेष्टा को अधिकाधिक दिव्य व सौन्दर्यमयी बनाने के लिए ललित कलाओं का जन्म हुआ। ये कलाएँ निम्न रूपों में प्रस्फुटित हुईं ।


(1) भवन निर्माण के रूप में वास्तुकला


(2) भावों को मूर्ति के रूप में प्रतिपन्न करने पर मूर्तिकला


(3) प्रकृति के दृश्यों को चित्रफलक पर उतारने पर चित्रकला


(4) शब्द तथा भाषा के माध्यम से भाव व्यक्त करने पर काव्यकला 


(5) सप्त स्वरों के माध्यम से भाव व्यक्त करने पर संगीत कला ।


              भारत में प्राचीन समय में ललित कला नाम से कला कला का विभाजन नहीं था। 64 कलाओं को चारु तथा कारु नामक प्रकारों में रखा गया था । चौक पूरना, मेंहदी लगाना आदि चारु कलाएँ थीं तो सिलाई, काष्टकारी आदि कारु अथवा उपयोगी कलाएँ थीं। ताश, चौपड़, शतरंज आदि क्रीड़ाओं को भी कला में स्थान प्राप्त था । हीगल ने सर्व प्रथम ललित कला तथा उपयोगी कला नामक विभाजन किया । ललित कलाओं का विस्तृत वर्णन करते हुए हीगल ने कला के तीन वर्ग बताए हैं, ये वर्ग निम्न हैं-


(1) प्रतीकवाद - इसके अन्तर्गत हीगल ने वास्तुकला को रखा। दूर से ही दृष्टि पड़ने पर मन्दिर, मस्जिद अथवा गिरजाघर का भान होता है, जिसका आधार है प्रतीक। इसमें भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं होती है। इसमें स्थूल वस्तुओं को सुडौल आकृतियां दी जाती हैं ।


(2) शास्त्रीय - मूर्तिकला को हीगल ने शास्त्रीय कला के अन्तर्गत रखा है। स्थूल वस्तु को चेतन मन की इच्छा के अनुसार उन्हें भिन्न आकृतियों- मानव, पशु, देवता अथवा अन्य वस्तुओं की आकृति में ढाला जाता है। इसमें वास्तुकला से अधिक भावाभिव्यक्ति की क्षमता है तथापि इसकी अपनी सीमाएँ भी हैं।


(3) रोमानी - किसी वस्तु या शारीरिक आकृति में पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं होती है अतः फलस्वरूप रोमानी कला की सृष्टि हुई। इसका आधार स्थूल पदार्थ न होकर भाव होते हैं। चित्रकला, संगीतकला व काव्यकला ऐसी ही कलाएँ हैं।भौतिक साधनों की आवश्यकताओं के आधार पर इन ललित कलाओं को जो क्रम हीगल ने दिया वह क्रमशः निम्न से उच्च कोटि की ओर है। इस क्रम के अनुसार - वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला तथा काव्य- कला का अपना यही स्थान है। हमारा विषय चू कि संगीत है, अतः हम इन ललित कलाओं में संगीत का क्या स्थान है, इसका विश्लेषण अगले लेख में करेंगे ।


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