पखावज वाद्य की उत्पत्ती

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पखावज-उत्पत्ती

पखावज वाद्य की उत्पत्ती         

                भगवान शंकर ने जब वृतासुर राक्षस का वध किया तो हर्षित होकर तांडव नृत्य करने लगे । यह देखकर भगवान गणेश ने पृथ्वी मे गड्ढा खोदकर उस पर वृतासुर का चर्म आच्छदित करके वादन के द्वारा शंकर के नृत्य की संगीत की। मिट्टी से निर्मित होने के कारण इस वाद्य को मृदंग कहा गया जो आज पखावज नाम से लोकप्रिय है । किंतु यह कथा तार्किक दृष्टि से सही नहीं लगती है। अगर पृथ्वी मे गड्‌ढा खोदकर उस पर चर्म आच्छादित करके वादन किया गया होता तो वह वाद्य एक मुखी होता जैसा पाश्चात्य वाद्य, ड्रम, कांगो आदि होता है। जबकि, पखावज दो मुखी वाद्य है। इसी से मिलती-जुलती एक और कथा भी मिलती है। भगवान शंकर ने जब त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया तो आनंद के अतिरेक में वे नृत्य करने लगे। किंतु वह नृत्य लय में नही था, अतः इससे पृथ्वी डांवाडोल होने लगी। जगत सृष्टा ब्रह्माने जब देखा कि पृथ्वी रसातल में जा रही है तो वे भयभीत हुए और प्रलय टालने हेतु उन्होंने त्रिपुरासुर के शरीर के अवशेष से मृदंग का निर्माण करके शंकर के नृत्य की तालबद्ध संगीत करने के लिए गणेश को प्रेरित किया । गणेश के तालबद्ध संगीत वादन से प्रभावित होकर शंकर भी ताल युक्त नृत्य करने लगे। इस तरह मृदंग और ताल की रचना हुई। यह कथा भी आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य के बैद्धिक तर्क-वितर्क के साथ खरी नहीं उतरती ।


                 पखावज की उत्पत्ति के विषय में बातें करते हुए भरत नाट्य शास्त्र में वर्णित एक कथा का स्मरण बार-बार हो आता है। वह कथा इस प्रकार है एक दिन स्वाति ऋषि पुष्कर तट पर जल लेने गये थे। संयोग से उसी समय वर्षा होने लगी । पुष्कर सरोवर और उसमे फैले भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के कमाल पत्तों और पुष्पों पर आकाश से गिरती जल की बुंदों ने जिन भिन्न-भिन्न ध्वनियों को जन्म दिया, उससे ऋषि को एक सर्वथा नवीन वाद्य के अविष्कार की प्रेरणा मिली। उन्हीं के निर्देश पर विश्वकर्मा ने एक ऐसे अवनद्ध वाद्य का निर्माण किया जो तीन भागों में विभक्त था। एक भाग उर्ध्वमुखी होने के कारण उर्ध्वक कहलाया, जबकि जुड़ा होने के कारण दुसरा भाग उर्ध्वक से आलिंग्य कहलाया । तीसरा भाग बेलनाकार था, जिसे अंक अर्थात गोद में रककर बजाये जाने के कारण आंकिक कहा गया। पुष्कर तटपर मिली प्रेरणा से सर्जित तीन वाद्यों के इस समूह को पुष्करत्रयी या त्रिपुष्कर भी कही गया। उस युग में चूंकि ऐसे अवनद्ध वाद्द्मिट्टी के बनते थे, अतः इन्हें मृदंग भी कहा जाता था। क्योंकी मिट्टी को मृतिकाकहा जाता है। तब मृदंग पखावज के अर्थ में रूढ़ नहीं हुआ था। उस समय मिट्टी के ढाँचेवाले सभी वाद्यों को मृदंग कहा जाता था। भरत नाट्यशास्त्र मे फाव, दुर्दर, मुरज, त्रिपुष्कर और मृदंग का पर्यायवाची रुप में प्रयोग हुआ है। कालिदास ने मृदंग और मर्दल को एक वाद्य माना है तो संगीत रत्नाकर में शांरगदेव ने मुराज, मर्दल और मृदंग को पर्यायवाची लिखा है।

                 प्रस्तर शिल्पों में उत्कीर्ण त्रिपुष्कर वादन की परंपरा ईशा की दो शताब्दी पूर्व से बाद की ९ वी शताब्दी तक मिलती है। ९वी शताब्दी से ही उर्ध्वक और आलिंगय का वादन एक वादक द्वारा तथा आंकिक का दूसरे वादक द्वारा किये जाने के प्रमाण मिलते हैं। यद्दि कहीं-कहीं एक ही वादक द्वारा तीनों वादयों के वादन के दृश्य भी मिलते हैं। किंतु १९ वी शताब्दी से पुष्कर के उर्ध्वक और आलिंगय भाग चित्रांकन नहीं मिलता है। मात्र आंकिक के हि चित्र इस काल में मिलते हैं, जी आधुनिक युग में मृदंग और पखावज नाम से जाना जाता है। अतः आजकर हम जिस वाद्य को उत्तर भारत में पखावज नाम से संबोधित करते हैं, वह भरत कालीन मृदंग का केवल एक भाग ही है।


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