राग वर्णन भाग - 6
1) मुलतानी - तोड़ी की तरह इस राग में भी रे ग ध का प्रयोग बड़ी कुशलता से करना होता है। इन स्वरों के ग़लत उपयोग से राग का स्वरूप बदल सकता है और तोड़ी की छाया आ सकती है। मुलतानी में म ग की संगत और पुनरावृति होती है। काफी थाट से आगे सन्धिप्रकाश रागों में प्रवेश करने के लिये यह राग अत्यन्त उपयोगी है। इस राग में सा प नि विश्रान्ति स्थान माने जाते हैं। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में भी तीव्र मध्यम की मुलतानी पाई जाती है।
2) रामकली - रामकली का साधारण स्वरूप भैरव राग के समान है। रामकली के कई प्रकार सुने जाते हैं। एक प्रकार में म नि आरोह में वर्जित हैं, इस प्रकार को शास्त्राधार तो है, किन्तु प्रचार में बहुत कम दिखाई देता है रामकली का एक और प्रकार है, जिसके आरोह-अवरोह में सातों स्वर लगते हैं, किन्तु यह प्रकार भैरव से मिल जाता है, उससे बचने के लिये इस प्रकार में गुणी लोग एक परिवर्तन यह बताते हैं कि भैरव का विस्तार मन्द्र और मध्य स्थान में रहना चाहिए और रामकली का मध्य और तार स्थान में विस्तार होना चाहिए। रामकली का एक तीसरा प्रकार भी है, जिसमे दोनों म और दोनों नि प्रयोग किये जाते हैं, यह प्रकार ख्याल गायकों में प्राय सुनने को मिलता है। इस प्रकार में तीन में और कोमल नि इन दोना स्वरों का प्रयोग एक अनोखे ढंग से होता है। म॑पधनिधप, गमरेसा इस प्रकार की तान रामकली के इस प्रकार में प्राय मिलती है। उपरोक्त वर्णित प्रकारों के कारण इसके वादी संवादी में भी मतभेद होना स्वाभाविक है, किन्तु दोनों मध्यम और दोना निषाद वाले प्रकार में वादी पंचम और संवादी षडज मानना ठीक होगा, ऐसा ही भातखण्डे पद्धति के अनुयायी भी मानते हैं।
3) बिभास (भैरव थाट) - जिन रागों में म नि वर्जित होते हैं उनमें ग प की संगत बहुत प्रिय मालुम होती है। यह उत्तरांग प्रधान राग है। विभास में जब धैवत लेकर पंचम पर राग समाप्त होता है तो श्रोताओं को बड़ा आनन्द आता है। विभास की तरह ही सायंकाल का एक राग "रेवा" है किन्तु रेवा में ग वादी है और विभास में ध वादी है। इस भेद से गुणीजन विभास और रेवा को अलग-अलग दिखा देते हैं। इसके अतिरिक्त "विभास" नाम के २ राग और हैं। एक विभास पूर्वी थाट का है और एक मारवा थाट का, किन्तु उपरोक्त विभास भैरव थाट का है अतः उनसे इस विभास का कोई मेल नहीं ।
4) पिलू - पीलू राग को सभी पसन्द करते हैं। मिश्रण में इसकी रचना हुई है। अतः बारहीं भैरवी, भीमपलासी गीरी इत्यादि रागों के स्वर प्रयोग करने की इस राग में छूट है। तीव्र स्वरों का प्रयोग प्रायः अवरोह में अधिक किया जाता है।
5) पटदीप - यह राग भीमपलासी से बहुत कुछ मिलत-जुलता है, किन्तु भीमपलासी में कोमल निषाद है और इसमे शुद्ध है। इस कारण कोमल निषाद का बचाव करके इसे गाना चाहिये । इसी प्रकार का एक राग पटदीपको (प्रदीपकी) नामक श्री भातखण्डे की क्रमिक छटी पुस्तक में मिलता है, किन्तु उसमें कोमल निषाद तथा दोनों गन्धार लिये गये हैं, इससे वह प्रकार अलग ही है। पटदीप राग में निषाद पर विश्रांती लेकर उस निषाद मे ही जोडकर सागरेसा यह स्वर समुदाय लेना चहिये, ऐसा मत श्री पटवर्धन जी का है।
6) रागेश्री - इसमें पंचम स्वर तो बिल्कुल नहीं लगता ओर आरोह में रिषभ भी नहीं लगाया जाता। ध म की स्वर संगती इसमें बहुत सुन्दर मालुम होती है। उत्तरांग में बागेश्री का आभास होता है किन्तु पुर्वांग में आया हुआ तीव्र ग बागेश्री का भ्रम हटा देता है, क्योंकि बागेश्री में कोमल गंधार लगता है।
7) पहाडी - इस राग में मध्यम और निषाद स्वर इतने दुर्बल हैं कि उन्हें वर्जित ही कहना उपयुक्त होगा। जब इस राग में भूपाली की छाया दिखाई देने लगती है तो चतुर गायक इसके अवरोह में थोड़ा मध्यम गमग रे सा इस प्रकार लगाकर भूपाली से इसे बचा लेते हैं। मन्द्र सप्तक के धैवत पर विश्रान्ति लेने से इस राग का सौन्दर्य बढ़ता है।
8) जोगिया - रे म और ध म की स्वरसंगती इस राग की रंजकता बढ़ाती है। मध्यम स्वर मुक्त रखने से यह राग विशेष अच्छा लगता है। संगीत तज्ञोंका का कहना है कि इस राग की रचना भैरव और सावेरी के संमिश्रण से हुई है। सावेरी राग कर्नाटकी ग्रंथों में पाया जाता है। भातखंडे मतानुसार इस राग के अवरोह में किसी-किसी स्थान पर कोमल निषाद लेते हुए कोमल धैवत पर आते हैं।
9) मेघ मल्हार - म रे प यह स्वर विन्यास मेघमल्हार की विशेषता है। रिषभ स्वर पर होनें वाला आन्दोलन इस राग की सुन्दरता बढ़ाकर राग का स्वरूप व्यक्त करता है। यह आन्दोलन ममम रे, रे, रे, इस प्रकार रिषभ पर मध्यम का कण लगाकर कई बार किया जाता है। मध्यम पर अनेक बार विश्रान्ति होती है, जिससे सारंग राग की छाया दूर होती है। इस राग में धैवत लगाकर भी कोई-कोई गायक गाते हैं।