हिन्दुस्तानी संगीत की स्वरलिपि पद्धति
भारतीय संगीत मनोधर्म पर आधारित है। अपनी कला से ही संगीतज्ञों ने विभिन्न रागों व तालों में भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिए काव्य या पद रचनाओं को आबद्ध करके उन्हें ख्याल, ध्रुपद, ठुमरी आदि गेय विधाओं के रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के प्रस्तुतिकरण संगीतकारों के साथ ही लुप्त न हो जाएँ इसीलिए उन्हें लिखित स्वरूप दे कर संरक्षित करने के प्रयास में समय-समय पर भिन्न-भिन्न चिन्हों से युक्त स्वरलिपियाँ प्रकाश में आई। स्वरलिपियों के माध्यम से ही पूर्व संगीतज्ञों द्वारा रचित बंदिशों का संग्रह आज उपलब्ध हो सका है। अतः स्वरलिपि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है।स्वरलिपि अर्थ एवं अवधारणा
किसी भी भाषा को लेखन द्वारा अभिव्यक्त करना 'लिपि' कहलाता है। जिस प्रकार किसी भाषा की 'लिपि' के रूप में हिन्दी, उर्दू, तमिल आदि के लिए अलग-अलग रेखाओं, बिन्दुओं तथा विभिन्न प्रकार के चिह्नों का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार संगीत में भी गायन वादन हेतु प्रयुक्त किए जाने वाले शुद्ध, कोमल, तीव्र स्वरों, मन्द्र-मध्य व तार सप्तकों तथा तीनताल, झपताल, एकताल आदि अनेकानेक तालों को लिखित रूप में दर्शाने के लिए जिन चिन्हों व रेखाओं या अंकों आदि का प्रयोग किया जाता है उसे ही सामान्य रूप से 'स्वरलिपि' कहा जाता है। स्वरलिपि में केवल स्वर ही नहीं वर्ण अक्षर, ताल आदि के साथ-साथ कण, मीड़, गमक आदि संगीत के तत्वों से सम्बन्धी चिन्हों का भी समन्वय होता है।
स्वरलिपि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में गुरू-शिष्य परम्परा के रूप में संगीत की शिक्षण प्रक्रिया सदा मौखिक हो रही है। संगीत की इस शिक्षण प्रक्रिया में स्वर व लय के असंख्य सूक्ष्म प्रयोगों को पूर्णतः मौखिक रूप से गा-बजा कर ही सिखाया जा सकता है। यदि इन प्रयोगों को लिखने की चेष्ठा की जाए तो यह कदापि सम्भव नहीं है किन्तु फिर भी स्वरों का ऊँचा-नीचापन, मन्द्र या तार सप्तक के स्वरों का प्रयोग दर्शाने के लिए वैदिक काल से ही विद्वानों द्वारा प्रयत्न किए जाते रहे हैं जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है।
वैदिक काल में 'उदात्त', 'अनुदात्त' व 'स्वरित' तीन स्वरों का उल्लेख मिलता है। उदात्त अर्थात ऊँचा, अनुदात्त अर्थात नीचा और 'स्वरित अर्थात मध्य का जिसमें स्वर के उच्चत्व व नीचत्व का समाहार या समन्वय हो जाता है। यह भी कह सकते हैं कि स्वरित मध्य का स्वर है। इन स्वरों को लिखित रूप में दर्शाने के लिए 'उदात्त' हेतु खड़ी रेखा (|) 'अनुदात्त' हेतु आडी रेखा (-) तथा 'स्वरित' के लिए किसी चिन्ह का प्रयोग नहीं किया गया है। आगे चल कर वैदिक काल में ही स्वरों को दर्शाने के लिए रेखाओं के स्थान पर 1, 2, 3 अंकों का प्रयोग किया जाने लगा। यह प्रयोग वैदिककालीन भिन्न-भिन्न संहिताओं या ग्रन्थों में किन्हीं विशिष्ट नियमों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता है। उदात्त के लिए 1. स्वरित के लिए 2. तथा अनुदात्त के लिए 3 अंक का प्रयोग किया गया। धीरे-धीरे स्वरों की संख्या तीन से बढ़ कर सात हो गई और तब गान ग्रन्थों में स्वरांकन के लिए 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 संख्याओं का प्रयोग किया जाने लगा।इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल में भी अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से स्वरों को लिखित रूप में अंकित करने का प्रयास किया जाता था। इसे ही आने वाले समय में स्वरलिपि पद्धति के लिए किए गए प्रयोगों का प्रारम्भिक स्रोत माना जा सकता है। धीरे-धीरे स्वरलिपि के लिए प्रयुक्त रेखाओं व अंकों के स्थान पर षड्ज, ऋषभ, गन्धार आदि शब्दों या फिर सारेगम आदि अक्षरों का प्रयोग किया जाने लगा उदाहरणस्वरूप भरत मुनि ने अपने ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' में स्वरों को दर्शाने के लिए षड्ज, ऋषभ आदि संज्ञाओं का प्रयोग किया है जबकि मतंग ने अपने ग्रन्थ 'बृहद्देशी' में सारेगमपधनी आदि संकेतों को स्वर के रूप में प्रयुक्त किया है। इन्होंने प्रयोग विधि के अनुरूप स्वर का अंकन दो रूपों में किया है: (1) ऱ्हस्व (2) दीर्घ
काल की इकाई को 'कला' कहा गया और उसके भी दो रूप लघु व गुरू माने गए। लघु कला को ह्रस्व द्वारा व गुरू कला को दीर्घाक्षर द्वारा अंकित किया गया। तेरहवीं शताब्दी में शाङ्गदेव कृत 'संगीत रत्नाकर' में 'स्वरगताध्याय' में सप्त स्वरों का अंकन मतंग के ही समान है किन्तु मन्द्र व तार सप्तक के स्वरों को दर्शाने के लिए क्रमशः स्वर के ऊपर बिन्दु व स्वर के ऊपर खड़ी रेखा का प्रयोग किया गया। जाति प्रस्तारों में स्वरों के नीचे शब्दों के अक्षर भी दिए गए हैं।