उस्ताद अहमदजान थिरकवा खाँ
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद नामक स्थान पर पारम्पारिक संगीतज्ञों के एक परिवार में सन १८९१ के लगभग जन्में अहमदजान को संगीत के संस्कार घर में ही मिले। पिता हुसैन बख्श, चाचा शेर खाँ, नाना कलन्दर बख्श और मामा फैयाज खाँ गुणी कलाकार थे । अहमदजान ने इन सबसे सीखा। लेकिन, संगीत शिक्षा प्राप्त करने की उनकी प्यास तब बुझी, जब उन्होंने उस्ताद मुनीर खाँ की शागिर्दी की। तबले पर अपनी थिरकती उँगलियों के कारण 'थिरकवा' नाम से प्रसिद्धी के शिखर को स्पर्श करनेवाले अहमदजान को प्रारंम्भिक लोकप्रियता तब मिली, जब उन्होंने बाल गंधर्व की प्रसिद्ध 'महाराष्ट्र नाटक कम्पनी' में तबला वादन शुरू किया । उस्ताद को रामपुर सहित अनेक राजाओं का राजाश्रय प्राप्त था। बाद में वह लखनऊ स्थित भातखण्डे हिंदुस्तानी संगीत महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक (विभागाध्यक्ष) पद पर आसीन हुए। थिरकवाँ खाँ साहब चारो पट के ताबलिक थे। स्वतंत्र वादन और संगति दोनों में ही वह दक्ष थे। दिल्ली और फर्रूखाबाद बाज उन्हें विशेष प्रिय थे, और इन दोनों ही वादन शैलियों में उन्हें पूर्ण दक्षता प्राप्त थी। पारंपारिक विशेषताओं का पूरी तरह पालन करते हुए भी वादन को शुरू से अंत तक रोचक और सरस बनाए रखना उनकी विशेषता थी । थिरकवाँ साहब उस पीढ़ी के कलाकार थे, जहाँ से तबला वादकों को समुचित और वास्तविक सम्मान मिलना शुरू हुआ। उन्हें कई उपाधियाँ और मान- सम्मान मिले थे । १९५३-५४ में उन्हें राष्ट्रपति सम्मान मिला था। वह प्रथम ताबलिक थे जिन्हें पद्मभूषण का अलंकरण प्राप्त हुआ था। इनके जीवन पर एक वृत्तचित्र भी बना है। इनकी अनेक ध्वनि मुद्रिकाये भी बनी हैं।उस्ताद थिरकवाँ खाँ के नाम से प्रसिद्ध हुए उस्ताद अहमदजान उन सौभाग्यशाली और विरले कलाकारों में से थे, जिन्हें उनके जीवनकाल में ही अप्रतिम लोकप्रियता और प्रसिद्धी प्राप्त हो गई थी। अपने जीवनकाल में ही उन्होंने वह सब पा लिया था, जिसका सपना आँखों में बसाए होता है कोई भी कलाकार ।
जीवन के अंतिम दिनों में भी संगीत के क्षेत्र में सक्रिय रहने वाले थिरकवाँ साहब के वादन के कई रिकॉर्ड आकाशवाणी के पास सुरक्षित हैं। उनके एकल तबला वादन का ध्वन्यांकन अनेक कंपनियों ने किया हैं। बड़े मुख के तबले पर उस्ताद की थिरकती उँगलियों का जादू किसी को भी रसमग्न कर सकता था। इनके ढेरों शिष्यों में से कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं। पद्मभूषण निखिल घोष, लालजी गोखले, स्व. प्रेम वल्लभ, सूर्यकांत गोखले, सुरेश गायतोंडे, आनंद शिधये, रामकुमार शर्मा, एम. व्ही. भिडे, नारायणराव जोशी, मोहनलाल जोशी, प्रो. सुधीर कुमार वर्मा, अहमद मियाँ, सरवत हुसैन आदि । भातखंडे महाविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद उस्ताद ने अपना अस्थाई निवास मुम्बई को बना लिया था। लेकिन १९७५ के दिसम्बर महीने में मुहर्रम के अवसर पर वह लखनऊ आये हुए थे। १३ जनवरी, १९७६ को पुनः मुम्बई जाने हेतु वह घर से निकले। सबको दुआएँ देकर सवारी पर बैठे और सबसे खुदा हाफिज कहकर इस नश्वर संसार से विदा हो गए। लोग किंकर्तव्यविमूढ से देखते हुए गए । उन्हें बाद में पता चला कि उन पर कितना बड़ा बज्रपात हुआ है।