राग वर्णन भाग - 4
१) शुद्ध कल्याण - इस राग की साधारण प्रकृति भूपाली के समान है। यह दोनों स्वर यद्यपि आरोह में ही वर्जित हैं, किन्तु अवरोह में भी इन स्वरों को वर्जित करके बहुत से लोग इस राग को गाते हैं। अवरोह में यद्यपि तीव्र मध्यम भी लिया जासकता है, किन्तु इस स्वर को पंचम से गान्धार तक की मींड़ लेकर दिखाते हैं। जलद तानों में तीव्र मध्यम छोड़ दिया जाता है केवल निषाद अवरोह में कोई-कोई ले लेते है, इस कृत्य से भूपाली की भिन्नता दिखाई देजाती है। प-रे का मिलाप विशेष होता है। इस राग में धैवत स्वर को भूपाली की अपेक्षा कम प्रयोग में लाना उचित है।
२) गौडसारंग - इस राग में दोनों मध्यमों का प्रयोग होता है। यद्यपि इसमें गन्धार निषाद वक्र हैं किन्तु राग का मुख्य अंग "गरे मग" इस स्वर समुदाय पर आधारित है, इसलिये कई स्थानों पर ग-नि का वकृत्व छिप जाता है। तीव्र मध्यम केवल आरोह में ही लिया जा सकता है। अवरोह में किंचित कोमल निषाद कुशलता पूर्वक ले सकते है।
३) जयजयवंती - इसके आरोह में तीव्र ग नि और अवरोह में कोमल ग नि लेते हैं, लेकिन कभी-कभी अवरोह में भी तीव्र गन्धार लिया जा सकता है। कोमल ग केवल अवरोह में ही ले सकते हैं और यह स्वर होना ओर म रे ग रे इस प्रकार रिषभों द्वारा घिरा रहता है। यह राग सोरठ के अंग का है। मन्द्र पंचम और मध्य रिषभ का मिलाप इममे यहुत अच्छा मालुम होता है।
४) पूर्वी - सा, ग, प, इन तीन स्वरों पर इस राग की विचित्रता निर्भर है। उत्तर भारत में कोई-कोई संगीत तज्ञ इसमे तीव्र धैवत भी लेते हैं, तो कोई-कोई दोनो धैवतों का उपयोग करते हैं। इम राग के अवरोह में कोमल म का प्रयोग गन्धार के साथ बहुत सुंदर प्रतीत होता है।
५) पुरिया धनाश्री - यह राग पूर्वी से मिलता जुलता है, किन्तु पूर्वी में दोनों म है और इसमें तीव्र मध्यम ही है, इम भेद से यह पूर्वी से बचा लिया जाता हैं। इम राग में में रे ग तथा रे नी ध प यह स्वर समुदाय राग दर्शक है।
६) परज - यह राग उत्तरांग प्रधान राग है, अतः इसमें तार षडज की चमक बहुत सुन्दर मालुम देती है। इस राग की गति कुछ चंचल है, इसीलिये बसन्त राग से यह अलग पहचान लिया जाता है। जब इस राग की कुछ तानें निषाद पर समाप्त की जाती हैं, तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है। सांरेंसांरें, नि ध नि यह स्वर इसमें वारंवार दिखाई देते हैं। धपगम॑ग, म॑धनिसां यह स्वर समुदाय रागदर्शक है।
७) पुरिया - इस राग का मुख्य चलन मन्द्र और मध्य स्थानों में रहता है। यह संधिप्रकाश राग है। निषाद और मध्यम की संगति इसकी शोभा बढ़ाती है। मन्द्र सप्तक में सा, निधनिम॑ग यह स्वर राग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं।
८) सिंधुरा - इस राग को सैंधवी भी कहते हैं। कोई-कोई गुणीजन निषाद के वर्जन पर मतभेद रहते हैं, अत: आरोह में कभी-कभी कोमल नि लिया जाता है। राग विबोध में इसे "सिघोडा" ऐसा नाम दिया है।
९) कलींगडा - कलींगडा गाते समय ५ स्वरों पर आन्दोलन अधिक देने से भैरव की झलक आने लगती है। इसीलिये इसमे पंचम वादी ओर षडज सम्वादी मानते हैं, क्योंकि धैवत वादी होगा तो उस पर आन्दोलन भी अधिक होगे। परज राग से भी इसकी प्रकृति बहुत कुछ मिलती-जुलती है।
१०) बहार - इसका गायन समय शास्त्रों में यद्यपि मध्य रात्रि का दिया गया है, किन्तु बसंत ऋतु में यह राग चाहे जिस समय गाया-बजाया जा सकता है, ऐसा संगीत तज्ञ का मत है। ख्याल गायकी में कहीं-कहीं दोनों धैवत और दोनों गन्धारों का प्रयोग भी इस राग में पाया जाता है। इस राग में म ध की संगती भली मालुम देती है। निनिपम, पग, म, ध, निसां, यह स्वर समुदाय बहार में बार-बार दिखाई देता है।