राग वर्णन भाग - 3

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राग-वर्णन

 राग वर्णन  भाग - 3


 १) मारवा - इस राग के आरोह में निषाद कई स्थानों पर वक्र गति से प्रयोग होता है। रे ग ध इन स्वरो पर इस राग की विचित्रता निर्भर है। अवरोह में जब ऋषभ वक्र होता है तब यह राग अधिक चमकता है। इसमें मींड का काम अधिरु अच्छा नहीं लगता । 



२) सोहनी - इस राग में कुशल गायक विविध स्थानों पर कोमल मध्यम का प्रयोग बड़ी कुशलता से करते हैं। इसमें तार षड़ज चमकता रहता है और इससे राग की रंजकता बढ़ती है। इसके आरोह में रे स्वर वर्जित तो नहीं है, किन्तु वह दुर्बल रहता है ।



३) जौनपुरी - इस राग का स्वरूप आसावरी से मिलता-जुलता है, किन्तु आसावरी के आरोह में निषाद वर्जित है और इस राग के आरोह में निषाद लेते हैं, इस प्रयोग से यह आसावरी से बच जाता है। प्रचार में आजकल जौनपुरी में दोनों निषादों का प्रयोग मिलता है।



४) मालकौंस - राग मालकौंस रात्रि के रागों में बहुत ही प्रचलित राग है। इस राग के युगल स्वरों में परस्पर स्वर संवाद अधिक होने से इसमें अधिक मधुरता है। राग मालकौंस का चलन मध्यम पर विशेष केंद्रित रहता है। इस राग में मध्यम पर निषाद, धैवत तथा गंधार स्वरों पर आन्दोलन करके मींड के साथ आने से राग का स्वतंत्र अस्तित्व प्रकट होता है। राग मालकौंस का विस्तार तीनों सप्तकों में समान रूप से किया जाता है। इस राग की प्रकृती शांत और गंभीर है। इस राग में ध्रुपद व ख्याल की गायकी अधिक दिखाई देती है।



५) छायानट - छायानट में दोनों मध्यम लिये जा सकते हैं, शुद्ध मध्यम आरोह अवरोह में लिया जाता है। पंचम और रिषभ की संगत इसमें भली मालुम होती है। ग नी इन दोनो स्वरों को क्रम से अवरोह और आरोह में वक्र किया जाता है। अवरोह में कभी-कभी कोमल निषाद भी विवादी स्वर के नाते लिया जाना है।



६) कामोद - इस राग में गंधार और निषाद स्वर वक्रगति से लगते हैं। तथा यह दोनों स्वर इसमें दुर्बल रहने चाहिये। निषाद तो बहुत ही कम लगता है। कभी-कभी अवरोह में कोमल निषाद का प्रयोग विवादी स्वर के रूप में किया जाता है। आरोही में तीव्र मध्यम का बहुत कमी के साथ प्रयोग किया जाता है। रिषभ में पंचम पर जाने में कामोद स्पष्ट दिखाई देने लगता है।



७) वसंत - इस राग के २ प्रकार प्रसिद्ध हैं। एक में तो दोनों मध्यम लेते हैं तथा पंचम वर्जित करते हैं। दूसरी प्रकार में पंचम वर्जित न करके इसे सम्पूर्ण जाति का मानते हैं। इस दूसरी प्रकार में वादी स्वर तार  और संवादी स्वर पंचम मानते हैं। किन्तु पहले प्रकार में पंचम वर्जित होने के कारण वादी संवादी सा-म मानते हैं। इस राग में दोनों मध्यम लिये जाते हैं। उत्तरांग प्रधान होने के कारण इसमें तार षड़ज पर विशेष जोर रहता है। 




८) शंकरा - कोई-कोई संगीत तज्ञ इसका वादी स्वर षडज और  संवादी पंचम मानकर समय मध्यरात्रि मानते हैं। शंकरा के २ प्रकार देखने में आते हैं। एक प्रकार में रे-म वर्जित करके इसकी जाति औडव मानते हैं और दूसरे प्रकार में केवल मध्यम वर्जित करके इसे षाडव जाति का राग मानते हैं। दोनों प्रकार सुन्दर हैं। इसके आरोह में रिषभ अल्प रहता है। कुशल संगीत इस राग में तिरोभाव करते समय रे-ध का अधिक प्रयोग दिखाकर, कल्याण राग का आभास दिखाते हैं, किन्तु प नि ध, सां नि, यह स्वर संगति और मध्यम का लोप इस राग को पहचानने में सहायता देता है। शंकरा का स्वरूप बिहाग से कुछ मिलता है, किन्तु बिहाग में मध्यम स्वर स्पष्ट होने के कारण यह उससे अलग हो जाता है। 



९) दुर्गा (खमाज थाट) - दुर्गा राग के २ प्रकार हैं, उपरोक्त प्रकार समाज थाट का है. इनमें रे प वर्जित करके औडव जाति का मानते है। दूसरा प्रकार बिलावल थाट का दुर्गा है, उसे भी हम नीचे दे रहे हैं। खमाज थाट के दुर्गा में आरोह में तीव्र निषाद का प्रयोग भी करते हैं।



१०) दुर्गा (बिलावल थाट) - इस राग के आरोह में निषाद कई स्थानों पर वक्र गति से प्रयोग होता है। रे ग ध इन स्वरो पर इस राग की विचित्रता निर्भर है। अवरोह में जब ऋषभ वक्र होता है तब यह राग अधिक चमकता है। इसमें मींड का काम अधिक अच्छा नहीं लगता है |


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