राग वर्णन भाग - 2
१) देस - देस राग का स्वरूप सोरठ से बहुत मिलता-जुलता है, अत देस के बाद सोरठ या सोरठ के बाद देस का गाना कठिन पडता है। इस राग में गंधार स्वर स्पष्ट रूप से लिया जाता है। इसके आरोह में ग और ध यह दोनों स्वर दुर्बल हैं, अत कम प्रयोग किये जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि देस के आरोह में ग-ध वर्जित हैं।
२) भैरव - यह बहुत प्राचीन और गंभीर राग है। कभी-कभी इसके अवरोह में कुशल- गायक कोमल निषाद का प्रयोग भी करते हैं। इस राग में रे ध स्वर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं इन स्वरों का प्रयोग करते समय इसे कलिंगडा और रामकली से बचाना चाहिये । भैरव के आरोह में रिषभ का अल्पत्य रहता है एवं मध्यम से रिषभ पर मिंड लेकर आने में इसका माधुर्य चढ़ता है।
३) भिमपलासी - इस राग के आरोह में रिषभ और धैवत दुर्बल रहते हैं, अर्थात् आरोह में इनका प्रयोग कम रहता है और सा, म, प इन स्वरों का प्राबल्य रहता है। इस राग को गाते समय धनाश्री राग से बचाना चाहिए जो कि काफी थाट का है। किन्तु प ग म ग इन स्वर संगतियों से धनाश्री और भीमपलासी अलग-अलग हो जाते हैं। साथ ही इस राग में म वादी और धनाश्री में प वादी दिखाकर भी इनका मिश्रण बचाया जासकता है।
४) बागेश्री - मध्यम, धैवत और निषाद स्वरों की संगत इस राग की शोभा बढ़ाती है। बागेश्री के आरोह मे रिषभ स्वर का प्रयोग बहुत कम होता है या बिल्कुल छोड़ दिया जाता है। इस राग में पंचम स्वर के प्रयोग पर मतभेद पाया जाता है। कोई-कोई गुणीजन पंचम को बिल्कुल वर्जित रखते हैं और कोई-कोई पंचम को अवरोह में लेना स्वीकार करते हैं, एवं कोई-कोई पंचम स्वर को आरोह-अवरोह दोनों में लेते हैं।
५) तिलक कामोद - इस राग का स्वरूप कई जगह देस और सोरठ में मिलता है, किन्तु इधर इस राग में कोमल निषाद बिल्कुल वर्जित रखने के कारण यह राग देस ओर सोरठ से बच जाता है। इम राग की चाल वक्र होने से ही इसकी विचित्रता बढ जाती है। महाराष्ट्र में तिलककामोद गाते समय दोनों निषाद लेने का रिवाज है।
६) आसावरी - उत्तर भारत में आसावरी राग में कोमल ऋषभ लगाकर गाने का प्रचार है, किन्तु दक्षिणी ख्याल गायक इसे तीव्र रिषभ से ही गाते हैं। इस राग का वैशिष्ट्य ग, प, ध इन तीन स्वरों पर निर्भर है। अवरोह में यह राग विशेष रूप से सिलता है।
७) केदार - हमीर के समान इस राग में भी दोनों मध्यम लगाये जाते है, किन्तु यह इस राग की विशेषता है कि कभी-कभी इसके अवरोह में दोनों मध्यम एक के बाद दूसरा इस क्रम से आजाते हैं। केदार का आरोह करते समय षडज से एकदम मध्यम पर जाना बड़ा सुन्दर होता है। इसके अवरोह में कभी-कभी धैवत के साथ कोमल निषाद का अल्प प्रयोग करते हैं। इस प्रकार निषाद का प्रयोग विवादी स्वर के नाते होता है। इसके अवरोह में गन्धार स्वर वक्र और दुर्बल रहता है। अतः इस स्वर का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए अन्यथा कामोदादि राग दिखाई देने लगते हैं।
८) देसकार - इस राग में निषाद और पंचम की संगत भली मालुम होती है। धैवत वर्जित होने से खमाज से यह राग अलग होजाता है। इसके अवरोह में कोई-कोई गायक थोड़ा सा रिषभ स्वर विवादी के नाते प्रयोग करते हैं।
९) तिलंग - इस राग के आरोह में नि का प्रयोग कम किया जाता है और वह भी चक्र स्वर के रूप में। यदि हिंडोल में निषाद का प्रयोग अधिक हो जाय तो सोहनी की छाया पड सकती है। इस राग में कोई गायक रिषभ और शुद्ध मध्यम का किंचित प्रयोग करते हैं। उत्तम गायक इसमे गमकों का बहुत सुन्दर प्रयोग करते हैं।
१०) हिंडोल - इस राग के आरोह में नि का प्रयोग कम किया जाता है और वह भी वक्र स्वर के रूप में। यदि हिंडोल में निषाद का प्रयोग अधिक हो जाय तो सोहनी की छाया पड सकती है। इस राग में कोई-कोई गायक रिषभ और शुद्ध मध्यम का किंचित प्रयोग करते हैं। उत्तम गायक इसमे गमरों का बहुत सुन्दर प्रयोग करते हैं।