उस्ताद अल्लारखा खाँ साहब
पंजाब घराने के महान तबला वादक उस्ताद अल्लारखा खाँ का जन्म १९१५ में पंजाब के रतनगढ़ जनपद के गुरूदासपुर में एक किसान परिवार में हुआ था । इनके पिता हाशिम अली का संगीत से कोई संबंध न था, किंतु मामा शौक के रूप में गाना, बजाना किया करते थे और वे ही इनकी प्रेरणा के स्त्रोत बने । लय और ताल की ओर बचपन से ही खाँ साहब का रूझान था । इसीलिए इनकी अंगुलिया वादन के लिए हर समय मचलती रहती थी। इन्हें जो भी सामान मिलता उसे बजाने लगते थे। घर की थालियों पर भी इनकी अंगुलियों से उपजा संगीत गूँजता रहता था। बिना सिखे ही विभिन्न प्रकार के गीतों की संगति ये घर की थाली पर करने लगे थे बचपन से ही।
१५-१६ वर्ष की उम्र में खाँ साहब पठानकोट कि एक नाटक कंपनी से सम्बद्ध हो गए और वहीं तबला वादक नासिर तथा लाल मोहम्मद से इनका परिचय हुआ। खाँ साहब ने उनसे तबला वादन की शिक्षा प्राप्त की। किंतु इससे इनकी संगीत शिक्षा की प्यास बुझी नहीं, बल्कि और बढ़ गई। अतः कुछ वर्षो बाद वह लौहार जाकर उस्ताद कादिर बख्श के शिष्य बन गए। जहाँ उन्होंने पंजाब घराने की वादन शैली का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया । इन्होंने उस्ताद आशिक अली से गायन की शिक्षा प्राप्त की थी। उस्ताद अक्सर कहा करते थे कि हर ताबलिक को गायन का आधारभूत ज्ञान जरूर होना चाहिए भले ही गाना न गाये । लेकिन गायन का ज्ञान होने से वह संगीत और संगति के मर्म को समझ पायेगा । उस्ताद अक्सर कहा करते थे कि सिर्फ इतना ही काफी नहीं हैं कि तबला सुर में बोले । मजा तो तब है जब तबले में सुर बोले । उस्ताद अल्लारखा सन १९३६ से १९४२ तक दिल्ली और मुम्बई के आकाशवाणी केंद्रों में तबला वादक पद पर कार्यरत रहे। बाद में वह फिल्मी दुनिया से जुड़ गए और ए. आर. कुरेशी नाम से हिंदी और पंजाबी की कई फिल्मों में संगीत निर्देशन भी किया । इन्होने कुछ फिल्मों में गाना भी गाया और बचपन से कई नाटकों में गाना गाते हुए भक्त प्रल्हाद आदि का अभिनय भी किया। लेकिन इसके बाद इन्होंने स्वयं को सांगीतिक मंचों तक सीमित कर लिया । इनके चमत्कारिक एकल और संगति वादन के अनेक कैसेटस् और डिस्क काफी लोकप्रिय हैं। भारत सरकार ने १९७७ में इन्हें पद्मश्री के अलंकरण से सम्मानित किया था। इन्हें कई अन्य उपाधियां और मान-सम्मान भी मिले थे। मंच पर कम बोलनेवाले उस्ताद अलारखा और पंडित रविशंकर की जोड़ी एक समय में संगीत जगत की सबसे लोकप्रिय जोड़ी थी। इन दोनों कलाकारों ने अपनी अपनी रचनात्मक क्षमता का परिचय देते हुए अद्भुत संगीत रचा था और उस संगीत के बलबूते दुनिया भर के प्रतिष्ठित संगीतकारों में इनकी प्रतिष्ठा बढ़ी थी। भारतीय संगीत का मान और गौरव बढ़ा था। चमत्कारिक तैयारी, विशिष्ट रचनाएँ, लय के कठिन काट-छाँट गणितीय सुंदरता और विषम प्रकृति के तालों में पूरी दक्षता से वादन उस्ताद अलारखा की विशेषताएँ थी। तंत्र वाद्य और नृत्य की संगति एवं स्वतंत्र वादन में इनकी क्षमता विशेष रूप से दिखलाई देती थी। इनके पुत्र और शिष्य जाकिर हुसैन ने तबला वादन में बेमिसाल लोकप्रियता प्राप्त की हैं। अन्य पुत्र फजल कुरेशी और तौफिक कुरेशी भी अच्छा तबला बजा रहे है।
उस्ताद अल्लारखा के कई अन्य शिष्य भी काफी अच्छा तबला बजा रहे हैं। इनमें योगेश समसी और अनुराधा पाल के नाम उल्लेखनीय हैं। पंजाब घराने के तबले की वादन शैली को समयानुकूल मोड़ देकर उसे निखारने और लोकप्रिय बनाने में उस्ताद अल्लारखा की विशेष भूमिका रही हैं। इन्होंने खुले अंग के वादन शैली में चांटी के बोलों का समावेश करके उसे एक नया रंग दिया और वह रूप भी कि वह तंत्र और सुषिर वाद्यों की संगति में भी खरा उत्तर सके। ३ फरवरी, २००० को मुम्बई में हृदय गति रूक जाने से इनका निधन हुआ।