तबला एवं पखावज वादकों के गुण-दोष
गुण:
हाथों का सही रखाव: बोलों का सही निकास
एक कुशल और सफल तबला तथा पखवाज वादक के लिए सबसे पहली शर्त यह है कि, उसके हाथों का रखाव सही हो और बोलो का निकास भी शुद्ध हो। अतः सफल तबला तथा पखवाज वादक बनने के लिए यह परम आवश्यक है कि सीखने के प्रथम चरण में ही अच्छे गुरू की खोज करके, उनकी पूरी निगरानी में एक-एक उंगली का स्थान और बोलों का पूरी तरह ध्यान रखते हुए वादन किया जाए। अलग अलग बोलों के वादन के समय अलग-अलग वणों के निकास की प्रक्रिया बदल जाती हैं और इसका ज्ञान योग्य गुरू से ही प्राप्त किया जा सकता हैं। कई बोल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें बोला कुछ और जाता हैं और बजाया कुछ और जाता हैं। इसका भी ध्यान रखना होगा।
(१) ज्ञान:
ज्ञान के महत्त्व से भला कौन अपरिचित हैं? एक कुशल वादक के लिए यह और भी जरूरी है। चूंकि उसे हर विधा, शैली की संगति करनी होती है, अत: उसके पास हर प्रकार के बोलों का समृद्ध भंडार भी होना चाहिए। संगीत की अलग-अलग विधाओं के साथ अलग-अलग प्रकार बोल बजते हैं। कहीं खुले और जोरदार अंग के बोलों का प्रयोग होता है, तो कहीं चाँटी की प्रधानता वाले मुलायम बोलों का। नृत्य की संगति में लम्बे लम्बे टुकड़े, परणों का प्रयोग होता हैं, तो तुमरी गायन आदि को संगति में लग्गी-लड़ी का, ध्रुपद धमार की संगति पखवाज पर खुले और जोरदार बोलों से की जाती है। तो वीणा, सुरबहार आदि जैसे तंत्र वाद्यों की संगति में अपेक्षाकृत मधुर बोलों से की जाती हैं। इसीलिए एक सफल वादक के रूप में स्थापित होने के लिए यह जरूरी है कि वह अपने ज्ञानकोष में तरह तरह के बोलों का अनुभव और वादन की क्षमता रखे ।
(२) ताल-लयकारी :
स्वतंत्र वाद्य के रूप में पूरी तरह स्थापित होने के बावजूद, आज भी तबला एवं पखवाज को मूलतः संगति वाद्य के रूप में स्वीकारा जाता है । अगर तबला एवं पखवाज वादन सूझ-बूझ अर्थात प्रत्युत्पन्नमतित्व का महत्त्व न केवल संगीत, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सर्व विदित हैं। संगीत भी इससे अछूत नहीं है। संगीत एक प्रायोगिक कला है। शास्त्रीयता के समस्त दावों के बावजूद सृजनात्मकता इसकी प्रमुख विशेषता है और इसीलिए किसी पुस्तक में दिए गए दिशा-निर्देश के अनुसार ही इस पर पूरी तरह अमल नहीं किया जा सकता। कब, कहाँ, क्या और कैसे करना है? इसका निर्णय प्रायः कलाकार को अपने विवेक के अनुसार लेना पड़ता है और इसे हो संगीत की भाषा में सूझ-बूझ कहते हैं। उदाहरण के लिए संगत करते समय तबला एवं पखवाज वादक को कभी सीधा ठेका बजाना पड़ता है, कभी अपनी रचनाएँ भी बजानी पड़ती है और कभी अनुसंगति तो कभी सह संगति भी करनी पड़ती हैं। इन सबके लिए सूझ-बूझ की जरूरत हर क्षण महसूस होती है। उसके बगैर यह कार्य असंभव की हद तक कठिन हो जाता है। अनुसंगति में तिहाइयों की लय उसका आकार, दम आदि की तुरंत नकल आसान नहीं हैं और इस कठिन परीक्षा से हर कलाकार को हर कार्यक्रम में गुजरना पड़ता है। अतः त्वरित निर्णय और अनुकूल रचनाओं की त्वरीत प्रस्तुति करने की दक्षता भी कलाकर के योग्यता की अनिवार्य शर्त होती हैं। इसमें गुणी संगीतज्ञ भी रस लेते हैं और साधारण श्रोता दर्शक भी। अतः निरंतर प्रवास द्वारा कलाकार को अपने अंदर इस क्षमता का विकास करना चाहिए ।
(३) स्वरज्ञान :
वादक कलाकार को स्वर का भी अच्छा ज्ञान होना चाहिए । उसे अपने वाद्य को सुर में मिलाना पड़ता है। बदलते तापमान का सीधा प्रभाव वाद्य यंत्रों पर पड़ता है। ठंड़ के कारण कभी वाद्यों के स्वर नीचे हो जाते हैं तो गर्मी के कारण ऊपर । मुख्य कलाकारों द्वारा राग बदलने पर तबला एवं पखवाज को उस राग के अनुरूप स्वर में मिलानापड़ता है । अतः तबला एवं पखवाज वादकों को स्वर का अच्छा ज्ञान होना आवश्यक है।
(४) मुख-मुद्रा :
आज तबला एवं पखवाज केवल श्राव्य नहीं, दृश्य कला भी हैं। अतः केवल वादन ही नहीं वादक में भी प्रभावित करने की क्षमता होनी चाहिए। अत: कलाकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि वादन के समय उसकी मुख-मुद्रा शांत, सौम्य और प्रसन्नचित्त हो । इसका श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं। सुरुचिपूर्ण परिधान एवं आकर्षक व्यक्तित्व का भी दर्शको पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
किसी भी ताबलिक एवं पखवाजी में इन गुणों को अच्छे गुण मानते हैं।