पार्श्वदेवकृत संगीत समयसार

0

पार्श्वदेवकृत-संगीत-समयसार

 पार्श्वदेवकृत संगीत समयसार


इस ग्रंथ की रचना आचार्य पार्श्वदेव ने ईसा की तेरहवीं शताब्दी में की थी। पार्श्वदेव ने स्वयं को अनेक राजसभाओं में स्थित रसिकों के द्वारा स्तुत्य कहा है, जिससे यह सिद्ध होता, है कि वे देश-देशान्तर में घूमे हुए विद्वान् थे । पिता का नाम 'आदिदेव' और माता का नाम 'गौरी' था। उनकी उपाधि 'संगीताकार' थी। इनके संगीत समयसार में कुल नौ अध्याय हैं।


                   इस ग्रंथ में चन्दर वंश के अठारहवें राजा 'परमर्दी' का उल्लेख किया है। पार्श्वदेव ने अपने इस ग्रंथ में मतंग का भी उल्लेख किया है। इनका काल ग्यारहवीं शताब्दी माना गया है, अतः इस युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि पार्श्वदेव बारहवीं शताब्दी के अंत में अथवा तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुए होंगे। इन्होंने पहले अध्याय में मंगलाचरण के बाद संगीत की दो विधा मार्ग और देशी बतायी हैं। इसके बाद स्थान का लक्षण, मध्य, मन्द्र, तार स्थान बताकर अन्तरश्रुति और वीणा की श्रुति साथ ही मन्द्र-मध्य-तार सप्तकों की 22-22-22 श्रुतियां यानी कुल 66 श्रुतियां बतायी हैं। तदोपरान्त ग्राम का लक्षण, मूर्च्छना, तान जाति का निरूपण किया है। कहा है कि- अंशभूत व्यवस्थित श्रुति युक्त स्वरों का समूह ग्राम कहलाता है। स्वर और श्रुति इत्यादि से युक्त दोनों ग्राम समूहवाची हैं। मूर्च्छना के अन्तर्गत मूर्च्छना की उत्पत्ति का लक्षण बताया है। जाति, राग सप्त शुद्ध ग्राम राग पांच भिन्न सवका निरुक्त संगीत रत्नाकर के समान माना है। सप्त स्वर वद्वादश स्वर मूर्च्छनाओं का उल्लेख करके 49 षाडव और 35| औडव मूर्च्छनाओं को मिलाकर 84 मूर्च्छनाएं बताई है। इसके उपरान्त स्वर साधारण, तान जाति ग्राम राग को बताकर 7 शुद्ध, 5 भिन्न, 3 गौड, 8 बेसर, 7 साधारण और छह उपरागों के राग बताए हैं। दूसरे अध्याय में देशी का लक्षण और 'शुद्ध "सालग' इन दो भेदों के कारण देशी दो प्रकार का कहा है। यह देशी सातों स्वराश्रित गीत, वाद्य, नृत्य तीनों में बताया है। इसके बाद नाद की उत्पत्ति मतंग मुनि द्वारा और पांच प्रकार का नाद अतिसूक्ष्म, सूक्ष्म आदि को कहा है। शारीर का लक्षण, भेद, गुण-दोष बताकर निबद्ध-अनिबद्ध को समझाया है। इसके बाद गमक के अंतर्गत इसका लक्षण इस प्रकार कहा है-जो स्वर अपने श्रुति स्थान पर सम्भूत छवि को अन्य श्रुति की छाया तक पहुंचा दे, वह गमक कहलाता है। यानि यह बात परम्परागत नहीं है। इन्होंने सात गमक बतायीं हैं स्फुरित, कम्पित, लीन, तिरिपु, आहत, आन्दोलित और विभिन्न जबकि संगीत रत्नाकार में पंद्रह प्रकार की गमक बतायी गयी हैं। इस अध्याय का अंत गीत भेद के लक्षण से किया गया है। तीसरे अध्याय का प्रारम्भ ठाय से किया है। इसके बाद जीवस्वर, ग्रह न्यास, संन्यास, तार, मन्द्र, राग तथा आलप्ति के दो प्रकार बताए हैं। फिर छह प्रकार के काकु बताए हैं। राग की अपनी छाया 'राग काकु' कही गई है। गीतज्ञों ने उसे (राग की) 'भाषा' कहा है। किसी स्वर विशेष की छाया को 'स्वर काकु' कहा है। एक राग में अन्य राग की छाया को 'अन्य रागजकाकु' बताया है। फिर अंश को समझाया है। अंश के सात भेद बताये है। चौथे अध्याय में रागाङ्ग, भाषाङ्ग, क्रियाङ्ग के लक्षण के पश्चात्, सात स्वर तथा उनकी स्वर-व्यवस्था का भी उल्लेख किया है। 101 रागों में लोक-व्यवहार सिद्ध कुछ रागों के लक्षण भी कहे हैं। रागांग रागों में देशी, वेलाउली आदि भाषाङ्ग राग में सेंधव, वराटी और बराटी के अन्य प्रकार उपांग में भैरवी क्रियांग में देवक्री आदि सम्पूर्ण रागों के स्वरों का वर्णन यताया गया है। राग के लक्षण दो प्रकार के बताये है। भैरव के विषय में कहा है कि 'भैरव का जन्म भिन्न- षड्ज से हुआ है। इसके न्यास स्वर मध्यम तथा अंश स्वरधैवत है। ऋषभ पञ्चम वर्जित है। प्रार्थना में इसका विनियोग होता है। पांचवां अध्याय प्रबन्ध अध्याय है। इसके अन्तर्गत निबद्ध प्रबन्ध उसका लक्षण, उ‌द्याह, मेलापक, ध्रुव, आभोग, सूड के विभिन्न भेद, उत्तमोत्तम सूड भेद, जैसे-करण-वर्तनी, एला, डेंकी, आलिक्रम, विप्रकीर्ण सूड आदि बताये हैं। सूडक्रमाश्रित प्रबन्ध लक्षण भी बताये हैं। इसमें उपरोक्त करण, बेंकी, एला आदि के लक्षण बताये हैं इसी में स्वरार्थ, रास के लक्षण, एकताली आदि को बताया गया है। छठे अध्याय में वाद्यों का वर्णन है। गीत के अनुगामी होने के कारण अब उद्देशपूर्वक लोकरंजक के चतुर्विध वाद्य जैसे-तत्, अवनद्ध, घन, सुषिर आदि के अन्तर्गत आने वाले वाद्यों का वर्णन हुआ है। तत् के अंतर्गत वीणा, अलावणी और किन्नरी आदि को, अवनद्ध के अन्तर्गत पटह, हुडुका, ढाणा, मृदंग और करटा को, घन के अन्तर्गत कांस्यताल, ताल, क्षुद्र घण्टिका तथा सुषिर के अंतर्गत वंश, महुरी, शंख और श्रृंग इत्यादि को बताया है। इसके पश्चात् हाथ के लक्षण और उनकी मुद्राओं जो कि आठ प्रकार की हैं, पिण्डहस्त, ऊर्ध्वहस्त आदि के बारे में बताया है। दस प्रकार की हस्त मुद्राओं का भी प्रयोग मिलता है। इसमें समपाणि, पाणिहस्त, विषमपाणि हस्त हैं। फिर बीस वाद्य प्रबन्धों को बताया है। यति के विषय में वे कहते हैं कि ताल एवं छन्द के परिज्ञान के लिए जो श्रुतिप्रिय विराम, वाद्यहीन बनाया जाता है, वह 'यति' है। सातवां अध्याय नृत्य के विषय में है। इसमें पहले अनेक विस्तृत शास्त्रों के द्वारा 'नृत' कहा गया है, इन शास्त्रों का संक्षेप करके नृत्यसार स्पष्ट रूप से निरूपित किया है। अवस्थाओं की अनुकृति करने वाला गात्र विक्षेप नृत्त है, वह वाक्, अंग, आहार्य्य और सत्व. से उत्पन्न तथा ताल, भाव और लय के अधीन है। उसमें वाचिक, आहार्य्य और सात्विक अभिनयों का परित्याग करके नृत्त आदि के विविध आंगिक कहे हैं। शिर के नौ, वक्ष के चार, कर के चौंसठ, पार्श्व के चार, कटि के पांच, पाद के पांच प्रकार बताकर देशी और स्थान के लक्षणों को बताया है। इसके उपरांत करण, भ्रमरकाएं और आंगिक अभिनय को बताया है साथ ही पांच पेरण (नृत्त,कैवार, घर्घर, वागड और गीत) तथा उनकी वादन पद्धत्ति को बताया है।

                आठवें अध्याय में ताल का विवेचन है। इसमें ताल शब्द की निष्पत्ति, ताल लक्षण, काल, आवाप, निष्काम, सन्निपात यह. आठ क्रियायें बतायी हैं। कला फिर लय बतायी है और यति के तीन प्रकार, लक्ष्य के अनुसार देशी सम्बद्ध मार्ग कहे हैं। इसके पश्चात् ताल निरूपण और तालों के नाम, जैसे- चच्चत्पुट, चाचपुट, षपितापुत्रक, उद्घट्ट, सिंहलील, गजलील आदि बीस तालों में प्रयुक्त लघु-गुरु आदि के संयोजन को बताया गया है। नवें अध्याय में वाद (विवाद) के विषय में बताया गया है। इसमें बताया गया है कि वाद का मध्यस्थ राजा का आसन सभा मण्डप में कहां हो, रानी किधर बैठे, वाग्गेयकार, कविताकार, नर्तक किस ओर बैठें और अन्य विशेष विधाओं के विशेषज्ञ तथा अपने पक्ष का मण्डन करने वाले किधर बैठें और प्रतिवादी (खण्डन करने वाले) कहां बैठें। फिर 'वाद' के कारण, वाद किनसे करना चाहिए आदि को बताकर उनके लक्षण बताए हैं। इसके उपरान्तं, वाग्गेयकार के गुण-दोष गायक तथा गायिकाओं के प्रकार तथा उनके गुण-दोष, आदि को समझाकर साथ ही वैणिक (वीणा वादक), वांशिक (वंशी वादक) के नौ-नौ प्रकार बताये हैं। इसी प्रकार कविताकार के तथा अवनद्ध वाद्यों के वादकों के गुण-दोषों का उल्लेख किया है। फिर नर्तकों के गुण-दोषों का वर्णन करके कहा है कि इस आधार पर जय-पराजय का निर्णय करना चाहिए। साथ ही यह भी बताया गया है कि जय- पराजय का निर्णय करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।


संगीत जगत ई-जर्नल आपके लिए ऐसी कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ लेके आ रहा है। हमसे फ्री में जुड़ने के लिए नीचे दिए गए सोशल मीडिया बटन पर क्लिक करके अभी जॉईन कीजिए।

संगीत की हर परीक्षा में आनेवाले महत्वपूर्ण विषयोंका विस्तृत विवेचन
WhatsApp GroupJoin Now
Telegram GroupJoin Now
Please Follow on FacebookJoin NowFacebook
Please Follow on InstagramInstagram
Please Subscribe on YouTubeYouTube

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top