हृदय कौतुक और हृदय प्रकाश
हृदय नारायण देव 'गढ़ा मंडला' के राजा थे। सन् 1651 ई. में शत्रुओं द्वारा पराजित होकर मंडला जाकर बस गये। इनके पिता का नाम प्रेमशाह उर्फ प्रेमनारायण था। हृदय- नारायण देव द्वारा 'हृदय कौतुक' और 'हृदय प्रकाश' की रचना 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की गई।
हृदय कौतुक - यह छोटा-सा ग्रंथ है। इसमें ग्रंथकार ने लोचन का स्वर सिद्धान्त स्वीकार किया है और उनकी 'संस्थान पद्धति' को स्वीकर करते हुए उसमें एक संस्थान और बढ़ा दिया था। यह तेरहवां संस्थान उनके अपने रचे हुए नए राग से सम्बन्धित था, जिसमें त्रिश्श्रुतिक 'म' और त्रिश्रुतिक 'नी' का प्रयोग किया गया था। इस राग एवं संस्थान का नाम 'हृदयरामा' घोषित किया। राग की परिभाषा देने वाले श्लोक भी दिए गए हैं। इसके साथ ही इन्होंने राग वर्गीकरण सम्बन्धी एक नवीन पद्धति की घोषणा भी की थी। इसके अन्तर्गत रागों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि चार वर्णों में विभाजित किया था। इसमें सम्पूर्ण जाति के रागों को ब्राह्मण, षाडव जाति के रागों को 'क्षत्रिय,' औडव जाति के रागों को 'वैश्य' और शेष 'शूद्र' वर्ण के राग कहे गए। इस ग्रंथ में रागों का शास्त्रीय परिचय लक्षण रूप में दिया गया है। यह ढंग पं. विष्णु नारायण भातखण्डे को इतना पंसद आया कि इन्होंने स्वयं भी राग परिचय देते हुए इसी शैली का अनुसरण किया है।
हृदय प्रकाश- इस ग्रंथ में हृदयनारायण देव ने लोचन कवि के 12 मेल पद्धति सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए मेल की परिभाषा 'मेलः स्वर समूहः स्याद्रागव्यंजन शक्तिमान्' अर्थात् मेल स्वरों का वह समूह है जो राग उत्पन्न करने में समर्थ हो, इस रूप में दी है। अपने स्वर प्रकरण में इन्होंने अन्य प्राचीन एवं मध्यकालीन विद्वानों द्वारा मान्यता प्राप्त स्वर श्रुति सिद्धान्त को स्वीकार किया है। विकृत स्वर व्यवस्था में,शुद्ध स्वर से एक, दो अथवा तीन श्रुति चढ़े स्वरों को तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम तथा एक अथवा दो श्रुति उतरे स्वरों को कोमल कहा है। जब 'नि' और 'म' क्रमशः स और प स्वरों की तीसरी श्रुति पर स्थापित होते हैं तो 'मृदु सा' और ' मृदु प' कहलाते हैं। ग्रंथकार वादी स्वर को राजा, संवादी स्वर को मन्त्री, अनुवादी स्वर को सेवक और विवादी स्वर को शत्रु की संज्ञाएं प्रदान करते हैं और वादी तथा संवादी स्वरों का पारस्परिक अन्तर बारह श्रुतियों को स्वीकार कर पड्ज पंचम भाव की पुष्टि करते हैं। राग और तान में अन्तर दशति हुए दो, तीन अथवा चार स्वरों के समूह को 'तान' और 5,6 अथवा 7 स्वरों के क्रम को क्रमशः औड़व, पाड्व और संपूर्ण राग मानते हैं। वीणा के तार पर स्वर स्थापना का सिद्धान्त पं. अहोबलका ही स्वीकार किया है, जिसमें तार के ठीक मध्य में षड्ज, समस्त तार के पहले एक तिहाई पर पंचम, दोनों षडज स्वरों (मुक्त तार और समस्त तार का मध्य) के बिल्कुल मध्य में 'मध्यम', पडज और पंचम के ठीक मध्य में 'शुद्ध गान्धार', पडज और पंचम के बीच के तार के पहले एक-तिहाई चिन्ह पर ऋषभ, पंचम और पडज (तार सप्तक) के बीच के तार के दूसरे एक तिहाई चिन्ह पर 'निषाद' और पंचम तथा तार षडज के बिल्कुल मध्य में' धैवत' स्वर होंगे। इस प्रकार दोनों ही ग्रंथों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि 'हृदय कौतुक' ग्रंथ पर कवि लोचन के 'राग तरंगिणी' और 'हृदय प्रकाश' ग्रंथ पर पं. अहोबल के 'संगीत परिजात' नामक ग्रन्थ की छाया दिखती है।