पखावज की संगति

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पखावज की संगति

                        संगीत वाद्य के रूप में पखवाज का प्रयोग सामान्यतः ध्रुपद आदि जैसे गायन शैली तथा वीणा, एवं सुरबहार आदि जैसे वाद्यों के लिए होता है। पखवाज के प्रचलित तालों में चौताल, सूलताल, धमार, तीव्रा एवं अष्टमंगल आदि प्रमुख हैं। कभी-कभी वसंत, रूद्र, मत्त, लक्ष्मी एवं ब्रम्ह आदि तालों का वादन भी इस पर सुनने को मिलता है, लेकिन कभी-कभी ही ध्रुपद गायन का आरंभ सामान्यतः १२ मात्रे के चार ताल (चौताल) से होता है। इसके साथ बहुत तेज ध्वनि और गर्जन, तर्जन वाली संगती को शास्त्रोक्त नहीं माना गया है। मधुर, मुलायम आवाज में विभिन्न प्रकार के लयों वाले ऐसे बोल जो गायक की वाणी के सदृश हो, ऐसे वादन को उपयुक्त और उचित माना गया हैं। चौताल में ध्रुपद गाने के बाद गायक प्रायः सूलताल के द्रुतलय में ध्रुपद गाते हैं। चौताल में रंजकता पर बल दिया जाता है, तो सूलताल में चमत्कार प्रदर्शन पर, अतः इस में तीव्र गति और तीव्र ध्वनिवाली रचनाओं की प्रस्तुति मान्य है। इसके बाद गायक प्रायः होरी-धमार गायन की प्रस्तुति करते हैं। हालांकि, शाब्दिक दृष्टि से रचनायें श्रृंगार प्रधान होती है। इनमें होली खेलने के प्रसंग का वर्णन होता है। किंतु धमार गायन और उसके साथ पखवाज की जोरदार संगति श्रोताओं को, दर्शकों को खूब रोमांचित और चमत्कृत करती है। ओजपूर्ण गायन, कांटे की संगति, विविध प्रकार की लयकारियाँ, सम विषम और अतीत-अनागत के प्रयोग तथा गायक और पखवाजी की। नोक-झोंक श्रोताओं, दर्शको को खूब आनंदित करती है। इसीलिए यहां ऐसी ही संगति करनी चाहिए।


          बीणा सुरबहार आदि की संगति के समय पखवाजी को मधुर मुलायम तथा कर्णप्रिय बोलों का ही प्रयोग करना चाहिए। अगर मुख्य वादक की ध्वनि का स्तर साठ प्रतिशत हैं तो पखवाज का चालीस प्रतिशत होना चाहिए। इन दिनों संतूर, सितार, सरोद, गिटार के साथ-साथ बांसुरी वादक भी अपनी संगति के लिये पखवाज को लेने लगे है। प. रवि शंकरजी, उ. अहमद अलीखाँ, पं. भजन सोपारी, पं. हरीप्रसादचौरसिया और पं. विश्वमोहन भट्ट आदियों का अनुसरण आज काफी लोग करने लगे हैं। पं. जसराज भी अपने गायन की संगति के लिए कभी-कभी तबले के साथ-सब पखवाजी को संगति के लिए ले रहे हैं। ऐसे में प्रस्तुत की जा रही रचना की प्रकृति को देखकर ही संगति करनी चाहिए। जैसे पं. जसराज अगर भजन गायन की संगति के लिये जब पखवाज को लेते हैं तो उनके साथ जोरदार परनों और लमड तिहाइयों का प्रयोग उचित नहीं माना जायेगा, वहां तो मंद गति से चलनेवाला, गंभीर नादयुक्त, भावपूर्ण ठेका ही श्रोताओं को आध्यात्मिक गहराइयों की ओर ले जाने में सहाय सिद्ध होगा।


           सादरा नामक गायन शैली की संगति मध्यलय झपताल में होती है। एक विशेष बात... संगति के सिलसिले में कोई सर्वमान्य और सर्व कालिक नियम नहीं बनाया जा सकता हैं। प्रस्तुत की जा रही रचना की प्रकृति और मुख्य कलाकार के मनोभाव को समझते हुए इसका त्वरीत निर्णय करना पड़ता है। वैसे भी संगीत दिल और दिमाग दोनों से जुड़ी हुई कला है, इसीलिए दिमाग से काम लेते हुए हर दिल को जीतने की कोशिश करनी चाहिए ।


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