नगमाते आसफ़ी
मोहम्मद रज़ाकृत नगमाते आसफ़ी
मोहम्मद रजा का जन्म 18 वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के जौनपुर नामक शहर में हुआ। इन्होंने जौनपुर के श्रीवते हसन नामक गायक से शोज एवं मर्सिया नामक गीत की शिक्षा ली थी। मोहम्मद रजा आसिफउद्दीला (शासनकाल 1775 से 1795 ई.) के दरबार में मुसाहिब थे। जब आसिफउद्दीला (अवध का नबाव) ने फैजाबाद के स्थान पर लखनऊ को अपनी राजधानी बनाया तो मोहम्मद रज़ा लखनऊ जाकर स्थायी रूप से बस गये। उन्हें संगीत का अच्छा ज्ञान था और वे सुन्दरी (छोटा सितार) नामक वाद्य बजाते थे। इनके पुत्र का नाम गुलाम राजा था। यह मसीतखां का शिष्य था। मोहम्मद रजा ने अपने पुत्र गुलाम राजा को सितार की प्रारंभिक शिक्षा प्रदान की, तत्पश्चात् गुलाम रजा ने उस्ताद मसीत खां से सितारवादन की गहन शिक्षा प्राप्त की। गुलाम रजा ने ही रजाखानी गत की रचना करके उसका प्रचार एवं प्रसार किया। कुछ वर्षों के पश्चात् मुहम्मद रजा बिहार के पटना नामक शहर में जाकर बस गये, उन्होंने सन् 1813 ई. में नगमाते आसाफी नामक ग्रंथ की रचना फ़ारसी भाषा में की। मोहम्मद रजा की यह पुस्तक संगीत के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इस ग्रन्थ में बिलावल थाट के स्वरों को शुद्ध स्वर सप्तक माना गया है। इसमें अनेक लक्षणगीत दिए गए हैं। मोहम्मद रजा ने भरत मत, हनुमान मत, कल्लिनाथ मत एवं सोमेश्वर के राग वर्गीकरण की आलोचना की है। इन्होंने भैरव, मालकोंस, हिंदोल, श्री, मेघ, नट रागों को प्रमुख राग माना है। प्रत्येक राग की भार्यायें तथा पुत्र-वधू रागों का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रकार मोहम्मद रजा का यह ग्रन्थ राग-रागिनी वर्गीकरण पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। इस ग्रंथ में पूर्ववर्ती संगीत तथा तत्कालीन प्रचलित संगीत में परस्पर बलात् संबंध स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। मोहम्मद रजा ने अपने पूर्ववर्ती संगीत के उन्हीं सिद्धान्तों को अपने ग्रन्य में स्थान दिया है जो उनके काल मेंभी क्रियात्मक संगीत में प्रयुक्त हो रहे थे। संगीत संबन्धी जो सिद्धान्त पुराने हो गये थे तथा जिनका महत्व केवल ग्रन्थों तक ही सीमित रह गया था, मोहम्मद रजा ने उनका परित्याग कर दिया और प्रचलित संगीत के आधार पर ही नई मान्यतायें स्थापित की। इस कारण 'नामाते आसाफी' ग्रन्थ को मौलिकता में वृद्धि हुई एवं यर्तमान संगीत का मोहम्मद रज़ा के युग के संगीत से सीधा संपर्क स्थापित हो गया।