भरतभाष्य
सातवां अध्याय - प्रसंगवश पुनः सात स्वरों का निरूपण, तीन ग्राम आदि का लक्षण, रागोत्पत्ति, स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, जाति साधारण, स्वर साधारण, तान, स्वर, श्रुति, श्रुतियों के रस, जाति लक्षण, ग्रह-अंश आदि, जाति लक्षण, अलंकार भेद, गीति और वर्ण का भेद, मागधी आदि चार गीतियां, प्रत्येक में पांच-पांच भेद, अलंकार का महत्व, गमकों के नाम और लक्षण, जातियों के अंशानुसार गीतियों के रस और छन्द, गीतियों देवता, ग्राम-भेद से गान में ऋतु काल आदि का नियम शुद्धा आदि गीति-भेद से गान में काल नियम, रागों की अनन्तता, अंश का अभेद होने पर भी राग में भेद, रागों का (अन्तराल) आलापक, रूपक, गमक, राग का लक्षण, ग्राम रागों के भेद और संख्या, भाषा, विभाषा, अन्तर भाषा, ग्राम राग और भाषा आदि का विस्तृत विवेचन किया है।आठवां अध्याय - ताल की मुक्तता, बिदारी का लक्षण और भेद, गीत वस्तु और वस्तु के अंग, वृत्त, द्विविध वस्तुगत (रूपक) विदारी (गीत खण्ड), ताल के कुछ पारिभाषिक शब्दों का निरूपण सात प्रकार के गीत, सामगान के उदाहरण, उसमें तालादि का नियम, भाषा-विभाषा आदि के रस, वृत्तताल, वृत्त-भेद से तालभेद, पाठ्य और गेय, तीन स्थान और पाठ्य में उनका प्रयोग, चार वर्ण और उनका रसों में प्रयोग, द्विविधा काकू, छह अलंकार और छह अंग, रसों में इनका प्रयोग, विराम के भेद और अभिनय में उनका प्रयोग आदि बताये गये हैं।
नवां अध्याय - पांच प्रकार की ध्रुवा, सम, विषय, आदि के भेद से ध्रुवाओं की मूल जाति, संख्या निरूपण, ध्रुवाओं के वार्णिक वृत्त, ध्रुवाओं के मात्रावृत्त, गाथानाम, मात्रावृत्तों को विधि, ताल की अनन्तता, ध्रुवा आदि में मात्रा इत्यादि बताये हैं।
दसवां अध्याय - लय, ताल, द्विपदी, भंग (खास गीत प्रकार) उपभंग आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। ग्यारहवां अध्याय - मार्ग लक्षण, मार्ग से देशी की उत्पत्ति, दो प्रकार के गीतांङ्ग, देशी गीतों में नाना देशों की भाषा का अनुकरण, नानाविध तालात्मक गीत, प्रबन्ध गीत, प्रबन्धों के भेदों का वर्णन किया गया है।
बारहवां अध्याय - तत् वाद्य, रावण की तपस्या से चीणा की उत्पत्ति, वीणा का प्रयोजन और महात्म्य, वीणाओं का वैशिष्टय, नानाविधि वीणाओं की निर्माणविधि, मतंग के मत से वीणा वादक का लक्षण, वीणा वादन की विविध विधियां इत्यादि बतायी गयी हैं।
तेरहवां अध्याय - सुषिर वाद्य, सुषिर के भेद, श्रुति इत्यादि को बताया गया है। चतुर्विध ताल साम्य, आठ प्रकार का वाद्य साम्य, भरतोक्त वाद्यों की अठारह जातियां, वाद्य जातियों के दस अंग, 21 अलंकार, नाट्य और नृत्य में पांच वाद्यों का विनियोग नियम, तालांग से वाद्य नियम, छन्द के अनुसार वाद्य नियम, ताल आदि के विषय में अल्पज्ञ का दोष, वाद्य प्रयोग का समय, वाद्य प्रयोग का श्रुतिफल आदि इस अध्याय में प्राप्त होता है।
इसके बाद दो अध्याय प्राप्त नहीं है जो अप्राप्य हैं। दूसरा भाषा विधान है।सोलहवां अध्याय- गृह उंछंद का है जो प्राप्त नहीं होता
सत्रहवां अध्याय - जिसमें संस्कृत, अपभ्रंश का प्रयोग करना है, यह बताया गया है। यह अन्तिम अध्याय है।
ग्रंथ का महत्व- इसमें ऐसी बातों का निरूपण है जो परम्परा के ग्रंथों में नहीं मिलती। बृहद्देशी के बाद एवं संगीत रत्नाकार के कुछ पहले का यह महत्वपूर्ण और विशाल ग्रन्थ है। शिक्षा संबंधी विषय को सामान्यतः वैदिक (उच्चारण) साहित्य में रखा जाता था। यह एक ही विद्वान् है जिन्होंने शिक्षा को संगीत में रखा है। यह एक ही ऐसा ग्रंथ है जिसमें शिक्षा पर अलग से अध्याय लिखा गया है। इसी प्रकार छन्द मूलतः छन्दशास्त्र का विषय था, लेकिन इसमें छन्द अलग से अध्याय था, भले ही आज उपलब्ध नहीं है। भाषा संबंधी विषय साहित्य शास्त्र का था, लेकिन भाषा को भी इन्होंने अपने ग्रंथ में समाविष्ट किया है। ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर अनेक पूर्वाचार्यों के मतों का उल्लेख प्राप्त होता है। ऐसे पूर्वाचार्य जिनके बारे में आज प्रायः कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है, इस दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। इसमें कुछ विषय ऐसे हैं जो अन्य ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होते जैसे- नारद के मत से मूर्च्छनाओं के नाम, तीनों ही ग्रामों की तान संख्या, कश्यप आदि के मत से तीन ग्रामों की तान संख्या, अठारह प्रकार की पाणि का लक्षण, श्रुतियों के रस, गीति के भेद, अंश-भेद से जाति में छंद, गीतियों के देवता, सामगान के उदाहरण उसमें ताल का नियम, वृत्त-भेद से ताल भेद, पाठ्य गेय, चार वर्ण और रस में उनका प्रयोग, द्विविधा काकू, भंग, उपभंग, नृत्य में पांच वाद्यों का विनियोग नियम इत्यादि ऐसे तथ्य हैं जो इस ग्रन्थ को अत्यन्त विशिष्ट स्थान प्रदान करते हैं।