स्वामी हरिदास जी
स्वामी हरिदासजी एक रससिद्ध भक्त गायक थे। भक्तों में वे प्रथम ध्रुवपद गायक हुए हैं। इनका नाम तानसेन के नाम के साथ जोड़ दिया गया है। महापुरुषों के महाप्रयाण के है। सैकड़ों वर्ष पश्चात् उनके निकटवर्ती कभी-कभी ऐसी बातें लिख देते हैं जिनकी कोई ऐतिहासिक प्रमाणिक जानकारी प्राप्त नहीं होती और कालान्तर में विवाद बन जाती हैं। जैसे- इनको मृत्यु के 200 वर्ष बाद ही लोगों ने यह कल्पनायें कर दीं कि हरिदासजी को तानसेन का गुरु कहा गया। अक्कधर स्वामीजी का गाना सुनने गया था। हरिदासजी के भक्तों ने ऐसे चित्र भी बना दिये हैं जिनमें अकबर और तानसेन स्वामी हरिदासजी की सेवा में उपस्थित हैं। कुछ ने तो किंवदन्तियों को आश्रय मानकर हरिदासजी का जन्म संवत् तरह-तरह से निश्चित किये हैं। भक्त सिन्धु के अनुसार 1384 ई., गोपाल कवि के अनुसार 1452 ई., बलदेव कवि ने 1458 ई., सहचरिशरण ने 1478 ई., 'निजमत सिद्धांत' ने 1480 ई., सुदर्शनसिंह चक्र ने 1512 ई., गोस्वामी रामनाथजी शास्त्री के अनुसार 1527 ई., डॉ. गोस्वामी के अनुसार 1478 ई. के आसपास मानते हैं।
जन्म-हरिदासजी के सम्बन्ध में दो मत हैं- एक पक्ष कहता है कि वे आशुधीरजी के शिष्य थे। हरिदासजी के पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम चित्रा था। वे ब्राह्मण थे। बख्शू और हरिदासजी की शैली एक है परन्तु हरिदासजी के धुपदों की भाषा और शैली कहीं अधिक प्रांजल, उदात्त, सरस और मनोरम है, अतः हरिदासजी बछरा के परवर्ती हैं और इस दृष्टि से स्व. गोस्वामी रामनाथजी शास्त्री के अनुसार हरिदासजी का जन्म वर्ष का अनुमान 1527 ई. लगाया जाता है। हरिदासजी के सम्बन्ध में दूसरा पक्ष यह है कि स्वामी हरिदासजी आशुधीरजी के पुत्र थे। उनकी माता का नाम गंगा था। उनका जन्म हरिदासपुर में हुआ था। इनकी पत्नी का नाम विजया या हरिमती था। हरिदासजी के काव्य में श्रृंगार-शोभा वर्णन यह बताता है कि हरिदासजी को गृहस्थ जीवन का अनुभव था। दूसरे पक्ष के समर्थन में डॉ. शरणबिहारी गोस्वामो ने अखण्डनीय तर्क दिये हैं। पहले मत का खंडन किया है, दूसरा मत ही सही हो सकता है।
हरिदासजी ने अपना दो प्रकार से योगदान दिया है-
(1) संगीत क्षेत्र में योगदान - संगीत के क्षेत्र में इनके सवा सौ पद संग्रहीत हैं।' केलिमाल' में ग्यारह रागों का प्रयोग हुआ 'नट' (दो पद), कान्हरा (तीस पद), के द्वारा (बाईस पद), कल्यान (बारह पद), सारंग (ग्यारह पद), विभास (दस पद), बिलावल (दो पद), मलार (आठ पद), गौड (दो पद) और बसन्त (पांच पद) स्वामीजी द्वारा प्रयुक्त हुए हैं। तन्तुवाद्यों में किन्नरी और अधौटी के साथ ही रबाब जैसा अभारतीय वाद्य भी पदों में चर्चा का विषय बना है। अवनद्ध वाद्यों में मृदंग की चर्चा है तो 'डप' जैसे अभारतीय वाद्य की भी चर्चा है। घन वाद्यों में 'ताल' है, तो सुषिर वाद्यों में वंशी स्वामीजी के पदों में आये हैं।' सुर देना', 'आलापना', 'लाग- डाट', 'उरपतिरप', 'चन्द्रागति', 'औघर ताल देना', 'ताण्डव, 'लास्य', 'अंगहार' जैसे पारिभाषिक शब्द, भी के ध्रुपदों में आये हैं। 'केलिमाल' के धृपदो में आये है |
(2) साहित्य के क्षेत्र में योगदान - प्रकृति वर्णन, रूपचित्रण, प्रेमव्यंजना, अलंकार-विधान इत्यादि बातें हरिदासजी के काव्य की विशेषताएं हैं। सामान्यतया स्वामीजी की भाषा ब्रजभाषा थी, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्द, तदभव शब्द और देशज शब्द, भी हैं। बन्दे, अख्तपार, दर, पिदर, सदके, बिसाठ, सतरंज, रुछ, फ़ील, पयादे जैसे शब्द भी हैं।