संगीत की संस्थागत शिक्षण प्रणाली
शास्त्रीय संगीत जिसको कि केवल लोकरंजन अथवा भक्ति के साधन के रूप में देखा जाता था, उसका जब महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षण के रूप में प्रवेश हुआ, तब संगीत की स्थिति में कई परिवर्तन आए। जहां एकओर उसकी उन्नति हुई वहीं दूसरी ओर परम्परागत रूप से चत्ती आ रही घरानेदार शिक्षण पद्धति को आधात पहुंचा। शिक्षा के विषय के रूप में संगीत के समावेश से संगीत का सम्पूर्ण देश में प्रचार एवं प्रसार हुआ, साथ ही इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ गए।
संगीत कला मानव-जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक जुड़ी हुई है। जीवन का कोई भी कार्य इसके बिना अधूरा ही है। प्रत्येक अवसर पर संगीत किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। चाहे वह कोई मांगलिक कार्य हो अथवा ईश्वर आराधना हो या फिर युद्ध-क्षेत्र, प्रत्येक क्षेत्र संगीतविहीन अपूर्ण हैं। प्रत्येक स्थान पर संगीत का अपना महत्व है। संगीत की शिक्षण पद्धति दो प्रकार की है- (1) संस्थागत शिक्षण पद्धति, (2) गुरु-शिष्य प्रणाली। प्रायः 19वीं सदी के पूर्व तक संगीत की शिक्षा गुरु-शिष्य प्रणाली से दी जाती थी, इसके बाद संस्थागत शिक्षण पद्धति की शुरुआत लगभग 1880 ई. के आसपास मौलाबक्श (बड़ोदा) द्वारा और सुरेन्द्र मोहन टैगोर (कलकत्ता) द्वारा हो चुकी थी। वास्तव में संगीत- संस्थाओं के युग का सूत्रपात पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर तथा पं. विष्णु नारायण भातखंडे के द्वारा हुआ। जिन्होंने क्रमशः 1901 में लाहौर में तथा 1927 में लखनऊ में म्यूजिक कॉलेज की स्थापना की।
विशाल जलनिधि के समान संगीत का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक, गूढ़ और गहरा है। इस विशालता, गूढ़ता और गहराई ने संगीत में शोधकार्य की सीमाओं को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। युगदृष्टा पं. विष्णु नारायण भातखण्डे और पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने आधुनिक युग में शोध-प्रवृत्ति को जागृत किया। उन महापुरुषों ने काल और समाज के भावी परिवर्तनों का अनुमान करते हुए संगीत में घरानेदार पद्धति में संशोधन किया। जहां पलुस्करजी ने शिक्षण की पुरानी गुरुकुल पद्धति व घरानेदार पद्धति का आधार लेते हुए संस्थागत शिक्षण पद्धति की परिकल्पना की, वहीं भातखण्डे ने विशुद्ध संस्थागत शिक्षण पद्धति के निर्माण के लिए भिन्न-भिन्न पाठ्यक्रमों का निर्माण कर संगीत-कला को एक विषय के रूप में विद्यालय और विश्वविद्यालयों के प्रांगण में, अन्य विषयों के समकक्ष खड़ा कर दिया। इससे संगीत में शोधात्मकप्रवृत्ति को मजबूत आधार मिला। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध और, स्वरलिपि पद्धति का निर्माण कर दिया इससे भविष्य के शोधार्थियों का मार्ग सरल हो गया।
संस्थागत शिक्षा के पूर्व तक हमारे देश में संगीत की शिक्षा विद्यालयी रीति से न देकर गुरु-शिष्य परंपरानुसार दी जाती थी। गुरु जिस प्रकार चाहता, शिष्य को सिखाता था। प्रायः गुरु से प्रश्न करने का अधिकार शिष्य को नहीं होता। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि यदि कोई शिष्य प्रश्न करने की हिम्मत भी करता, तो उसे आगे की शिक्षा प्राप्त करने से बंचित कर दिया जाता था। संगीत की शिक्षा देने की भी कोई निर्धारित विधि नहीं होती थी। यह सब कुछ गुरु पर ही निर्भर करता था। गीतों के नोटेशन लिखने की हमारे यहाँ कोई प्रणाली नहीं थी।
नाट्यशास्त्र के उपरान्त हमें अनेक सांगीतिक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनसे तत्कालीन संगीत की स्थिति ज्ञात होती है। संगीत में नवीन शैलियों के विकास के साथ-साथ विभिन्न घरानों का उदय हुआ। इन घरानों के माध्यम से संगीत का आगे विकास हुआ। संगीत वह कला है जिसे शिष्य अपने गुरु के सम्मुख बैठकर ही सीख सकता है। गुरुओं की विभिन्न शैलियों के आधार पर इन घरानों का निर्माण हुआ। ये घराने आज भी संगीत जगत् में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। परन्तु संगीत की शिक्षण-प्रणाली में थोड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले शिष्य घराना पद्धति के अनुसार किसी कलाकार को गुरु स्वीकार करके उनके पास जाकर उनसे संगीत की शिक्षा ग्रहण करता था, परन्तु सामाजिक परिवर्तन के साथ- साथ जब शिक्षा के क्षेत्र में विकास हुआ, तब जिस प्रकार अन्य विषयों की शिक्षा विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान की जाने लगी, उसी के समान संगीत की शिक्षा भी विभिन्न संस्थानों, विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश कर गई। इस प्रकार घराना पद्धति पर थोड़ा-प्रभाव तो अवश्य पड़ा, परन्तु इसका महत्व बना रहा। क्योंकि इस प्रकार की विश्वविद्यालयीन शिक्षा में वह सम्पूर्णता नहीं है जो पूर्णता घरानेदार तालीम या गुरु-शिष्य परंपरा में निहित थी। अतः यदि कोई शिष्य संगीत के क्षेत्र में विशेष स्थान पाना चाहता है तो उसे किसी न किसी गुरु की शरण में जाना ही पड़ेगा। क्योंकि शिक्षण संस्थानों में शिक्षा का ढंग थोड़ा भिन्न रहताहै। उदाहरणार्थ, एक शिक्षण संस्थान में विभिन्न घरानों के चार गुरु हैं तब यदि एक शिष्य उन सबसे एक साथ शिक्षा ग्रहण करे तो उसके लिए वह शिक्षा ज्ञानवर्धक तो अवश्य हो सकती है, परन्तु इससे वह उतना सूक्ष्म लाभ नहीं उठा सकता, वह अपनी एक पहचान नहीं बना सकता, उसके लिए विद्यार्थी को किसी एक शैली को अपनाना आवश्यक है। चार भिन्न-भिन्न शैलियों को मिलाकर यह सम्भव नहीं है। इसी प्रकार विद्यालयों में अन्य विषयों के ही समान संगीत में भी प्रत्येक वर्ष का अपना पाठ्यक्रम होता है। जबकि संगीत तो वह कला है जिसमें एक चीज के अभ्यास में ही वर्षों व्यतीत हो जाते हैं। तब एक वर्ष में सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पूर्ण करने में न तो शिष्य अधिक ग्रहण कर पाता है और न ही गुरु के पास उत्तना समय होता है कि वह प्रत्येक शिष्य की क्षमता के अनुसार उनको अभ्यास कराते हुए शिक्षा प्रदान करे।
घरानेदार शिक्षण पद्धति जो कि भारतीय शास्त्रीय संगीत पद्धति की अपनी विशेषता है, उस पद्धति पर भी आज की संस्थागत शिक्षण प्रणाली का प्रभाव पड़ा है। यह संगीत शिक्षा प्राप्त करने की श्रृंखला जो कि परम्परागत रूप से चली आ रही थी, विद्यालयों में संगीत शिक्षा के प्रवेश से उसमें कुछ परिवर्तन आया है। इसके अतिरिक्त टेक्निकल सिस्टम के साथ ही शिक्षा पद्धति की इस प्रणाली पर कुछ प्रभाव पड़ा। इस सबको जहाँ हम एक ओर अच्छा मान सकते हैं, वहीं दूसरी ओर इससे घरानेदार पद्धति का हास भी हुआ। उदाहरणार्थ, जैसे यदि रिकार्ड अथवा टेप को लें तो जहाँ एक ओर इनके आविष्कार से संगीत जगत् को बहुत लाभ प्राप्त हुआ है, इनके माध्यम से हम कलाकारों को सुनकर उनकी शैली के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। वहीं दूसरी और विद्यार्थी इन्हीं के माध्यम से बिना गुरु की सहायता के स्वयं ही शिक्षा ग्रहण करने का प्रयास करता है तब उससे लाभ के स्थान पर हानि की अधिक सम्भावना रहती है।
अंत में कहा जा सकता है कि गुरु शिष्य परम्परा में गुरु- शिष्य अथवा उस्ताद-शागिर्द सम्बन्ध शुद्ध और पवित्र होता था, जिससे कोई व्यक्तिगत लाभ या स्वार्थ का कोई भी भाव नहीं होता था। गुरु को हार्दिक सहानुभूति और शिष्य की श्रद्धा और उसका सेवा-भाव इस प्रकार के सूत्र थे जो दोनों को एक-दूसरे से बांध देते थे। गण्डा बांधने और बंधवाने कीरस्म में भी एक शुद्ध धार्मिक भावना होती थी। गुरु बाध्य था अपनी विद्या को स्वीकार और ग्रहण कराने के लिए शिष्य स्वयं एक सुपात्र बने। इस पवित्र पारस्परिक सम्बन्ध में प्राचीन आश्रम की शिक्षा की पवित्र भावना का अंश भी था। दर्शन, धर्म, अध्यात्म, ध्यान साधना, कला, ज्ञान, गूढ़ विद्या, इन सबकी शिक्षा इस प्रकार गुरु शिष्य को देता था और शिष्य उसका अध्ययन और मनन करता था। यही थी प्राचीनकाल की शिक्षा पद्धति।
संगीत के गुरुओं और उस्तादों ने इसी प्राचीन प्रथा का अनुकरण घरानेदार पद्धति में भी किया था। शिक्षा का यह ऊँचा आदर्श प्राचीन था। मगर संगीत-शिक्षा के क्षेत्र में शायद आधुनिक युग की आवश्यकताओं की पूर्ति इस पुरानी पद्धति से नहीं हो सकती थी। इसीलिए पंडित विष्णु दिगम्बरजी ने सबसे पहले लाहौर में विद्यालय खोला, बाद में इस तरह के संगीत विद्यालय और भी शहरों में खुल गये और पूना में उनका एक अखिल भारतीय केन्द्र स्थापित हो गया। इन विद्यालयों से संगीत का प्रचार-प्रसार तो काफी हुआ ही साथ ही इनसे प्रोफेसर, लेक्चरर, शिक्षक, अच्छे श्रोता, प्रशंसक, विद्वान और शोधकर्ता आदि निकले जिन्होंने आगे चलकर अपने-अपने विद्यालयों का नाम रोशन किया और आज भी कर रहे हैं। विशेषकर संगीत के क्षेत्र में अनुसंधान की आवश्यकता और व्यापकता को संस्थाओं के द्वारा ही विस्तृत भूमि (Plateform) प्राप्त हुआ। साथ ही संगीत का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार संस्थाओं के द्वारा ही संभव हुआ।