शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत में राग, लय और ताल का परिचय
शास्त्रीय संगीत में राग के नियमों का विशेष महत्व है। स्वर वर्णों की ऐसी रचना जो सुनने में प्रिय लगे उसे हा कहते हैं। सोकसंगीत में लोके धुन 20 या 25 आवर्तनको होती है। लोकधुन एक में लोक धन के नियमों को धान में रखकर जितनी भी एयर बनाये ये सभी राग के अवगतआते हैं। राग और लोकधुन में कोई साम्य नहीं है। लोकधुन पूर्व नियोजित होती हुई लचीली होती है। लोकधुन सोमित होती है। परन्तु राग बन जाने से उसके विस्तार का क्षेत्र बढ़ जाता है। लोकसंगीत की धुनें पूरी तरह शास्त्रीय न बनकर उपशास्त्रीय रह गई है। कभी-कभी कार्यक्रमों के अंत में इन धुनों का प्रयोग होता है। लोक का अर्थ है देखना या जितना दिखाई पड़ता है और शास्त्र का अर्थ है जिसमें नियम हो। लोक और शास्त्र ये शब्द हमारी भारतीय धारणा में सामान्य रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। लोक शब्द हमारे ग्रन्थों में संस्कृत से आया जिसका व्यापक (विस्तार) अर्थ लिया जाता है परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ संकुचित हो गया और केवल क्षेत्र में प्रचलित संगीत के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।
संगीत में स्वर व ताल का महत्व बराबर है। यदि संगीत में स्वर शरीर है, तो ताल उसमें आत्मा के समान है। जिस प्रकार शरीर बिना आत्मा के मिट्टी का लॉदा मात्र है, उसी प्रकार बिना ताल के स्वर है। शरीर को चलने के लिए आत्मा का सहारा लेना ही पड़ेगा व आत्मा को सगुण रूप में आने के लिए सगुण रूप शरीर का सहारा लेना ही पड़ेगा; उसी प्रकार स्वर व ताल एक-दूसरे के आश्रित हैं। जनजीवन का सामान्य निर्वाह सभी देशों में समान है और उसको स्वरात्मक एवं लयात्मक अभिव्यक्ति उनका लोकसंगीत है। करूणा की अभिव्यक्ति 'क्रंदन' में जिस प्रकार राष्ट्रीय पार्थक्य नहीं, उसी प्रकार लय-ध्वनिसंपन्न लोकसंगीत में भाषा भिन्नता के अतिरिक्त मौलिक उपादानों की समानता है। 'लय' लोकसंगीत का एक अविभाज्य अंग होने के कारण उसका संरक्षण एवं संवर्द्धन लोकसंगीत की सभी धाराओं में आदिकाल से विद्यमान है। अधिकांश लोकसंगीत में मध्य एवं द्रुत लयों का प्रयोग होता है। विलंबित लय का प्रायः अभाव है। विलंबितता-हेतु अधिकतर अनिबद्ध शैली का ही प्रयोग होता है। साधारणतः विलंबितलय-हीन पंक्तियों को द्रुत या मध्य लय-साम्य के भीतर आयोजित करते हैं। भारतीय लोकसंगीत में लयात्मकता का महत्व किसी अन्य-देशीय लोकसंगीत से अधिक रहा है। अवनद्ध वाद्यों का विभिन्न लयों में कल्पना-शक्ति से प्रस्तार भारत में ही संभव हुआ है। हमारे लोकसंगीत में निश्चित काल-माप कानिर्वाह करते हुए असंख्य क्लिष्ट लय-स्वरूपों चर्म-वाधों पर होता है। हमारे लयवाद्य-वादकों को बाल्यावस्था से ही इन गति-स्वरूपों का इतना अभ्यास रहता है कि सहस्त्रों बोलों की रचना करते हुए भी ये लय-भ्रष्ट नहीं होते। अन्य देशीय संगीत-शास्त्री इस लयात्मकता से मंत्र-मुग्ध होते रहे हैं। का सर्जन फाक्स स्टैंगवेज ने 'म्यूजिक ऑफ हिन्दुस्तान' पुस्तक में भारत की लयात्मकता का गुणगान करते हुए लिखा है-"भारतीय काल-मापों की विविधता असीम है। वादक अपनी कुशलता से असंख्य बोलों का निर्माण करता रहता है और उनके आवर्तनों में काल-माप समान होते हुए भी अत्यंत कौशलपूर्ण नवीन बोलों का प्रदर्शन होता है। भारतीय संगीत में लय-ध्वनियों का क्रम प्रारंभ से अंत तक बना रहता है। केवल लय-वाद्य की संगति यथेष्ट समझी जाती है। वादक कभी पूरे हाथ से, कभी अँगुलियों से और कभी छोटी डंडियों से उन्हें बजाते हैं।" 'ताल' संगीत में विभिन्न सौंदर्यपूर्ण चलन-शैलियों का विकास करता है, उससे संगीत के संयम की रक्षा होती है।'ताल' संगीत को अनुशासित कर उसके सुगठित रूप, स्थायित्व एवं चमत्कारिता से श्रोताओं को विभोर कर देता है। ताल के ही कारण प्राचीन एवं वर्तमान संगीत को स्वरलिपि एवं बोललिपि द्वारा भविष्य के लिए सुरक्षित रखना संभव हुआ है। निश्चय ताल-गति के फलस्वरूप ही संगीत के क्रमिक आरोह, अवरोह, विराम आदि अत्यंत प्रभावोत्पादक हो जाते हैं। तालों में गति-भेद उत्पन्न कर रस-निष्पत्ति संभव होती है। करूण, श्रृंगार, रौद्र, बीभत्स आदि रसों के लिए तालों की विभिन्न गतियों का बड़ा महत्व है। 'छन्दः शास्त्र' के अनुसार 36 मात्राओं से भी अधिक मात्राओं के पदों की रचना की जा सकती है एवं जितनी मात्राओं के पद हो सकते हैं, उतनी मात्राओं के तालों का निर्माण भी हो सकता है। वे बुद्धि के चमत्कार अवश्य हैं, इसीलिए बुद्धि को ग्राह्य भी हैं। इन चमत्कारों का आनंद मेधावी पुरुष ही लिया करते हैं। धमार का छंद पर्याप्त वक्र है, किंतु उसमें भी समझने वालों के लिए अद्भुत आनंद छिपा हुआ है। किसे किस लयात्मक प्रयोग से आनंद की प्राप्ति होगी, यह कहना कठिन है। बड़े ताल विशेषतः विद्वानों के लिए आनन्दप्रद हैं।शास्त्रीय तालों के प्रयोग विभिन्न लयों के आधार पर पृथक् पृथक् होते हैं। झपताल, सूलताल, तीव्रा, दादरा, कहरवा आदि द्रुत गति में ही अच्छे लगते हैं एवं उनके प्रयोग तद्नुकूल संगीत शैली में योग्य प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार तीनताल, चौताल, एकताल, धमार आदि मध्य लय में एवं तिलवाड़ा, झूमरा, पंजाबी विलंबित लय में उचित लगते हैं। तीनताल, झपताल-सदृश तालों का प्रायः सभी संगीत-शैलियों में बहुलता से प्रयोग हो रहा है। लोकसंगीत में निश्चित अंतराल पर स्थापित किए गये छन्दों के समय को मापा जाता है (ताल दिखाने के लिए छन्द होते हैं) शास्त्रीय संगीत में लघु, गुरू आदि क्रियाओं द्वारा काल की निश्चतता को मापा जाता है। शास्त्रीय संगीत में स्वर की रंजकता पर ज्यादा ध्यान देने के कारण प्रायः लय को, मध्य या बिलम्बित रखना पड़ता है। इस कारण स्वर और लय दोनों ही संतुलित रहते हैं। लोकसंगीत में पद, स्वर, लय तीनों का आनन्द लेने के लिए लय द्रुत होती है। लोकसंगीत के तालों में- पश्तो, कहरवा, रूपक, दादरा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। शास्त्रीय संगीत में दस, बारह, चौदह, सोलह आदि मात्राओं के बड़े-बड़े ताल भी होते हैं जबकि लोकसंगीत में छह, सात, आठ आदि कम मात्राओं के ही ताल अधिक प्रयुक्त होते हैं।