महर्षी नारदकृत संगीत मकरन्द
'संगीत मकरन्द' नामक ग्रन्थ की रचना सातवीं, आठवीं या नवीं शताब्दी का योगदान माना जाता है। इसके ग्रंथकार नारद थे। संगीत के इतिहास में पांच महापुरुषों का परिचय मिलता है जो नारद के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। इनमें नारदीय शिक्षा के लेखक नारद, गान्धर्व वेद के रचनाकार नारद, भरत ऋपि के सहयोगी नारद, 'चत्वारिंशच्छत रागनिरूपण' के कर्ता नारद और संगीत मकरन्द के लेखक नारद उल्लेखनीय हैं।
इस ग्रंथ में प्रथम बार पुरुष राग, स्त्री राग, और नपुंसक रागों का वर्गीकरण है। परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने 'रागिनी' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। इनमें 20 पुरुष राग, 24 स्त्री राग और 13 नपुंसक राग गिनाये हैं; साथ में स्वर, मूर्च्छना, राग, ताल आदि विषयों को लिया गया है। रागों के इस वर्गीकरण का आधार उनका रस सिद्धान्त है। उनका कहना है कि रौद्र, अद्भुत तथा वीररस के लिए पुरुष राग; श्रृंगार, हास्य तथा करुण रस के लिए स्त्री राग और भयानक, हास्य तथा शान्त रस की उत्पत्ति के लिए नपुंसक रागों को प्रयोग में लाना चाहिए। इस ग्रंथ में रागों की जातियां (सम्पूर्ण, पाडव, औडव) तथा रागों के गायन समय को भी बताया गया है।श्रुतियों के नाम प्रचलित परम्परा से भिन्न हैं। भरतमुनि ने जहां तेतीस अलंकारों का वर्णन किया है, वहां इस ग्रंथ में केवल उन्नीस अलंकारों का निरूपण किया गया है। नखज, वायुज, चर्मज, लोहज और शरीरज नाम से नाद के पांच भेदों का उल्लेख है तथा वीणा के अठारह भेदों का वर्णन है। संगीत मकरंद में परिभाषा सहित 101 तालों का वर्णन किया गया है। इसमें ताल शब्द की निष्पत्ति करके दश प्राणों का उल्लेख किया है। मार्ग, मात्रा, क्रिया अंग, ग्रह, आदि पर भरतोक्त मान्यताओं की पुष्टि की है। इस ग्रंथ के संगीत अध्याय के प्रथम पाद में देव स्तुति और संगीत की परिभाषा है। इसी पाद में 'आदौ नादोत्पत्ति निरूप्यते' में नाद को पांच भेदों में विभाजित किया है जो नखज (वीणा), वायुज (वंशी), चर्मज (मृदंग), लोहज (धातु के वाद्यों की ध्वनि) और शरीरज (प्राणी की ध्वनि) जैसे हैं। फिर सात स्वरों का जानवरों से सम्बन्ध (जैसे षड्ज का मोर से, ऋषभ का चातक से आदि) बताया है। फिर स्थायी, संचारी, आरोहावरोह, वादी, संवादी, अनुवादी, विवादी को समझाकर स्वरों के वर्ण (रंग) द्वीप, ऋषि, गोत्र, नक्षत्र, राशि, रस आदि को बताया है। इसके बाद षड्ज ग्राम, मध्यम ग्राम और गान्धार ग्राम के स्वर बताए हैं। फिर षड्ज ग्राम की श्रुतियों को बताते हैं। इनकी श्रुतियों के नाम सिद्धा, प्रभावती, कांता, सुप्रभा, शिखा, दीप्तिमति, उग्रा, हलादी, निर्विरी, दिरा, सर्पसहा, क्षांति, विभूति, मालिनी, चपला, बाला, सर्वरत्ना, शान्ता, विकलिनी, हृदयोन्मालिनी, विसारिणी और प्रसूना हैं। फिर उनकी मूर्च्छनाओं का वर्णन करके स्वर-प्रकृति इत्यादि को समझाया है। इस पाद में कुल 114 श्लोक हैं। द्वितीय पाद में 'संगीत देह निरूपण' के अन्तर्गत संगीत के शरीर को समझाया है। इस प्रकार इस पाद में कुल 24 श्लोक हैं। संगीत के तीसरे पाद में रागों के नाम सूर्यांश के अन्तर्गत गायन समय के अनुसार जैसे गान्धार, देवगान्धार, धन्नासी, सैंधवी, नारायणी, गुर्जरी, बंगाल, पटमंजरी आदि को प्रातः कालीन राग बताया है। फिर सम्पूर्ण, षाडव व औडव रागों के ग्रह स्वरों को बताया है। साथ ही पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग रागों के नाम दिए हैं। इसमें कुल 92 श्लोक हैं।संगीत के चौथे पाद में मृदंग के लक्षण, वीणा के लक्षण, वाद्य विशेप मृदंग, दर्दुर, पणव, झर्झरी, पटह) आदि का वर्णन, स्वरोत्पत्ति का स्थान, गायक लक्षण आदि को समझाया है। इस पद में कुल 59 श्लोक हैं। इसके बाद नृत्याध्याय का प्रारम्भ होता है। इसमें नाट्य- शाला, सभा, विद्वान्, कवि, गायक, परिहास, इतिहास, ज्योतिष, वैद्यक, पौराणिक, सभापति, नट, घर्घरि, पात्र आदि के लक्षण बताए हैं। इसमें अधिकांश लक्षण एक-एक श्लोक में हैं। अन्त में पुष्पाञ्जलि के तीन श्लोक देकर, इस पाद को 54 श्लोकों में समाप्त किया है। इसी पाद में पांच तालों की उत्पत्ति का निरूपण भी किया गया है। नृत्याध्याय के द्वितीय पाद में एकोत्तरशत तालों के नाम हैं तथा लघु, गुरु, प्लुत के आधार पर उन तालों के लक्षण हैं। इस प्रकार इस पाद में कुल 74 श्लोक हैं। नृत्याध्याय के तृतीय पाद में दस प्रकार के ताल-प्रबन्धों का वर्णन लघू, सूलादिताल और अंग ताल, ताल शब्द की निष्पत्ति, काल, मार्ग और मात्रा का लक्षण, देशी तथा मार्गी क्रियाओं के नाम, अंग, ग्रह, लय (इसी के अन्तर्गत यति भी दी गई है) जाति प्रस्तार को भी समझाया है। इस पाद में कुल 100 श्लोक हैं। नृत्याध्याय का अन्तिम पाद चतुर्थ पाद है। इसमें 43 श्लोकों में मृदंगोत्पत्ति के लक्षण बताए हैं। इस प्रकार इस ग्रंथ में कुल 506 श्लोक हैं। तदुपरान्त विभिन्न नृत्य मुद्राओं का विवेचन नृत्याध्याय में हस्तक प्रकरण की समाप्ति के साथ हुआ है।