बौद्ध काल तथा मौर्य काल में संगीत
बौद्ध काल में संगीत
भारत के सांस्कृतिक गतिविधियों के अध्ययन के लिए बौद्ध साहित्य का परिशीलन अत्यन्त आवश्यक है। 563 ई. पू. भगवान बुद्ध का जन्म काल माना जाता है। भगवान बुद्ध स्वयं एक उत्तम संगीतज्ञ थे। बौद्ध काल में भगवान बुद्ध के समस्त सिद्वान्तों को गीतों की लड़ियों में पिरो दिया गया। गाँव-गाँव, नगर-नगर जाकर सुन्दर ढंग से गायन करके सुप्त जनता को जागरण का पथ दिखलाया गया। बौद्धों को वही संगीत सम्मत था जो आध्यात्मिक साधना में बाधक न हो। संगीत का सामूहिक अनुष्ठान गिरग्ग, समज्ज तथा अन्य लोकोत्सवों पर किया जाता था। ऐसे प्रसंगों पर संगीत के अतिरिक्त नाट्य, गायन आदि का कार्यक्रम चलता रहता था।
बौद्ध काल में तक्षशिला विद्यादान का मुख्य केंद्र था। वाराणसी उस समय का दूसरा विद्या केन्द्र था। उस काल में उच्च वर्ग में संगीत की विधिवत शिक्षा का प्रचलन था। उस समय के अन्तः पुर में महंती वीणा मृदंग पणव, तुर्य, वेणु आदि वाद्यों का वादन तथा गायन मनोरंजन के लिए किया जाता था। बुद्ध के जन्म के शुभावसर पर पाँच सौ वाद्यों का वृन्दवादन हुआ था
• बौद्ध काल में तत, वितत, घन तथा सुषिर इन चतुर्विध वाद्यों का प्रचुर उल्लेख पाया जाता हैं। तत वाद्यों में वीणा, परिवादिनी, विपंची, वल्लकी, महती, नकुली, कच्छपी तथा तुनाकीवीणा वीणा उस समय का प्रियतम् वाद्य रहा है। इस काल में वीणाओं की प्रतियोगिताओं का आयोजन होता था। अवनद्ध में मृदंग, भेरी, पणव, दुन्दुभी व घन वाद्यों में घण्टा, जल्लरी, झल्लरी तथा कास्य इत्यादि वाल का उल्लेख मिलता है। सुषिर वाद्य में शंख, तुर्य, कराल, श्रृंग इत्यादि का उल्लेख मिलता हैज्ञान के उपदेश के साथ-साथ संगीत काल का परिष्कार हुआ। इसी काल में "थेरीगाथा' की रचना हुई, जो कि बौद्ध भिक्षुणियों के भाव-प्रणव गीतों का संग्रह है। गीतों के माध्यम से आध्यात्मिकता के दर्शन होते थे। यह एक संगीतमय काव्य संग्रह है, जिसमें 522 गीतों का संग्रह है। यह ग्रन्थ भिक्षुणियों के द्वारा ही रचा गया है। यह गीत राग रागनियों में आबद्ध है।
• बौद्ध युग में संगीत साहित्य का बहुत विकास हुआ। संगीत के अन्तर्गत ग्राम, मूर्च्छना के साथ रागों का प्रचलन भी आरम्भ हो चुका था। तत्कालीन लोकोत्सवों पर गीत, वाद्य तथा नृत्य की त्रिवेणी प्रवाहित हो उठती थी।
मौर्यकाल में संगीत
• मौर्यकाल में चन्द्रगुप्त मौर्य का लगभग सम्पूर्ण भारत वर्ष पर शासन था। चन्द्रगुप्त मौर्य संगीत का बड़ा प्रेमी था। उसके दरबार में नित्याप्रति कलाकारों को गाने और नृत्य के लिए आमन्त्रित किया जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने संगीत के विकास के लिए बहुत प्रयत्न किए, परन्तु फिर भी संगीत की उन्नति इस काल में उतनी नहीं हुई, जितनी कि बौद्ध युग में थी।
सामान्य जनता संगीत को उतनी तन्मयता से नहीं सीख पाई, बल्कि संगीत का मनोरंजक पक्ष उभर कर सामने आया। आध्यात्मिक संगीत का जो विकास अभी तक हुआ था। वह अब धूमिल पड़ता जा रहा था। संगीत अब विलासिता का साधन समझा जाने लगा। उसका कारण था विदेशी सभ्यता का हमारी सभ्यता पर प्रभाव। यूनानियों के सम्पर्क से भारतीय संगीत पर गहरा प्रभाव पड़ा। चन्द्रगुप्त के दरबार में दोनों स्थानों के संगीतज्ञ एकत्रित होते थे, परन्तु शास्त्रीय संगीत का विकास इस काल में अधिक नहीं हुआ। लोक गीत एवं लोकनृत्य अधिक विकसित हुई। वाद्यों में वीणा मृदंग, मंजीरा, ढोल, दुन्दुभि, वंशी ढफ आदि वाद्य अधिक प्रचलित थे। बिन्दुसार के बाद सम्राट अशोक के काल में संगीत का फिर से आध्यात्मिक रूप सामने आया है। अशोक के सिद्धान्तों के अनुसार संगीत द्वारा क्रोध, अंहकार, ईर्ष्या आदि कुप्रवृत्तियों का दमन किया जाना चाहिए।
यही कारण है कि मौर्यकाल के प्रथम चरण में संगीतकारों का सामाजिक स्थान नीचा हो गया था। यह सत्य है कि सम्राट अशोक के प्रयासों के ही फलस्वरूप संगीत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पा सका। सम्पूर्ण विश्व ने भारतीय धर्म के साथ-साथ भारतीय संगीत के महत्त्व को समझा उसको सराहा। भारतीय संगीत की प्रतिष्ठा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में उसका मान बढ़ाने के लिए सम्राट अशोक ने जो प्रयत्न किए उनका परिणाम आज सम्पूर्ण विश्व के सामने है।
• कुषाण साम्राज्य का समय
राजा कनिष्क संगीत का बड़ा प्रेमी था। वह संगीत और संगीतज्ञों का बड़ा सम्मान करता था। उसके दरबार में अश्वमेघ नामक संगीतज्ञ ने 'बुद्धचरित्र' नामक संगीतमय काव्य की रचना की, जिसके गीत उस समय सर्वसाधारण में प्रचलित हो गए। कनिष्क द्वारा देश और विदेश में संगीत का अच्छा प्रचार हुआ।