राग तरंगिणी

0

 राग तरंगिणी


राग तरंगिणी लोचन द्वारा लिखा महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह मिथिला जिले के निवासी थे। इस ग्रंथ की रचना का काल  14वीं शताब्दी के अंतिम अथवा 15वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में कहा जा सकता है। वैसे इसका रचनाकाल ठीक ठीक निश्चित करना कठिन है। यह ग्रन्थ पांच तरंगों (अध्याय)में विभाजित है। शुरू की चारों तरंगों में राग से सबंधित वर्णन है। पांचवीं तरंग में स्वर स्वस्थान फिर अंत में राग वर्णन है। पांचों तरंगें संक्षेप में इस प्रकार हैं-


( 1) पुरुष राग स्वरूप कथन


2) रागिनी स्वरूप कथन 


(3) नोमतोम विषय


(4) तिरूहुत देश के संकीर्ण (मिश्र) रागों का वर्णन 


(5) स्वर, वोणा बाह्य, श्रुति विभाग, राग संस्थान, राग गान समय और नायक-नायिका-भेद कथन।


पूरे ग्रन्थ में स्वर प्रकरण नहीं है। पांचवीं तरंग में स्वर संबंधी वर्णन है। स्वर के बारे में प्रारम्भ करते हुए लोचन ने कहा कि-

(वीणा यंत्र या वाद्य में बजने वाले रागों की उत्पत्ति संस्थानों से होती है। संस्थान ठाठ या मेल उन संस्थानों को स्पष्ट करने वाले स्वर हैं। स्वर से ही संस्थान बनते हैं। इन स्वरो की संज्ञाएं षड्ज, ऋषभ, गांधार इत्यादि हैं। मीणा के सब रागों में स्वरों की जो संस्थियां (स्थान) हैं,

जिनके वादन मात्र से स्वर की अभिव्यक्ति होती है, ये संस्थियां रागों में बारह कही गई हैं। उन्हीं के द्वारा राग गाये जाते हैं। उन संस्थियों के नाम भैरवी, तोड़ी, गौरी, कर्णाट, केदार, ईमन, सारंग, मेघ, धनाश्री, पूर्वा, मुखारी और दीपक। इन्हीं बारह संस्थानों में सब राग व्यवस्थित बताए गए हैं।


भैरवी - लोचन के सभी स्वर जहां शुद्ध होते हैं वो भैरवी के हैं। अहोबल ने शुद्ध मेल तथा श्रीराग मेल नाम दिया है।


तोड़ी - सभी शुद्ध स्वरों के साथ रे ध कोमल करने पर तोड़ी संस्थान बनता है। लोचन की तोड़ी आज हमारी भैरवी के समान है।


गौरी- तोड़ी की स्वरावली में ही ग, म की और नि, सां की दो-दो श्रुति लेने पर गौरी संस्थान होता है। हमारे आज के भैरव के समान है। कर्णाट- इसका लक्षण खण्डित है।


केदार- सब शुद्ध स्वरों के साथ ग, म की और नि, सां की दो-दो श्रुति ले लें तो यह केदार संस्थि है। हमारे आज. के बिलावल के समान है।ईमन-केदार में म दो श्रुति चढ़ जाए तो उसे यमन संस्थान कहेंगे। इनका ईमन आज के यमन से मिलता है। हैं।


सारंग- इसका लक्षण खण्डित है। ध-ग, म और नि दो-दो श्रुति चढ़ जाते हैं और साम्य में शुद्ध म का भी प्रयोग हो तो वह मेघ होगा।

धनाश्री-रे, ध कोमल और ग, म, नि दो-दो श्रुति चढ़े हुए हैं तो यह धनाश्री संस्थान है। यह आज के हमारे पूर्वा थाट के समान है। पूर्वा (पूर्वी)- इसका लक्षण स्पष्ट नहीं है।


मुखारी - सब शुद्ध स्वरों के साथ ध कोमल होने पर हैं। मुखारी यह आज के आसावरी समकक्ष है।

आपने इस ग्रंथ में भारतीय संगीत एवं यवन संगीत के गुणों का संग्रह कर इस ग्रंथ की रचना की। जहां आपने भरत कथित नाद, श्रुति, स्वर, सिद्धान्त अपनाए, वहीं फारसी 24 'हंगाम' और बारह' मुकाम' पद्धति को भी अपने 12 संस्थान पद्धति में स्थान दिया है। आपने श्रुतियों के प्राचीन नाम और स्वर स्थान स्वीकार किए हैं अर्थात् प्रत्येक स्वर को उसको अन्तिम श्रुति पर स्थित ही माना है, परन्तु सात शुद्ध स्वरों के साथ नौ विकृत अर्थात् कुल सोलह स्वर माने हैं।


राग तरंगिणी के अनुसार स्वरों की जातियां इस प्रकार

हैं- सम्पूर्ण षाडव और औडव को क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कहा है। इससे कम स्वर वाले राग शुद्र कहलाते है बारह संस्थानों में प्रमुख रागों को वर्गीकृत किया है। जैसे-

भैरवी - नीलाम्बरी तोडी, त्रिवणा, मुलतानी, धनाश्री, बसंत, रामकली, गुर्जरी, बगुली, रेवा, भटियार, मालवत्री, जयश्री, आसावरी, देवगंधार, सिंधी, आसावरी और गुणकरी। गौरी-मालवश्री, गौरी, चैती, पहाड़ी, देशी। कर्णाट - बागेश्री, खम्बावती, सोरठ, परज, मारू,


जयजयवन्ती, ककुभ, कामोद, कामोदी, केदारी, गौड, मालवकैडिक, हिन्दोल, सुघराई, श्रीराग इत्यादि। केदार- केदारनाट, शंकराभरण, बिहंगड़ा, हम्मीर, श्यामछायानट, भूपाली, भीमपलासी, कैशिक और मारू इत्यादि. शुद्धकल्याण, पूरिया प्रचार में इसे जैतकल्याण कहते हैं।


सारंग - पटमंजरी, वृन्दावनी, सामंत बड़हंस। मेघ - मल्लार, गौड़‌सारंग, नट, बेलावली, अल्हैया, शुद्ध सूहा, देशी सूहा, देशाख्य, शुद्ध नाट। धनाश्री - धनाश्री और ललिता।

पूर्वा- पूर्वा, मुखारी और बाकी दो के लक्षण खण्डित दीपक-इनके रागों के उल्लेख नहीं मिलते। इसके बाद मिश्र रागों का वर्णन किया है। बागेश्री राग- धनाश्री और कानड़ा के मिश्रण से। गुणक्री - गुर्जरी और आसावरी के मिश्रण से। भीमपलासी - धनाश्री और पूरिया का मिश्रण। बिहागड़ा- कल्याण और कानड़ा का मिश्रण।


इसके बाद रागों का गायन समय बतलाया है- रागों को प्रातः गेय, मध्यान्ह गेय, सायंगेय और सर्वकालीन चार प्रकार के बताए हैं। कुछ रागों का समय चौबीस घंटे में विभाजित किया है। ग्रन्थ की समाप्ति नायक और नायिका-भेद से की है  भरत अंतत: कह सकते हैं कि कवि लोचन ने जहां एक ओर कथित नाद श्रुति-स्वर सिद्धान्त अपनाए, वहां दूसरी ओर फारसी 24 हंगाम तथा 12 मुकाम पद्धति को भी अपने संस्थान पद्धति में स्थान दिया है। भातखण्डेजी इस ग्रंथ को छन्दशास्त्र का ग्रंथ माना है।


संगीत जगत ई-जर्नल आपके लिए ऐसी कई महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ लेके आ रहा है। हमसे फ्री में जुड़ने के लिए नीचे दिए गए सोशल मीडिया बटन पर क्लिक करके अभी जॉईन कीजिए।

संगीत की हर परीक्षा में आनेवाले महत्वपूर्ण विषयोंका विस्तृत विवेचन
WhatsApp GroupJoin Now
Telegram GroupJoin Now
Please Follow on FacebookJoin NowFacebook
Please Follow on InstagramInstagram
Please Subscribe on YouTubeYouTube

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top