शौध प्रबन्ध और उसकी रूपरेखा
शोध प्रबन्ध क्या- डॉ० नगेन्द्र के अनुसार 'सामान्यतः शोध-प्रबन्ध वह प्रबन्ध है जिसमें मौलिक अनुसन्धान के निष्कर्षों का आख्यान किया गया हो। विशेष रूप से वही कृति शोध-प्रबन्ध कहलाती है जिसमें किसी विशिष्ट दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया हो और जो किसी उपाधि की प्राप्ति के लिए प्रस्तुत (औरु स्वीकृति भी) की गई हो।' श्री देवकी नन्दन श्रीवास्तव के अनुसार 'अनुसन्धान मूलतः एक विशिष्ट दृष्टिकोण से किसी विषय-सामग्री का चयन करके उसकी सूक्ष्म छानबीन के उपरान्त उपलब्ध निष्कर्षों के सहारे सत्य की तथ्यपरक स्थापना है।' डॉ० सुरेश चन्द्र गुप्ता के अनुसार 'ज्ञान की किसी विशिष्ट शाखा में जिज्ञासा रखते हुए उस दिशा में खोज द्वारा उपलब्ध होने वाली सामग्री का क्रमशः परीक्षण और समीक्षा ही अनुसंधान है।' जबकि श्री ओ. पी. वर्मा का कहना है कि 'सत्य की खोज के लिए अथवा प्राप्त ज्ञान की परीक्षा करने के उद्देश्य से किया जाने वाला व्यवस्थित प्रयत्न ही अनुसंधान है।' संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 'किसी व्यवस्थित क्रम से ज्ञान प्राप्त करके, उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किसी ऐसे नवीन दृष्टिकोण की स्थापना करना जो किसी विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत होकर किसी उपाधि की प्राप्ति करा दे, उसे हम 'शोध-प्रबन्ध' कहेंगे।
शोध प्रबन्ध क्यों- भौतिक सुख-सुविधाओं की कामना और आवश्यकता ने भी मानव को शोधोन्मुख किया है। जहाँ ज्ञान के विस्तार अथवा अज्ञान के उद्घाटन की आकांक्षा है, वहीं अनुसंधान का बीज निहित है। अनुसंधान कार्य का आजीविका से जुड़ जाना तथा शिक्षा जगत् में उच्च पद की प्राप्ति हेतु इसका अनिवार्य किया जाना भी एक अनिवार्यता बन गई है। अतः अब एक ओर जहाँ 'बैठे से बेगार भली' वाली भावना जुड़ी हुई है, वहीं दूसरी ओर एक विवशताभरी आवश्यकता भी बन गई है।
शोध प्रबन्ध कैसे- सबसे पहले विद्यार्थी को शोध के लिए कोई विषय चुनना होता है। फिर उसका कोई शीर्षक बनाकर उसकी एक रूप-रेखा (Synopsis) बनानी पड़ती है। इसके उपरान्त उसे उस विषय से सम्बन्धित सामग्री का संकलन करना पड़ता है और अन्त में प्राप्त सामग्री के आधार पर अपना निर्णय देना होता है। तो आइए, अब प्रत्येक पर थोड़ा-थोड़ा विचार करें।
विषय का चुनाव कैसे करें- विषय, जहाँ तक हो सके सीमित और संकुचित हो परन्तु उसका क्षेत्र इतना अवश्य होना चाहिए कि हमें उस पर काम करने के लिए और उसमें कोई नई बात प्राप्त करने के लिए पूर्ण अवकाश प्राप्त हो। इसका चुनाव इस दृष्टि से होना चाहिए कि भले ही विषय छोटा हो, लेकिन उसे हम परिपूर्णता के साथ प्रस्तुत कर सकें। मौलिकता, एक शोध-प्रबन्ध की प्रथम आवश्यकता है। परन्तु यह गुण अत्यन्त अल्प मात्रा में ही पाया जाता है। अधिकांश शोध-प्रबन्धों में विषयों की पुनरावृत्ति, उद्धरणों की भरमार, पिष्ट-प्रेषण की प्रवृत्ति और एकांगी व अधूरे निष्कर्ष आज शोध-प्रबन्धों के सामान्य लक्षण बन चुके हैं। आज का शोध-विद्यार्थी शोध के विषय को चुनता नहीं, वरन् माँगता है। उसका तर्क होता है 'कुछ भी बता दीजिये, मैं कर लूँगा या करने की कोशिश करूँगा।' ऐसे भ्रम में पड़े व्यक्ति कुछ भी नहीं कर पाते। उन्हें चाहिए कि वे अपनी रुचि और सामर्थ्य के अनुसार एक विषय का ही नहीं वरन् अनेक विषयों का निर्वाचन करें और फिर निर्देशक की सलाह पर उनमें से सर्वोत्तम विषय पर टिकें।
इसलिए शोध-कर्ता को सबसे पहले अपनी रुचि के विषयों की सूची बना लेनी चाहिए। फिर रुचि प्राधान्य के अनुसार उनका क्रम निर्धारित कर लेना चाहिए। इसके पश्चात् यह देखना चाहिए कि अपनी रुचि के अनुकूल विषयों में से ऐसा कौन सा विषय है, जिस पर अनुसंधान नहीं हुआ है और यदि हुआ भी है तो किस रूप में हुआ है।
रूपरेखा (Synopsis) तैयार करनाः विषय को निर्धारित करने के उपरांत यदि शोध-प्रबन्ध की सीमाओं को भी निर्धारित कर लिया जाता है तो कार्य सुगम हो जाता है और शोध-कर्ता अपनी समस्या को अधिक स्पष्टता के साथ देख सकता है। इससे वह समझ लेता है कि उसे इस विषय पर क्या नई बात कहनी है। उसकी पुष्टि के लिए वह कौनसा मार्ग अपनाएगा और उसे किस प्रकार से अभिव्यक्त करेगा। पर्याप्त सावधानी बरतने पर भी विषय की पुनरावृत्ति सम्भव हो सकती है अतः उसे अपने वि से सम्बन्धित एक छोटा-सा सांकेतिक स्वरूप-बोधक तथा स्पष्ट 'शीर्षक' बना लेना चाहिए।
जब शीर्षक बना लिया जाए तो फिर शोध-प्रबन्ध की रूप-रेखा बतानी चाहिए। इसमें अनुसन्धानकर्ता को यह ध्यान रखना चाहिए कि इससेलोगों को शोधकर्ता की दिशा का पूर्ण ज्ञान हो जाए अर्थात् 'वह किस तथ्य को किस दृष्टिकोण से प्रकाश में लाना चाहता है' का स्पष्टीकरण हो जाना चाहिए। जहाँ तक हो सके उसे यह भी बताने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसके इस अध्ययन का कारण और उद्देश्य क्या है? अस्पष्ट रूप-रेखा से शोध-कर्ता की अक्षमता और तैयारी की कमी का बोध होता है। यह, शोध-विषय की संक्षिप्त प्रस्तावना के रूप में भी हो सकता है। इसमें शोध-विषयक प्रत्येक पक्ष स्पष्ट, क्रमबद्ध तथा यथासम्भव विस्तार से प्रस्तुत करना चाहिए। इसे विविध अध्यायों में विभक्त करके या सम्पूर्ण प्रारूप को कुछ खण्डों में विभाजित करके, चाहे जैसे किया जा सकता है।
शोध प्रवन्ध के लिए सामग्री के स्रोत- जब शोध-प्रबन्ध की रूप-रेखा तैयार हो जाए तब उससे सम्बन्धित सामग्री को एकत्रित करना चाहिए। यह सामग्री प्रायः प्रकाशित एवं हस्तलिखित ग्रंथों से, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से तथा शोध संस्थानों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित बुलेटिनों से प्राप्त की जा सकती है। यदि विषय, चिन्त्रों अथवा मूर्तियों से सम्बन्धित है (जैसे 'राग-रागिनियाँ और उनके चित्र' या 'संगीत और मूर्तिकला का सम्बन्ध' या 'भारत के पत्थरों में संगीत' आदि) तो भारत के विभिन्न राज्यों में दीवारों पर बने राग-रागिनियों के चित्र अथवा विभिन्न स्थानों पर बनी संगीत से सम्बन्धित पत्थरों की मूर्तियों का अध्ययन करना होगा। इसके अतिरिक्त विद्वानों के व्यक्तिगत पुस्तकालय तथा सरकारी और गैर सरकारी रिपोर्ट्स भी अत्यन्त सहायक होंगी' विभिन्न संगीत-संस्थाओं द्वारा आयोजित गोष्ठियों में दिए जाने वाले भाषण और उच्चकोटि के संगीत-अध्यापक एवं विद्वज्जनों से किए गए वार्तालाप तथा उनके द्वारा दिए गए सुझाब भी बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं। सामग्री का संकलन रिकार्डिंग, पत्र-व्यवहार और प्रश्नावली के द्वारा आसानी से किया जा सकता है।
सामग्री कैसे एकत्रित करें- सबसे पहले उन पुस्तकालयों की एक सूची तैयार करनी चाहिए जहाँ आपके शोध-विषय से सम्बन्धित पुस्तकें प्राप्त हो सकें। फिर उपलब्ध ग्रंथों की सूची बना लेनी चाहिए ताकि सामग्री-संकलन में सुबिधा हो जाए। इसी प्रकार साक्षात्कार आदि के लिए भी सम्बन्धित व्यक्तियों के पते आदि लिख लेने चाहिए। अब शोध प्रबन्ध में आप जिस सामग्री का संकलन करेंगे उसके प्रमाण के लिए संकलन-स्रोत का स्पष्ट, प्रामाणिक और विजीग उल्लेख आवश्यक है। आपने जिन ग्रंथों से तथ्यों को संकलित किया है उनके लेखक का नाम, पुस्तक का नाम, प्रकाशक का नाम, प्रकाशन तिथि, संपादक या अनुवादक का नाम, संस्करण या खण्ड-संख्या का उल्लेख करना आवश्यक है
शोध प्रबन्ध का लेखन और भाषा- जब सामग्री एकत्रित हो जाए तो स्वेच्छा और कल्पना से दूर रहकर उसका तर्कसंगत रूप ध्यान में रहना चाहिए। शोध-लक्ष्य की पूर्ति के लिए तथ्य-प्रयोग से लेकर निष्कर्ष तक पहुँचने की प्रक्रिया तर्कसंगत होनी चाहिए। शोध-सामग्री का व्यवस्थापन जितना अधिक तर्कसंगत होगा उसका निर्णय भी उतना ही स्पष्ट, युक्तिपूर्ण, तथ्यात्मक और सुसम्बद्ध होगा।
कुछ लोगों की धारणा है कि विषय का जितने विस्तार से प्रतिपादन किया जाएगा, उनका कार्य उतना ही अच्छा होगा। अतः अनेक शोध-प्रबन्ध 500-600 पृष्ठों के विशालकाय ग्रन्थ बन जाते हैं। उनमें अधिकांश उद्धरणों की भरमार होती है या फिर वह विभिन्न विद्वानों के मतों को एकत्रित करना ही शोध-कार्य समझ लेते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि शोध-कर्ता को अपने मत के समर्थन, किसी मान्यता, विचार, निष्कर्ष अथवा निर्णय के समर्थन, पुष्टि, संशोधन या विरोध आदि के लिए इन प्रमाणों का उद्धरण देना आवश्यक है किन्तु उद्धरण उतना ही होना चाहिए जिससे आपका उद्देश्य पूर्ण होता हो।
शोध प्रबन्ध की भाषा के विषय में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भाषा सरल, स्पष्ट और सुबोध हो। दुरूह, जटिल, आलंकारिक तथा पाण्डित्य-प्रधान भाषा अनुसंधान का दोष ही मानी जाएगी। यह सीधी-सादी व उलझन रहित होनी चाहिए। उसमें जो कुछ लिखा जाए वह न अनावश्यक हो और न व्यर्थ। उसमें यदि अन्य भाषाओं के उद्धरण दिए जाएँ तो उनका मूल और हिन्दी अनुवाद, दोनों देने आवश्यक हैं। संक्षेप में शोध-प्रबन्ध की शैली तर्कपूर्ण, तथ्यपरक, निर्दोष, परिमार्जित, व्याकरण-सम्मत, रोचक, स्पष्ट और गतिशील तथा सुबोध होनी चाहिए।
अन्त में जिन पुस्तकों से सामग्री संचित की गई है उन ग्रंथों की सूची देना भी आवश्यक है। एक शोधकर्ता के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि अपना कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व उसे अलग-अलग लोगों के कुछ शोध प्रबन्धों को अवश्य पढ़ लेना चाहिए ताकि विषय की पुनरावृत्ति का दोष न लगे और शोधकर्ता की दूरदर्शिता तथा गहरे अध्ययन की छाप स्वतंत्र रूप से अंकित हो सके। संगीत सम्बंधी शोध प्रबन्धों में प्रायः स्वरांकन या स्वरलिपियाँ भी देनी पड़ती है। उनमें ध्यान रखना चाहिए कि कोमल तीव्र, मंद्र और तार सप्तकीय स्वर-चिन्हों में भूल न हो। विभिन्न विषयों के शोध प्रबंधों में संगीत सम्बंधी शोध प्रबन्धों का एक अलग स्थान व महत्त्व होता है।