संगीत में काकु
भिन्नकंठध्वनिर्धीरैः काकुरित्यभिधीयते ।
अर्थात् - कंठ की भिन्नता से ध्वनि में जो भिन्नता पैदा होती है। उसे 'काकु' कहते हैं। ध्वनि या आवाज़ में मनोभावों को व्यक्त करने की अद्भुत हारिक होती है। कंठ में जो ध्वनि-तंत्रियाँ हैं, उनके स्पंदन से ध्वनि निकलती है। इसी तरह तंतुवाद्यों में तारों के छेड़ने से ध्वनि पैदा होती है तथा हारमोनियम, बाँसुरी, शहनाई, क्लैरीनेट आदि सुषिर वाद्यों में वायु के कंपन से ध्वनि उत्पन्न होती है। शोक, भय, प्रसन्नता, प्रेम आदि भावों को व्यक्त करने के लिए जब ध्वनि या आवाज़ में भिन्नता आती है, तब उसें 'काकु' कहते हैं। काकु का प्रयोग मानव तो करते ही हैं, पशुओं में भी काकु-प्रयोग भली भाँति पाया जाता है। उदाहरणार्थ, एक कुत्ता जब किसी चोर के ऊपर भौंकता है, तो उसके भौंकने की ध्वनि में एक प्रकार की भयंकरता या कठोरता होती है; वही कुत्ता जब अपने मालिक के साथ घूमने के लिए व्यग्रता प्रकट करता हुआ, अपनी बँधी हुई जंजीर से मुक्ति पाने के लिए भौंकता है, तब उसकी आवाज़ बदल जाती है। उस समय उसकी आवाज़ में एक प्रकार की विवशता तथा विनय का भाव पाया जाता है। इसी प्रकार जब बिल्ली भूखी होती है तो उसकी म्याऊँ में कुछ और ही बात होती है और वही बिल्ली किसी के द्वारा अपने बच्चे को छेड़ते समय विरोध प्रकट करती हुई म्याऊँ करती है, तब उसकी म्याऊँ में कुछ दूसरे प्रकार की ध्वनि होती है। ध्वनि की इसी भिन्नता, शैली या शक्ति को 'काकु' कहते हैं। विभिन्न जीव-जन्तु मनुष्य की तरह भाषा का प्रयोग तो नहीं कर सकते लेकिन अपनी ध्वनियों के उतार-चढ़ाव से वे अपने भावों को व्यक्त करते हुए अपनी बात प्रेषित करने में सफल रहते हैं।
मानव-जाति में 'काकु' का प्रयोग विशेष रूप से पाया जाता है। एक शब्द है-जाओ। इस शब्द को 'काकु' के विभिन्न प्रयोगों से देखिए-एक अफसर अपने चपरासी को कहीं भेजने के लिए 'जाओ' कहता है, तब उसकी 'जाओ' में आज्ञा देने की भावना पाई जाती है और यही शब्द जब एक विद्यार्थी छुट्टी पाते समय अपने गुरु के मुख से सुनता है, तब उसमें कुछ और ही प्रकार की 'काकु'होती है। यहाँ हम कहेंगे कि उस अफसर का और गुरु जी का शब्द तो एक ही है। किंतु काकु पृथक् पृथक् हैं। इसी प्रकार गायन में काकु-प्रयोग सुनने में आते हैं। किंतु काकु पृथक्कारनाथ ठाकुर सूरदास के लोकप्रिय पद 'मैया, मैं नहि माखन खायो' गाते थे तो 'मैया री' शब्द के द्वारा काकु प्रयोग करके ऐसा प्रभाव उत्पन्न कर देते थे कि श्रोतागण कभी तो हँसने लगते और कभी आनंदान बहाने लगते थे। एक ही शब्द में कहीं तो रोष तथा झुंझलाहट का भाव होता और कहीं माता के प्रति विनम्रता होती थी। कभी उसमें करुणा होती थी, तो कभी उससे वेदना निःसृत होती थी। यह काकु का ही चमत्कार था। नाटक में जब किसी पात्र के संवादों द्वारा कोई विशेष भाव व्यक्त कराया जाता है, तब वहाँ काकु बहुत सहायक होता है। जो अभिनेता काकु का प्रयोग करने में जितनी कुशलता से समर्थ होगा, वह अपने अभिनय को भी उतना ही सफलतापूर्वक निभा सकेगा। 'नाट्यशास्त्र' के 17 वें अध्याय में 'काकु' की विशद व्याख्या पाई जाती है। उसमें छाती, कंठ, सिर आदि काकु के स्थान बताए गए हैं। साथ ही यह भी बताया है कि किस काकु से कौन-कौन से रस की सृष्टि होती है। 'संगीत रत्नाकर' के प्रकीर्णाध्याय में काकु के छह प्रकार बताए गए हैं; यथा-
छायाकाकुः षट्प्रकारा स्वररागान्यरागजा।
स्याद्देशक्षेत्रयंत्राणां तल्लक्षणमथोच्यते ।।
अर्थात् - 'छाया काकु' छह प्रकार के होते हैं- 1. स्वर-काकु, 2. राग-काकु, 3. अन्यराग-काकु, 4. देश-काकु, 5. क्षेत्र-काकु, 6. यंत्र-काकु।
स्वर-काकु
श्रुति को कुछ अधिक या कम कर देने से एक स्वर की छाया दिखाई देती है; वह 'स्वर-काकु' है। दूसरे स्वर में जो
राग-काकु
किसी राग की जो अपनी मुख्य छाया है; वह 'राग-काकु' कहलाती है।
अन्यराग-काकु
जब किसी राग की छाया अन्य राग में दिखाई देती है तो उसे 'अन्यराग-काकु' कहते हैं।
देश-काकु
राग में किसी अन्य राग का सहारा न लेकर अपने देश और स्वभाव से अपने राग में ही सम्मिलित रहता है; उसे 'देश-काकु' कहते हैं।
क्षेत्र-काकु
क्षेत्र का अर्थ है 'शरीर' अर्थात् शरीर को ही 'क्षेत्र' कहा जाता है। 'कंठ' शरीर का अवयव है लेकिन प्रत्येक कंठ से निकलने वाली आवाज़ में भिन्नता रहती है। इस भिन्नता के कारण ही हम पहचान लेते हैं कि यह अमुक व्यक्ति की आवाज़ है। आवाज़ के गुणधर्म शरीर या कंठ की बनावट इत्यादि के ऊपर निर्भर करते हैं। इस प्रकार शरीर से उत्पन्न होने के कारण आवाज़ का परिवर्तन 'क्षेत्र-काकु' के अन्तर्गत माना जाता है। दो अलग-अलग गायक जब एक ही गीत को गाते हैं तो क्षेत्र-काकु के कारण ही हम उन्हें पहचान लेते हैं।
यंत्र-काकु
वीणा और बाँसुरी आदि वाद्य-यन्त्रों से उत्पन्न ध्वनि का जो अपना काकु होता है; उसे 'यंत्र-काकु' कहते हैं। इस यंत्र-काकु के द्वारा ही हमारे कान वाद्ययंत्रों की परस्पर भिन्नता करके उन्हें बिना देखे ही केवल श्रवण मात्र से पहचान लेते हैं कि यह ध्वनि अमुक वाद्य की है। ध्वनि की भिन्नता एवं विभिन्न अर्थ का बोध कराने में जो शक्ति कार्यरत होती है, उसी को 'काकु' कहा जाता है। इस प्रकार ध्वनि या नाद की दुनिया में 'काकु' की शक्ति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है जो ध्वनि की तारता, तीव्रता और ध्वनि की विविध कम्पन संख्याओं पर आधारित होकर मनुष्य के क्रिया में सहायक सिद्ध होती है।
'अमरकोष' के अनुसार 'काकु' ध्वनि के उस विकार को कहते हैं, जिसके द्वारा किसी भाव की अभिव्यक्ति हो। हास, अनुराग, शोक, क्रोध, उत्साह, 'भय, जुगुप्सा, विस्मय इत्यादि सभी सनातन भावों को प्रकट करने में 'काकु' की शक्ति का ही महत्त्व है, जिसके द्वारा भावों की अभिव्यंजना में स्निग्धता, माधुर्य और रस की सृष्टि होती है। संगीत के लिए तो काकु का प्रयोग बहुत ही महत्त्व रखता है।