ललित कलाओं में संगीत का स्थान
ललित कलाओं को सामान्यतः दो वर्गों में विभक्त किया जाता है- ललित कला तथा उपयोगी कला। ललित कलाएँ मनुष्य के सौन्दर्यबोध की प्रतीक हैं, उपयोगी कलाओं में बौद्धिकता तथा उपयोगिता का सम्मिश्रण रहता है। ललित कलाओं में वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला और काव्यकला की गणना होती है। उपयोगी कलाएँ मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बद्ध हैं। उपयोगी कलाओं में भी थोड़ा-बहुत सौन्दर्यबोध का भाव तो रहता है, पर वह गौण है। कुर्सी, मेज आदि वस्तुओं में 'डिजाइन' का ध्यान रखा जाता है, किन्तु यह डिजाइन प्रायः उपयोगिता की दृष्टि से बनाई जाती है। इस प्रकार उपयोगी कला व्यवहार जनित और सुविधा बोधी है तथा ललित कला मन के सन्तोष के लिए है। साथ ही उसमें उस विशिष्ट मानसिक सौन्दर्य की योजना है जो उपयोगितावाद्ध से भिन्न तत्व है।
ललित कला के अन्तर्गत जो पाँच भेद माने जाते हैं। इनमें प्रथम तीन अर्थात् वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकलां | का 'दृश्य' माना जाता है तथा संगीत कला और काव्य कला को प्रमुखतः ' श्रव्य' कहा गया है। ललित कलाएँ मनुष्य के सौन्दर्यचोध की विकसित अवस्थाओं को परिचायक हैं। यद्यपि ये मनुष्य की जीविका हेतु उपयोगी भी होती हैं, परन्तु प्रमुखतः वे अलौकिक आनन्द की सिद्धि में ही सहायक सिद्ध होती हैं। इस दृष्टि से सामान्यतः कला कहने से ललित कलाओं का बोध होता है। इन कलाओं में से जिस कला में माध्यम के रूप में प्रयुक्त हाने वाले उपकरण सबसे कम होते हैं, वही कला सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस कसौटी पर वास्तुकला सबसे निम्न स्तर की ठहरती है। इसका कारण यह है कि उसमें प्रयुक्त उपकरण ईंट, रोड़ी, चूना आदि एकदम मूर्त तथा स्थूल है। वास्तुकला के बाद मूर्तिकला आती है। इसके उपकरण पत्थर, छैनी, हथौड़ा आदि वास्तुकला से तो कम मूर्त हैं, पर फिर भी उसमें सूक्ष्मता का अभाव है। चित्रकला के उपकरण कागज, रंग, कूची आदि और भी कम स्थूल हैं फिर भी उसमें सूक्ष्मता का अभाव है। काव्य में केवल शब्द को उपकरण बनाकर साहित्यकार अपनी सृष्टि की रचना करता है। परन्तु संगीत कला में शब्दों का भी सहारा छोड़ दिया जाता है। वहाँ केवल ध्वनि संयोजन के आधार पर रचना की जाती है।
अनेक विद्वान इन ललित कलाओं में साहित्य का स्थान सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। यहाँ यह विचारणीय बात है कि यद्यपि 'शब्द' ही हमारी आत्मा के सबसे अधिक समीप है परन्तु साहित्य में शब्दों को सुनते समय हमारी बुद्धि को अनेक अर्थों और भावों को ध्यान में रखने का प्रत्यन करते रहना पड़ता है तभी साहित्य का आनन्द आता है। परन्तु किसी वाद्य द्वारा उत्पन्न संगीत में अथवा केवल आ-आ द्वारा रागालाप की अभिव्यक्ति में बुद्धि को शब्दों के अर्थो में नहीं उलझना पड़ता। वहाँ केवल नाद द्वारा ही भावों की अभिव्यक्ति होती है। अतएव जो आनन्द संगीत द्वारा मनुष्य को प्राप्त हो सकता है यह अन्य किसी ललित कला द्वारा सम्भव नहीं है। इसीलिए ललित कलाओं में संगीत का स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अमूर्त भावनाओं को मूर्त रूप देने के लिए किसी भौतिक पदार्थ को माध्यम बनाना पड़ता है। यह पदार्थ जितना हीहमारी आत्मा के निकट होगा उतना ही उत्तम होगा। होंगेल | नामक जर्मन दार्शनिक के अनुसार 'शब्द' हमारी आत्मा के सबसे अधिक निकट है। इसीलिए शब्दों के माध्यम द्वारा हम आध्यात्मिक जगत को अनुभूतियों को अधिक स्पष्ट कर सकते हैं। ध्यान में जो रूप होता है उससे संगीत का जन्म होता गति में जो रूप होता है, उससे नृत्य की अनुभूति होती है। है। एक गायक या वादक की आत्मा ही स्वरों का रूप धारण करके, कल्पना और वेदना से प्रेरित होकर भांति-भाँति से जो स्वर योजना करने लगती है, वही संगीत है। उस समय आत्मा के आलोक से चमचमाते स्वर, जीवन की सम्पूर्ण वेदना लेकेर उत्कृष्ट संगीत को जन्म देते हैं। ऐसे ही संगीत को सुनकर श्रोता उन्मुक्त अवस्था का अनुभव करने लगता है।
कला के क्षेत्र में सौन्दर्य, कलाकार के हृदय में उदय होता, पलता और पुष्ट होता है और अनेक माध्यमों द्वारा अभिव्यक्त होता है। सुन्दर अभिव्यञ्जनाओं का लक्ष्य हो आनंद की उपलब्धि कराना होता है। यह तभी सम्भव होता है जबकि कलाकार के अन्तःकरण में तीव्र वेदना को अनुभव करने की स्वाभाविक ग्राहकता हो। इस अभिव्यकित में नियम और स्वच्छन्दता का सामन्जस्य आवश्यक होता है। परन्तु नियम की कठोरता में अभिव्यक्ति नीरस और मृतवत् हो जाती है। अतः कलाकार की कलात्मक प्रतिभा का स्वच्छन्द गति से बहना ही श्रेयस्कर है।
जिस प्रकार कि केवल ईंट, रोड़ी, चूना, पत्थर इत्यादि को भवन नहीं कहा जा सकता, ठीक उसी प्रकार केवल स्वरों से संगीत नहीं बनता। संगीत रचना के लिए अनेक स्वरों को किसी क्रम और लय में रखना आवश्यक है। लय या गति को प्रदर्शित करने के लिए समय की आवश्यकता होती है। अतः 'स्वरों का किसी क्रम से लय में आते रहने की क्रिया को का संगीत का प्रथम चरण कहा जा सकता है।' परन्तु जब तक इन स्वरों के क्रम में कोई नियम या बन्धन न हो, उसे संगीत नहीं कहा जा सकता।
संगीतकला में 'समय' एक आवश्यक तत्व होने के कारण, संगीत-रचना को एक ईंट, चूने के बने भवन, पत्थर की मूर्ति आदि की भाँति एक बार में ही समग्र रूप में ध्वनियों अती ती है। एक धाम के उपरान्त अन्य। ध्वनियाँ आजी म्बती हैं। जो ध्वनि सुनाई देती है, श्रोता को उसके पूर्व की ध्यान बाद रखना पड़ता है और आगे आनेध्वनियों से उसके सम्बन्ध को ध्यान में रखना पड़ता है तभी उसे संगीत का आनन्द आता है।
रचनात्मक प्रवृत्ति से 'रूप' की उत्पत्ति होती है। सलि कलाओं में यही रूप स्वयं अपने प्रभाव से अनुभूति उत्पन्न करता है। रचनात्मक प्रवृत्ति से रूप का अधियों करना एक आनन्ददायक, मानसिक आसैर शारीरिक क्रिया है इसी कारण से संगीतज्ञ स्वरों को गुनगुना कर संगीत की एकर करता है। नवीन, आनन्दवर्धक और सुन्दर' रूप' का अविफर करने के लिए कलाकार का पर्याप्त मानसिक विकास और सप की रूपता को हृदयङ्गम कराने में समर्थ स्वाभाविक क्षमता को आवश्यकता होती है। इसी स्वाभाविक क्षमता को ' कलालक प्रतिभा' कहा जाता है।
संगीत का आनन्द लेने के लिए सबसे पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सुन्दरता, रूचि के अनुसार भिन्न- भिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न वस्तुओं या कार्यों में मिली है। यदि हम संगीत का आनन्द लेना चाहते हैं तो हमें अपने मन को ऐसा बनाना पड़ेगा कि वह संगीत का आनंद ले सके। फिर, विभिन्न मनःस्थितियों में एक ही मनुष्य को एक हो वस्तु सुन्दर और असुन्दर दोनों प्रकार की प्रतीत हो सकती है। इस प्रकार सुन्दरता मनःस्थिति पर निर्भर करती है। अतएव संगीत का आनन्द लेने के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि हमें अपनी जड़ तथा स्थिर प्रवृत्तियों, इच्छाओं और द्वन्नों को त्याग के, सहृदयता के साथ स्वयं को संगीत के स्वर तथा लय-प्रवाह में पूर्ण रूप से समर्पित कर देना होगा। हो संगीत अपनी स्वर लहरी से हृदय को विशेष गति प्रदान फरके स्वतः जीवन मुक्त अवस्था और मादकता प्रदान करेण। तब हमें ऐसा प्रतीत होगा कि देह का बन्धन छूट गया रस महोदधि उमड़ पड़ा; और अपने में अद्भुत आनन्द छा गया।